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Vijay Erry

Horror Others

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Vijay Erry

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खामोश दीवारो का सच

खामोश दीवारो का सच

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नया शीर्षक: “खामोश दीवारों का सच”

गाँव के छोर पर बना वह पुराना मकान आज भी खड़ा था,

पर कोई उसमें रहता नहीं था…

या यूँ कहें—कोई ज़िंदा नहीं रहता था।

लोग उसे पहले “मृतकों का घर” कहते थे,

पर समय के साथ उस नाम से भी डरने लगे।

अब बस इतना कहते—

“उधर मत जाना… वो घर अच्छा नहीं है।”

1

रवि शहर से पढ़-लिखकर लौटा था।

उसके पिता की मौत के बाद गाँव की ज़मीन और वह पुराना मकान उसी के नाम हुआ था।

माँ ने साफ़ मना किया था—

“बेटा, उस घर में मत जाना… वहाँ सिर्फ़ बीती आत्माएँ रहती हैं।”

रवि मुस्कुरा दिया,

“माँ, पढ़ा-लिखा हूँ, भूत-वूत नहीं मानता।”

पर माँ की आँखों में जो डर था,

वो किसी किताब से नहीं आया था—

वो अनुभव से पैदा हुआ था।

2

घर के सामने खड़े होकर रवि को अजीब-सा सन्नाटा महसूस हुआ।

दीवारें काली पड़ चुकी थीं,

दरवाज़ा आधा टूटा,

और खिड़कियों से आती हवा में एक ठंडी सी कराह थी।

जैसे घर साँस ले रहा हो…

पर जीवन नहीं—

यादों की बदबूदार साँसें।

रवि ने दरवाज़ा खोला।

“कौन है?”

उसकी अपनी आवाज़ ही उसे डराने लगी।

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अंदर कदम रखते ही

पुरानी अगरबत्ती, सड़ी लकड़ी और नमी की मिली-जुली गंध ने उसका स्वागत किया।

दीवारों पर टंगी तस्वीरें…

कुछ जानी-पहचानी…

कुछ अजीब…

एक तस्वीर पर रवि ठिठक गया।

वो उसके दादा थे…

पर उनके पीछे खड़ा आदमी—

वो कौन था?

चेहरा धुंधला,

आँखें खाली।

4

रात हुई।

रवि वहीं रुक गया।

बारह बजे के करीब…

किसी के चलने की आवाज़ आई।

“माँ?”

उसने पुकारा।

पर जवाब में

बस फर्श पर घिसटती हुई आवाज़।

फिर एक धीमी फुसफुसाहट—

“हम लौट आए हैं…”

5

रवि का शरीर सुन्न हो गया।

कमरे के कोने में

एक औरत खड़ी थी।

चेहरा पीला,

आँखें गड्ढों में धँसी,

और गर्दन पर गहरे निशान।

“तुम कौन हो?”

रवि ने काँपती आवाज़ में पूछा।

वो बोली—

“मैं इस घर की पहली बेटी थी…

मुझे यहीं मार दिया गया था।”

6

दीवारें हिलने लगीं।

तस्वीरें गिर पड़ीं।

एक-एक कर

और साए उभरने लगे।

कोई जलकर मरा था,

कोई फाँसी पर लटका,

कोई कुएँ में धकेला गया।

सबकी एक ही कहानी थी—

“हमारे अपने ही हमारे कातिल थे।”

7

रवि को याद आया—

गाँव में कभी चर्चा थी

कि यह घर लालच, जायदाद और झूठ की नींव पर बना है।

हर पीढ़ी ने

अपने ही खून का बलिदान दिया था।

घर नहीं था यह…

पापों का कब्रिस्तान था।

8

सुबह होते ही रवि भागा माँ के पास।

माँ रो पड़ी—

“मैंने कहा था ना…

यह घर मृतकों का नहीं,

सच का घर है।

जो गया,

सच देखे बिना लौटा नहीं।”

9

रवि ने फैसला किया।

वह घर तोड़ेगा।

वहाँ स्कूल बनवाएगा।

ताकि वहाँ चीखें नहीं—

हँसी गूँजे।

गाँव वालों ने मना किया,

डराया,

पर रवि अड़ा रहा।

10

जिस दिन आख़िरी दीवार गिरी—

एक ठंडी हवा चली।

और जैसे किसी ने कहा—

“अब हमें मुक्ति मिल गई।”

उस दिन के बाद

गाँव में कोई आत्महत्या नहीं हुई,

कोई अजीब मौत नहीं।

11

आज वहाँ बच्चे पढ़ते हैं।

हँसते हैं।

जीते हैं।

और रवि जान गया—

कुछ घर

मृतकों के नहीं होते,

हमारे किए कर्मों के होते हैं।

अगर हम सच का सामना कर लें,

तो सबसे डरावनी दीवार भी

ढह जाती है।

✍️ लेखक: Vijay Sharma Erry

अगर आप चाहें तो मैं

इसे और ज़्यादा हॉरर,

थ्रिलर ट्विस्ट,

या सीरीज (भाग 1, भाग 2) में भी बदल सकता हूँ।

बस बताइए—अगला रूप कौन-सा चाहिए? 👀


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