अधूरा पूरा प्यार
अधूरा पूरा प्यार
अधूरा पूरा प्यार
लेखक: विजय शर्मा Erry
शहर के एक पुराने से मोहल्ले में रहने वाली अनन्या की पहचान अब सिर्फ़ एक नाम नहीं थी—वह एक single mother थी। आठ साल का बेटा आरव उसकी दुनिया था, उसकी सुबह और उसकी रात। पति की अचानक हुई मौत ने अनन्या के जीवन की दिशा बदल दी थी। सपनों से भरे घर में अब ज़िम्मेदारियों का शोर था, और उस शोर में उसने अपने दिल की आवाज़ को बहुत पीछे छोड़ दिया था।
सुबह पाँच बजे उठकर वह आरव के लिए टिफ़िन बनाती, उसे स्कूल भेजती और फिर एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने चली जाती। बच्चों को पढ़ाते हुए वह अक्सर मुस्कुराती, पर उस मुस्कान के पीछे की थकान कोई नहीं देख पाता। लौटते समय सब्ज़ी मंडी, दवा की दुकान, बिजली का बिल—जीवन जैसे हिसाब-किताब में सिमट गया था।
अनन्या ने अपने लिए कुछ माँगना छोड़ दिया था। मोहल्ले की औरतें जब उसके बारे में फुसफुसातीं—“अकेली है… सावधान रहना”—तो वह अनसुना कर देती। उसे पता था, समाज के सवालों से लड़ना आसान नहीं, पर बेटे के लिए मज़बूत बनना ज़रूरी है।
एक दिन स्कूल में नए लाइब्रेरियन, आदित्य, की नियुक्ति हुई। सादा व्यक्तित्व, शांत आँखें और किताबों से प्रेम—वह बाकी लोगों से अलग था। पहली मुलाक़ात बस औपचारिक थी। लेकिन धीरे-धीरे स्टाफ़रूम की चाय, बच्चों की किताबों पर चर्चा और स्कूल के कार्यक्रमों ने बातचीत को दोस्ती में बदल दिया।
आदित्य की खास बात यह थी कि वह अनन्या को single mother की तरह नहीं, एक इंसान की तरह देखता था। न दया, न सवाल—बस सम्मान। जब उसने आरव का नाम सुना तो मुस्कुराकर कहा,
“बच्चे बहुत समझदार होते हैं, बस उन्हें सच और प्यार चाहिए।”
एक शाम स्कूल से लौटते समय बारिश ने दोनों को बस-स्टॉप पर रोक लिया। बातों-बातों में अनन्या ने अपने जीवन की कुछ परतें खोलीं—अधूरा सपना, अचानक टूटा भरोसा, और आरव के लिए खुद को पीछे रख देने का निर्णय। आदित्य चुपचाप सुनता रहा। फिर बोला,
“ज़िम्मेदारी प्यार के रास्ते बंद नहीं करती, बस उन्हें और ईमानदार बना देती है।”
उस वाक्य ने अनन्या के दिल को छू लिया। वर्षों बाद किसी ने उसके बोझ को बोझ नहीं, उसकी ताक़त कहा था।
दिन बीतते गए। आदित्य कभी-कभी आरव के लिए किताबें ले आता। आरव भी उससे घुलने लगा। एक दिन आरव ने मासूमियत से पूछ लिया,
“मम्मा, क्या अंकल हमारे दोस्त हैं?”
अनन्या चुप रह गई। दोस्त… या उससे कुछ ज़्यादा?
दिल में उठते सवालों से वह डर गई। समाज, रिश्तेदार, भविष्य—सब आँखों के सामने घूमने लगा। उसने आदित्य से दूरी बनानी चाही। स्टाफ़रूम में कम बैठना, बातचीत सीमित करना—पर भावनाएँ कहाँ मानती हैं?
एक दिन स्कूल के वार्षिकोत्सव की तैयारी में देर हो गई। सब चले गए, लाइब्रेरी में बस अनन्या और आदित्य रह गए। किताबों की अलमारियों के बीच खड़े होकर आदित्य ने धीरे से कहा,
“अगर मेरी वजह से आपको असहजता हो रही है, तो मैं पीछे हट जाऊँगा। लेकिन सच यह है कि… मैं आपकी इज़्ज़त करता हूँ, और शायद… पसंद भी।”
अनन्या की आँखें भर आईं।
“मैं डरती हूँ, आदित्य। मेरे पास खोने के लिए बहुत कुछ है—आरव का बचपन, उसकी सुरक्षा, उसकी मुस्कान।”
आदित्य ने शांत स्वर में कहा,
“और मेरे पास देने के लिए धैर्य है। कोई जल्दबाज़ी नहीं। मैं सिर्फ़ आपके साथ चलना चाहता हूँ—अगर आप चाहें।”
उस रात अनन्या सो नहीं पाई। उसे लगा जैसे दिल ने बरसों बाद दस्तक दी हो। अगले दिन उसने आरव से बात की।
“अगर मम्मा की ज़िंदगी में कोई दोस्त आए, तो तुम्हें कैसा लगेगा?”
आरव ने बिना सोचे कहा,
“अगर वो आपको हँसाए, तो मुझे अच्छा लगेगा।”
यह जवाब अनन्या के लिए सबसे बड़ा साहस बन गया।
धीरे-धीरे रिश्ते को नाम मिला—पहले दोस्ती, फिर भरोसा। आदित्य ने कभी आरव की जगह लेने की कोशिश नहीं की, बस उसके साथ खड़ा रहा। मोहल्ले की बातें शुरू हुईं, पर इस बार अनन्या ने सिर झुकाया नहीं। उसने अपने जीवन का फैसला खुद लेने का हक़ पहचाना था।
एक दिन पार्क में टहलते हुए आदित्य ने कहा,
“प्यार कोई दूसरी शादी नहीं, अनन्या। यह दो ज़िम्मेदार दिलों का समझौता है।”
अनन्या मुस्कुराई—इस बार थकान नहीं, सुकून था।
समय के साथ जीवन सहज होता गया। आरव की हँसी और गहरी हुई, अनन्या के कदमों में आत्मविश्वास लौटा। उसने समझ लिया था कि single mother होना अंत नहीं, एक नई शुरुआत भी हो सकती है—जहाँ प्यार शर्तों पर नहीं, समझ पर टिका होता है।
शाम के सूरज के साथ तीनों ने घर लौटते हुए हाथ थामे। अनन्या ने मन ही मन कहा—
“ज़िम्मेदारियों के बीच भी प्यार पूरा हो सकता है, अगर साथ चलने वाला सही हो।”
और उस दिन, अधूरी लगती ज़िंदगी ने एक पूरा अध्याय लिख लिया।
