प्रयोगशाला के प्रयोग
प्रयोगशाला के प्रयोग
शीर्षक: “प्रयोगशाला के प्रयोग
लेखक: विजय शर्मा Erry
शहर से पचास किलोमीटर दूर, घने जंगलों और ऊँची चट्टानों के बीच बनी वह प्रयोगशाला रात में किसी भूतिया किले जैसी लगती थी। वहाँ तक पहुँचने वाली सड़क पर मोबाइल नेटवर्क मर चुका था, और सूरज ढलते ही अजीब-सी खामोशी फैल जाती थी। इसी खामोशी में डॉ. आर्यन वर्मा अपने जीवन का सबसे खतरनाक प्रयोग करने जा रहे थे।
आर्यन सिर्फ वैज्ञानिक नहीं थे—वे जुनूनी थे। उनका मानना था कि डर, दया और नैतिकता इंसान की प्रगति में सबसे बड़ी रुकावट हैं। अगर मस्तिष्क के उस हिस्से को दबा दिया जाए जो भावनाएँ पैदा करता है, तो इंसान “परफेक्ट मशीन” बन सकता है।
उनकी सहयोगी मीरा को यह विचार शुरू से खटकता था।
“सर, हम इंसान हैं, रोबोट नहीं,” मीरा ने कंप्यूटर स्क्रीन से नजर हटाए बिना कहा।
आर्यन ने ठंडी मुस्कान के साथ जवाब दिया, “और यही हमारी कमजोरी है, मीरा।”
उस रात प्रयोगशाला में चार स्वयंसेवक मौजूद थे। सबको बताया गया था कि यह एक न्यूरो-एन्हांसमेंट टेस्ट है। सच्चाई यह थी कि यह भावनाओं को निष्क्रिय करने का प्रयोग था।
पहला स्वयंसेवक—राहुल—जैसे ही मशीन से जोड़ा गया, उसकी आँखें कुछ सेकेंड के लिए सफेद हो गईं। मशीन के मीटर तेज़ी से हिलने लगे।
“हार्ट रेट नॉर्मल है,” मीरा ने कहा।
अचानक राहुल हँसने लगा—बिना वजह, बिना रुके।
फिर उसकी हँसी चीख़ में बदल गई।
“मशीन बंद कीजिए!” मीरा चिल्लाई।
लेकिन आर्यन ने हाथ उठा दिया, “नहीं, डेटा रिकॉर्ड करो।”
अगले ही पल राहुल का शरीर अकड़ गया। उसकी आँखें खुली रह गईं—बिलकुल मरी हुई।
कमरे में सन्नाटा छा गया।
मीरा काँपते हुए बोली, “वह… मर गया है।”
आर्यन ने सपाट स्वर में कहा, “नहीं, वह एक स्टेज पार कर गया है।”
लेकिन तभी राहुल उठ बैठा।
उसकी गर्दन अजीब कोण पर मुड़ी हुई थी। आँखों में कोई भाव नहीं था। वह सीधे मीरा की ओर देखने लगा।
“मीरा… तुम डर रही हो?”
आवाज़ राहुल की थी, लेकिन लहजा किसी और का।
मीरा पीछे हट गई।
अचानक अलार्म बजने लगे। दरवाज़े अपने आप लॉक हो गए।
“सिस्टम फेल हो रहा है!” मीरा चिल्लाई।
राहुल मशीन से उतरकर धीरे-धीरे चलने लगा। उसकी चाल इंसान जैसी नहीं थी—मानो कोई कठपुतली।
उसने दूसरे स्वयंसेवक की गर्दन पकड़ ली।
एक झटके में… कड़क!
खून फर्श पर फैल गया।
मीरा चीख़ पड़ी। आर्यन की आँखों में पहली बार चमक थी—डर की नहीं, उत्साह की।
“यह काम कर रहा है…” वह बुदबुदाया।
अब तीनों स्वयंसेवक बदल चुके थे। बिना भाव, बिना डर। वे प्रयोगशाला में घूम रहे थे—तोड़ते हुए, मारते हुए।
मीरा कंट्रोल रूम की ओर भागी। उसने आपातकालीन सिस्टम चालू करने की कोशिश की, लेकिन स्क्रीन पर एक संदेश चमका—
ACCESS DENIED – ADMIN ONLY
“सर, आपने सिस्टम लॉक क्यों किया?!” मीरा चिल्लाई।
आर्यन शांत स्वर में बोले, “क्योंकि यह प्रयोग बीच में रोका नहीं जा सकता।”
तभी एक स्वयंसेवक ने शीशे की दीवार पर मुक्का मारा। शीशा दरकने लगा।
मीरा ने कांपती आवाज़ में कहा, “अगर ये बाहर निकल गए, तो…”
“तो इंसानियत का अंत शुरू होगा,” आर्यन ने गर्व से कहा।
मीरा ने आखिरी दाँव खेला। उसने मुख्य सर्वर को ओवरलोड करना शुरू किया। इससे पूरी प्रयोगशाला नष्ट हो सकती थी।
आर्यन दौड़कर उसके पास आए, “तुम क्या कर रही हो?!”
“आपको रोक रही हूँ, सर!”
पीछे से एक बदला हुआ स्वयंसेवक आर्यन पर झपटा। मीरा ने खींचकर आर्यन को बचाया, लेकिन खुद गिर पड़ी।
स्वयंसेवक ने मीरा की ओर देखा। पहली बार उसकी आँखों में कुछ चमका—संघर्ष।
“मी…रा…”
उसके मुँह से टूटा-फूटा शब्द निकला।
और उसी पल मशीन ओवरलोड हो गई।
भयानक विस्फोट हुआ। आग, धुआँ, चीख़ें।
सुबह जब रेस्क्यू टीम पहुँची, तो प्रयोगशाला राख बन चुकी थी। तीनों स्वयंसेवक मृत थे। मीरा गंभीर रूप से घायल थी।
और आर्यन?
वह ज़िंदा था—लेकिन उसकी आँखें भावशून्य थीं।
डॉक्टर बोले, “इनके मस्तिष्क का भावनात्मक हिस्सा नष्ट हो चुका है।”
मीरा ने आँसू भरी आँखों से आर्यन को देखा।
वह प्रयोग सफल हो गया था—
लेकिन कीमत इंसानियत थी।
आज भी उस जंगल के पास जाने वाले लोग कहते हैं—
रात में वहाँ से मशीनों की आवाज़ और किसी के हँसने की ध्वनि आती है…
बिना भावना, बिना आत्मा की हँसी।

