अद्भुत शादी
अद्भुत शादी
अद्भुत शादी
लेखक: विजय शर्मा Erry
शहर के पुराने मोहल्ले की तंग गलियों में बसा हुआ था शेखर का घर। बाहर से साधारण, पर भीतर संस्कारों और संघर्षों से भरा। शेखर एक सरकारी स्कूल में हिंदी का अध्यापक था—ईमानदार, सादा जीवन जीने वाला, और अपने सिद्धांतों से कभी समझौता न करने वाला इंसान। उसकी पत्नी सुनीता गृहिणी थी, जिसने जीवन को हमेशा रिश्तों की गरिमा से आँका था। उनकी एक ही बेटी थी—अनन्या।
अनन्या पढ़ाई में तेज़, स्वभाव में विनम्र और विचारों में स्वतंत्र थी। उसने समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर किया था और एक एनजीओ में काम करती थी, जहाँ वह बालिका शिक्षा और महिला अधिकारों के लिए काम करती थी। उसने बचपन से ही अपनी माँ को पड़ोस की बहुओं के आँसू पोंछते देखा था—कभी दहेज के लिए ताने, कभी मारपीट, कभी मायके भेज देने की धमकी। अनन्या के मन में तब से ही एक सवाल पल रहा था—क्या शादी का मतलब लड़की के घर से सामान उठाकर दूसरे घर में जमा करना है?
समय आया तो अनन्या के लिए रिश्ते आने लगे। शेखर ने साफ़ शब्दों में सबको एक ही बात कही—“हम दहेज नहीं देंगे। लड़की पढ़ी-लिखी है, आत्मनिर्भर है, बस इतना ही उसका परिचय है।”
कई घरों से जवाब आया—“सोचेंगे।”
कुछ ने सीधे कह दिया—“आजकल बिना दहेज के शादी कहाँ होती है मास्टर जी?”
एक दिन शहर के नामी व्यापारी अग्रवाल जी का रिश्ता आया। लड़का—रोहन—एमबीए, पिता का कारोबार संभालता हुआ। बातचीत शुरू हुई तो सब ठीक लगा। रोहन शालीन और समझदार दिखा। लेकिन जैसे ही शादी की बात पक्की होने लगी, अग्रवाल जी ने मुस्कुराते हुए कहा,
“देखिए मास्टर जी, हम दहेज नहीं कहते… बस लड़की के माता-पिता अपनी हैसियत के अनुसार कुछ दे दें। कार, थोड़ा फर्नीचर, और शादी में मेहमानों का अच्छा इंतज़ाम…”
शेखर का चेहरा गंभीर हो गया।
“अग्रवाल जी, मेरी हैसियत ईमानदारी से कमाए गए वेतन की है। और हमारी बेटी किसी सौदे का हिस्सा नहीं।”
अग्रवाल जी ने हँसकर बात टालनी चाही,
“अरे, जमाना बदल गया है। ये सब तो चलता रहता है।”
शेखर ने शांत पर दृढ़ स्वर में कहा,
“अगर दहेज नहीं तो शादी नहीं—ये सोच हम नहीं बदल सकते।”
रिश्ता टूट गया।
पड़ोसियों ने ताने कसे—
“इतनी पढ़ी-लिखी लड़की है, फिर भी रिश्ते हाथ से जा रहे हैं।”
“आजकल बिना दहेज कौन शादी करता है?”
सुनीता कई रातों तक चुपचाप रोती रही। उसे डर था कि कहीं उसकी बेटी अकेली न रह जाए। लेकिन अनन्या ने माँ का हाथ थामकर कहा,
“माँ, अगर शादी में मेरी कीमत सामान से आँकी जाएगी, तो ऐसी शादी नहीं चाहिए।”
कुछ महीनों बाद एक और रिश्ता आया—राहुल का। वह एक निजी कंपनी में इंजीनियर था। परिवार मध्यमवर्गीय, सोच आधुनिक। पहली मुलाक़ात में राहुल ने ही कहा,
“अनन्या, मैं दहेज के ख़िलाफ़ हूँ। शादी दो लोगों का साथ है, लेन-देन नहीं।”
अनन्या के चेहरे पर पहली बार सुकून की मुस्कान आई।
लेकिन कहानी यहीं खत्म नहीं हुई।
जब दोनों परिवारों की बैठक हुई, तो राहुल की बुआ ने अचानक बात छेड़ दी,
“भाभी, लड़की वालों को भी कुछ तो देना चाहिए। समाज में इज़्ज़त रहती है।”
राहुल तुरंत खड़ा हो गया।
“बुआ जी, अगर दहेज से इज़्ज़त मिलती है, तो मुझे ऐसी इज़्ज़त नहीं चाहिए। मेरी शादी होगी तो बिना दहेज होगी—वरना नहीं।”
कमरे में सन्नाटा छा गया।
राहुल के पिता ने कुछ देर सोचा, फिर कहा,
“बेटा सही कह रहा है। हमने भी तो अपनी बेटियों की शादी बिना दहेज के की है।”
बुआ नाराज़ होकर चुप हो गईं।
शादी की तारीख तय हो गई—सादगी से, सीमित लोगों के बीच। मोहल्ले में चर्चा का विषय बन गई—
“देखो, बिना दहेज की शादी!”
कुछ ने सराहा, कुछ ने मज़ाक उड़ाया।
शादी वाले दिन अनन्या ने साधारण साड़ी पहनी, बिना भारी गहनों के। शेखर ने बेटी को विदा करते समय बस एक किताब दी—डॉ. भीमराव आंबेडकर की “स्त्री और समाज।”
“बेटी, ये तुम्हारा असली दहेज है—विचार और आत्मसम्मान।”
अनन्या की आँखें भर आईं।
शादी के बाद अनन्या और राहुल ने मिलकर एक छोटा सा अभियान शुरू किया—“दहेज नहीं तो शादी हाँ”। वे कॉलेजों, मोहल्लों और सोशल मीडिया पर युवाओं से बात करने लगे। कई लड़के-लड़कियाँ उनसे जुड़ने लगे।
एक दिन वही अग्रवाल जी एक कार्यक्रम में मिले। उन्होंने झेंपते हुए कहा,
“मास्टर जी, शायद हम गलत थे।”
शेखर ने मुस्कुराकर जवाब दिया,
“गलती मान लेना ही बदलाव की शुरुआत है।”
अनन्या की कहानी धीरे-धीरे कई घरों की कहानी बन गई। दहेज की दीवार में एक दरार पड़ चुकी थी।
और उस दरार से झाँक रही थी—एक नई रोशनी,
जहाँ शादी प्यार से होती है,
सम्मान से निभाई जाती है,
और बेटी बोझ नहीं—बराबरी का रिश्ता होती है।
समाप्त
