रंगीन तस्वीरें
रंगीन तस्वीरें
रंगीन तस्वीरें
लेखक: विजय शर्मा एरी
शहर की उस तंग-सी गली में एक पुरानी-सी फोटो स्टूडियो थी—नाम था “रंगीन तस्वीरें”। बाहर से देखने पर वह स्टूडियो किसी बीते ज़माने की कहानी लगता था। शीशे पर चिपकी धूल, लकड़ी का जर्जर दरवाज़ा, और अंदर से आती कैमरे की क्लिक—सब कुछ जैसे समय के किसी और पन्ने से उधार लिया गया हो। मगर जो भी एक बार भीतर कदम रखता, उसे महसूस होता कि यह जगह सिर्फ तस्वीरें नहीं, ज़िंदगी के रंग सहेजती है।
स्टूडियो के मालिक थे राघव वर्मा—पचपन की उम्र, आँखों में ठहराव और चेहरे पर ऐसी मुस्कान जैसे हर दर्द को देख-समझकर भी ज़िंदगी से शिकायत न हो। राघव का मानना था कि तस्वीरें दीवारों पर टाँगने के लिए नहीं होतीं, वे दिलों में टँकती हैं। इसी विश्वास ने उसे अब तक जिंदा रखा था।
राघव कभी एक नामी फोटोग्राफर हुआ करता था। शादी-ब्याह, त्योहार, स्कूल के वार्षिक समारोह—हर जगह वही बुलाया जाता। पर समय बदला। मोबाइल कैमरों ने बाज़ार भर दिया, और बड़े-बड़े डिजिटल स्टूडियो खुल गए। राघव की दुकान जैसे धीरे-धीरे हाशिये पर सरक गई। फिर भी उसने हार नहीं मानी। वह रोज़ सुबह दुकान खोलता, कैमरे को साफ करता, और उम्मीद के साथ कुर्सी पर बैठ जाता।
एक दोपहर, जब धूप खिड़की से छनकर अंदर आ रही थी, दरवाज़ा खुला। अंदर आई अनन्या—बीस-बाईस साल की, आँखों में बेचैनी और हाथ में एक पुराना एल्बम।
“अंकल,” उसने धीमी आवाज़ में कहा, “क्या आप इन तस्वीरों को थोड़ा… रंगीन कर सकते हैं?”
राघव ने एल्बम खोला। भीतर काली-सफेद तस्वीरें थीं—एक जवान आदमी, एक मुस्कुराती औरत, और एक छोटी-सी बच्ची।
“ये मेरे माता-पिता हैं,” अनन्या ने कहा, “और ये… मैं।”
राघव की उँगलियाँ ठिठक गईं। तस्वीरों में भाव इतने गहरे थे कि रंगों की कमी खलती नहीं थी।
“रंगीन करना आसान है,” उसने कहा, “पर भावों को ज्यों का त्यों रखना मुश्किल।”
अनन्या की आँखें भर आईं। “भाव ही चाहिए, अंकल। रंग तो बस बहाना हैं।”
अगले कुछ दिनों तक अनन्या रोज़ आती। राघव तस्वीरों में रंग भरता, और अनन्या किस्से सुनाती। उसके पिता—एक ईमानदार शिक्षक—एक दुर्घटना में चल बसे थे। माँ—सिलाई करके घर चलाती रहीं—थककर एक दिन सो गईं, हमेशा के लिए। तस्वीरें ही थीं जो अनन्या को उनसे जोड़े रखती थीं।
जब पहली तस्वीर रंगीन होकर तैयार हुई, अनन्या देर तक उसे देखती रही। आँखों से आँसू गिरते रहे, पर होंठों पर मुस्कान थी।
“अंकल,” उसने कहा, “आज पहली बार लगा कि वे मेरे पास हैं।”
राघव ने सिर झुका लिया। उसे लगा जैसे उसकी दुकान फिर से सांस लेने लगी हो।
ख़बर फैलने लगी। लोग पुराने एल्बम लेकर आने लगे—किसी की शादी की धुँधली तस्वीरें, किसी की माँ की आख़िरी मुस्कान, किसी बच्चे का पहला जन्मदिन। राघव हर तस्वीर को ऐसे छूता, जैसे वह उसकी अपनी हो। वह रंग भरते हुए अक्सर कहता, “रंग बाहर से नहीं, भीतर से आते हैं।”
इसी बीच एक दिन समीर आया—कॉर्पोरेट सूट में, आत्मविश्वास से भरा।
“मुझे प्रोफ़ाइल फोटो चाहिए,” उसने कहा, “ऐसी जो सक्सेस दिखाए।”
राघव ने कैमरा उठाया, पर कुछ क्षण बाद रख दिया।
“सक्सेस कैमरे से नहीं, आँखों से दिखती है,” उसने कहा।
समीर चौंका। “तो?”
“तो अपनी सच्ची कहानी बताइए।”
समीर कुछ पल चुप रहा, फिर बोला—“मैं बहुत आगे निकल आया हूँ, पर पीछे छूट गए लोगों की याद… खलती है।”
राघव ने फोटो ली। जब प्रिंट निकली, उसमें समीर का चेहरा कम, उसकी आँखों की ईमानदारी ज़्यादा दिख रही थी।
“ये मेरी सबसे सच्ची तस्वीर है,” समीर ने कहा।
दिन बीतते गए। स्टूडियो फिर से गुलज़ार होने लगा। मगर राघव के भीतर एक खालीपन था—उसकी अपनी कहानी का। बरसों पहले उसकी पत्नी मीरा उससे अलग हो गई थी। वजहें छोटी-छोटी थीं—काम, अहम, चुप्पियाँ। फिर एक दिन मीरा चली गई, और पीछे छोड़ गईं कुछ अधूरी तस्वीरें।
एक शाम, जब दुकान बंद होने को थी, दरवाज़ा फिर खुला। सामने मीरा खड़ी थी—बालों में सफ़ेदी, आँखों में वही पुरानी नमी।
“राघव,” उसने कहा, “क्या मेरी तस्वीर… अभी भी रंगीन कर दोगे?”
राघव का गला भर आया।
“तस्वीर नहीं, मीरा,” वह बोला, “यादें रंगीन करनी हैं।”
दोनों ने साथ बैठकर पुराने एल्बम खोले। हँसी, झगड़े, यात्राएँ—सब कुछ पन्नों से झरने लगा। राघव ने पहली बार समझा कि तस्वीरें सिर्फ़ बीते कल का आईना नहीं होतीं, वे आज का हाथ भी थामती हैं।
कुछ महीनों बाद, स्टूडियो के बाहर नया बोर्ड लगा—“रंगीन तस्वीरें: जहाँ यादें साँस लेती हैं।” अनन्या ने कॉलेज पूरा कर लिया था, समीर ने अपने माता-पिता के साथ एक फ्रेम भिजवाया था, और मीरा—वह हर शाम राघव के साथ चाय पीती थी।
एक दिन अनन्या ने पूछा, “अंकल, आपकी सबसे पसंदीदा तस्वीर कौन-सी है?”
राघव मुस्कुराया। कैमरे के सामने खड़ा हुआ, मीरा उसके बगल में आई।
क्लिक!
“ये,” राघव ने कहा, “क्योंकि इसमें रंग भी हैं, और कहानी भी।”
उस रात, स्टूडियो की बत्ती बुझी तो दीवारों पर टँगी तस्वीरें जैसे और चमक उठीं। वे जानती थीं—जब तक कोई उन्हें समझने वाला है, वे कभी फीकी नहीं पड़ेंगी।
और शहर की उस तंग-सी गली में, रंगीन तस्वीरें अब सिर्फ़ एक दुकान नहीं, ज़िंदगी का एल्बम बन चुकी थी।
