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Mukta Sahay

Tragedy

4.7  

Mukta Sahay

Tragedy

ख़ामोश चीत्कार

ख़ामोश चीत्कार

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नौ साल की मोना ने अपनी बड़ी बहन सोना को आवाज़ लगाई, "दीदी मैं चाचाजी के साथ दुकान से टॉफ़ी लाने जा रही हूँ, माँ को बता देना।" सोना ने चिल्लाते हुए कहा, "मोना नहीं जाओ।" लगभग दौड़ती हुई सी सोना बाहर आई और मोना को हाथ पकड़ कर, घर के अंदर खींच लाई। मोना रोने लगी और चाचाजी भी नाराज़ हो गए। शोर सुन कर माँ भी बाहर, दरवाज़े तक आ गई। सारी बातें सुन कर माँ ने भी सोना को डाँट पिला दी। पर सोना अड़ी रही कि मोना चाचाजी की साथ नहीं जाएगी। चाचाजी भी बुरा मान गए और कोई भी बाहर नहीं गया।

सोना और मोना दो बहने हैं। घर उनके अलावा माता-पिता और दो भाई हैं। सोना सबसे बड़ी है और मोना छोटी, बीच में दो भाई हैं। सोना और मोना में लगभग नौ वर्ष का अंतर है। सोना अपने भाई-बहन का बहुत ही ध्यान रखती है और मोना को तो विशेष कर हमेशा सच्चाई पर चलने, अपने आत्मसम्मान और आत्मरक्षा के लिए दृढ़ता से लड़ने को सीखाती है। चाचा- चाची बाहर, बड़े शहर में रहते हैं । जिस घर में सोना का परिवार रहता है, वह उसके दादाजी का बनाया घर इसलिए इस घर पर अपना हक़ जताने के लिए चाचा-चाची, मिलने का बहाना कर साल में दो बार आ ही जाते हैं, कभी अकेले तो कभी बच्चों के साथ। वैसे जब भी आते है, सभी के लिए कुछ ना कुछ ज़रूर लाते हैं। सोना को छोड़ तीनो भाई-बहन को तो बहुत इंतज़ार होता है इनके आने का लेकिन सोना को इनके आने की खबर चिड़चिड़ा बना देती है। माँ का ध्यान सोना के ऐसे व्यवहार पर जाता तो है पर उन्होंने कभी वजह जानने की कोशिश नहीं की और बाक़ी सभी को सोना में आने वाले इस बदलाव का कोई भान ही नहीं होता था।

हर बार की तरह इस बार भी तीन-चार दिन रुक कर चाचा-चाची चले गए। घर में सब सामान्य ही चलता रहा। सोना बड़ी होती मोना को अपने बचाव और सुरक्षा के सीख देती रहती। माँ कई बार सोना को कहती भी कि क्या-क्या सीखती रहती है तू इसे, तुझे तो मैंने नहीं सीखाया था ये सब, तो तू क्या बड़ी नहीं हुई। माँ की ऐसी बात सुन कर सोना चुप हो जाती। समय आगे बढ़ता रहा। चाचीजी ने खबर की कि वे सभी, चाचा-चाची और बच्चे, अगले सप्ताह आने वाले है। बच्चों की परीक्षा के बाद की छुट्टियाँ होंगी इसलिए लंबा रहेंगे, पूरे दस दिन। चाचा जी के दो बच्चें हैं, बड़ी बेटी है और छोटा बेटा। बेटी सोना के छोटे भाई के बराबर की और बेटा मोना के बराबर का। घर में ख़ुशी का माहौल छा गया। सभी उनके आने की तैयारियों में जुट गए और सोना अनजाने तनाव में। सभी के आने की ख़ुशी इतनी ज़्यादा हावी थी सभी पर की सोना का तनाव और परेशानी किसी के भी नज़र में नहीं आ रहा था। 

चाचा-चाची, बच्चे सभी आए गए थे और घर में उत्सव सा माहौल था। बच्चों के तो बस मज़े हो रहे थे। कभी ये खाना तो कभी वो खाना, आज यहाँ घूमने जाना तो कल वहाँ, अभी यह खेल रहे होते की बस फिर दूसरा खेल शुरू हो जाता। माँ और चाचीजी के बातों का सिलसिला तो थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। कोई भी रिश्तेदार, नातेदार और पड़ोसी नहीं बचा था जिसकी चर्चा नहीं हुई हो। इधर पिताजी और चाचाजी भी बड़ी ज़िम्मेदारी से देश-दुनिया की समस्याओं के हल निकालने पर अटल थे। क़ुल मिला कर सभी एक-दूसरे के साथ मस्त थे लेकिन सोना अपनी परेशानी, अपने तनाव में घुली जा रही थी। 

आज जब सोना छत से कपड़े फैला कर नीचे आई तो देखा पिताजी अकेले बैठक में लेटे अख़बार पढ़ रहे थे और मोना को छोड़ सारे बच्चे आँगन में खेल रहे थे। सोना भागती हुई रसोईघर में गई। देखा माँ और चाची दोपहर का खाना बनाने में व्यस्त थी। परेशान सोना ने पूछा, मोना कहाँ है? माँ ने बताया चाचाजी के साथ टॉफ़ी-चाकलेट लाने गई है, अपनी पसंद की। सोना ने झुंझलाते हुए तुरंत ही कहा, "क्या माँ, क्या ज़रूरत थी मोना को चाचाजी के साथ अकेले भेजने की।" इसपर चाचीजी ने सोना को कहा क्या हुआ जो वह टॉफ़ी लाने चली गई। तब थोड़े ग़ुस्से में सोना ने कड़क आवाज़ में उनसे कहा, चाचीजी आप तो ना कहें, जानती हैं आप, मैं ऐसा क़्यों कह रही हूँ।" चाचीजी चुप हो गई पर माँ को कुछ समझ नहीं आया। 

सोना अपनी स्कूटी ले मोना को वापस लाने निकल गई। टॉफ़ी-चाकलेट की दूकान थोड़ी ही  दूरी पर थी। दूकान के पास मोना और चाचाजी को देख उसने अपनी स्कूटी रोक दी। मोना चाचाजी के बिल्कुल पास खड़ी थी और चाचाजी का एक हाथ मोना के पीठ से होता हुआ बाहों के नीचे था। सोना हड़बड़ी में मोना को खिंचती है और ज़ोर से डाँटती है, तो अकेले क़्यों आई, कितनी बार तुझे समझाया है, पर तू तो टॉफ़ी के लालच में बस सब भूल जाती है। मोना चुप खड़ी थी। सोना फिर चाचाजी की तरफ़ देखती है और कहती है आप इसे आज के बाद अकेले में कहीं ले जाने की कोशिश नहीं करें तो बेहतर होगा, अन्यथा मुझे आपका मेरे घर आना ही बंद करवाना होगा। इतना बोल सोना ने मोना को स्कूटी पर बिठाया और घर आ गई। सोना ने घर आ कर किसी को कुछ नहीं कहा और ऊपर छत पर चली गई। सब सामान्य रहा घर में, मोना भी बाक़ी बच्चों के साथ खेलने लगी । 

थोड़ी देर में चाचाजी भी घर पहुँचे। आज सोना ने उनके अहं पर कुछ ज़्यादा ही ज़ोर से चोट करी थी सो अपमान के ताप में जल रहे थे। वह सीधे बैठक में गए और पिताजी को ज़ोर से कहा कि "सोना बहुत ही बदतमीज़ हो गई है। बड़ों का सम्मान करना नहीं जानती। हम अब यहाँ नहीं रह पाएँगे भाईजी।" सारी बातों से अनभिज्ञ पिताजी ने पूछा, "क्या हुआ?" बैठक में होती आवज सुन माँ और चाचीजी भी बैठक में आ गई। चाचाजी कहते हैं," मोना मेरे साथ दूकान तक गई थी। उसे वहाँ से पकड़ लाई, टॉफ़ी भी नहीं लेने दिया और मुझे भी भला बूरा कह आई, बीच बाज़ार में।" जब तक सोना भी नीचे आ गई पर वह कमरे के बाहर ही खड़ी हो गई। चाचाजी पिताजी को सौ बातें सुनाए जा रहे थे और अब तो चाचीजी भी साथ देने लगीं थी। माँ और पिताजी को कुछ समझ ही नहीं आ रहा था की इतनी बड़ी क्या बात हो गई है जो इतना कोलाहल हो रहा है।

जब सोना ने देखा बात खत्म होने को नहीं आ रही है और चाचाजी-चाचीजी उसके माता-पिता की लगातार अवमानना किए जा रहे हैं तो वह कमरे में आई। उसे देखते ही पिताजी ने थोड़े ग़ुस्से से पूछा "क्या हुआ है तुझे, चाचाजी के साथ तुम ये कैसा व्यवहार कर रही हो ! " सोना ने समझ लिया था कि अब उसका बोलना ही उचित है। वह चाचीजी की तरफ़ घूमती हुई बोली "आप जानती है ना, मैंने क्या किया है और आपने क्या किया है। जब आपने उस समय, जो हुआ उसे नहीं रोका और ना ही उसके ख़िलाफ़ आवज ऊँची करी तो फिर आज आपका यूँ बोलना अच्छा नहीं है। जब एक महिला होते हुए भी आपने एक अबोध बच्ची की अस्मिता के लिए एक शब्द नहीं निकला तो अब भी आप चुप रहें, यही बेहतर है आपके लिए।" चाचीजी नज़रें नीची किए बुत हो गई। 

सोना अब चाचाजी की तरफ़ बढ़ी। चाचाजी के हाव-भाव अब बदलने लगे थे। उनकी घबराहट साफ़ दिख रही थी। चाचाजी के पास पहुँच कर सोना कहती है, "ये बताइए कि उस दिन जो हुआ उसके बाद भी आपको जितना मान दे रही हूँ क्या आप उसके हक़दार हैं।" माँ अब तक बेचैन सी हुई जा रही थी की वह कौन सा दिन था और आख़िर उस दिन हुआ क्या था। माँ ने बेचनी से बोला, "सोना क्या हुआ था बेटा बता तो।" सोना कहती है, "हाँ माँ आज जो ये अपने मान-अपमान की बात कर रहें हैं ना, ये तो घृणा योग्य भी नहीं हैं।" चाचाजी ने स्वयं को सम्भालते हुए, सोना को अपनी ऊँची आवाज़ से डराने की मंशा से, माँ को कहते हैं, "देखा भाभी कैसे बोल रही है ये , कितनी बदतमीज़ हो गई है ये। पहले भी इसने कई बार मेरे साथ ऐसा ही व्यवहार किया है। आप सभी ने देखा था ना पिछली बार भी इसने क्या किया था। अब पिताजी भी सोना को कड़े आवाज़ में कहते है, बड़ों का लिहाज़ करना क्या छोड़ दिया है तुमने सोना।" चाचाजी नही चाहते थे की उस दिन की बात सभी के सामने आए। 

सोना कहती है, "पिताजी जब आपको भी पूरी बात पता चलेगी तो आप भी सोंचेंगे ये कैसा भाई है आपका।" पिताजी कहते हैं, "फिर बताओ ना ऐसी क्या बात हुई है। हमसब भी तो जाने।" सोना ने देखा छोटे भाई-बहन, भी अब तक कमरे में आ गए हैं, जिसमें चाचाजी के बच्चे भी थे। सोना उन सभी को कहती है, छत पर मैंने कैरम बोर्ड रख दिया है जाओ ऊपर जा कर खेल लो। बच्चे खुश हो गए और दौड़ते हुए छत पर चले गए।

बच्चों के जाते ही सोना ने फिर कहा, "माँ याद है जिस होली बुआ आई थी हमारे यहाँ, उस समय चाचाजी और चाचीजी भी आए थे। दादाजी बीमार चल रहे थे और उनकी बहूत इच्छा थी की होली में सभी साथ रहें। उस समय तुम्हें शायद याद हो एक दिन मैं बहुत रोई थी और उसके बाद फिर मैंने किसी से भी बात नहीं की थी। तुम भी पूछती रहती थी की मेरी आँखे लाल क़्यों रहने लगी हैं। मैं बताती हूँ क्या हुआ था उस समय मेरे साथ। मैं उस समय सातवीं में थी और घर में इतने सारे लोग आए देख, मैं भी बहुत खुश थी। अपने सगे रिश्तों पर तो सभी विश्वास करते हैं और हम सभी भी करते थे। चाचाजी तो पिता समान होते हैं और चाचीजी को तो माँ जैसी मानते हैं। 

होली के पहले वाले दिन, जब तुम सब रसोईघर में पकवान बना रहीं थी, तब मुझे एक थाली भर पकोड़े ले कर तुमने मुझे छत पर भेजा था। ऊपर पिताजी, चाचाजी और फूफाजी सभी बैठे थे, उनके लिए। जब मैं पकोड़े ले कर ऊपर गई तो पिताजी और फूफाजी वहाँ नहीं थे शायद नीचे आ गए होंगे। चाचाजी अकेले थे। मुझे देख मुझे अपने पास बिठा लिया। मैं भी आराम से बैठ गई, बिना किसी हिचक के। लेकिन इस आदमी ने फिर शुरू किया ग़लत काम। इसने मुझे ग़लत तरीक़े से छुआ। मैं ज़ोर से चिल्लाई और नीचे भागने लगी। इसने मुझे खींचा और कहा शोर ना मचाऊँ। तभी चाचीजी चाय लेकर ऊपर आ गई थीं। मेरे मन को सहारा मिला। मैंने इनके पीछे छुपने की कोशिश की तो इन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे अपने सामने कर दिया और कहा मैं किसी से भी कुछ ना कहूँ। अभी मैं डरी सी खुद को इन दोनो से बचाने की कोशिश कर रही थी की फूफाजी और पिताजी भी ऊपर आ गए थे छत पर चाय पीने । मैं खुद को इनसे छुड़ा कर भागती हुई नीचे आई, तुम्हें बताने लेकिन काम ज़्यादा है बोल कर तुमने मेरी तरफ़ देखा भी नहीं। मैं कमरे में जा कर रोती रही, सारी रात लेकिन फिर भी तुमने मेरे बारे में कुछ भी जानना नहीं चाहा। तुम भी रिश्तेदारों के आवभगत में व्यस्त रही। अगले दिन होली भी नहीं खेली मैंने। जबकि मैं होली का इंतज़ार करती थी, फिर भी तुमने कारण नहीं जानना चाहा। दादाजी ने होली की शाम मुझे ढूँढा आशीर्वाद देने के लिए, तो बुआ मुझे बुलाने आई। मैं उनके साथ नीचे आई, तब मैंने अहसास किया कि ये आदमी ग़लत करके भी शान से, नज़रें उठाए त्योहार मना रहा है और मैं सब कुछ झेल कर भी गुनहगार की तरह सभी से नज़रें चुराय, छिप रही हूँ। आँसूओं की अविरल धारा बही जा रही थी और दृढ़ता से सोना लगातार बोलती जा रही थी। मैं तुम्हारे सामने थी , तुम्हारे साथ थी माँ फिर भी मेरी पीड़ा तुम्हें कभी नज़र ही नहीं आई। 

ये आदमी इतने में ही नहीं रुका था, इसके बाद जब ये लोग छुट्टियों में हमारे घर आए तो इसने मेरी दोस्त शीला के साथ भी ग़लत करने की कोशिश की थी। वह तो समय पर मैं कमरे में आ गई नहीं तो इस आदमी की वजह से, मुहल्ले में पिताजी और तुम्हारे सम्मान का क्या होता पता नहीं। आज भी यह मोना को ग़लत तरीक़े से पकड़ कर खड़ा था उस दूकान के सामने। मैं नहीं पहुँचती तो मोना भी उसी पीड़ा को झेलती जिसे मैं झेल रही हूँ। माँ तुम कहती हो ना मोना को मैं क्या सीखती रहती हूँ, तुमने तो मुझे कभी नहीं सीखाया। अगर तुमने भी मुझे हिम्मत और दृढ़ता सीखाई  होता तो आज तक ये गंदा आदमी सर उठा कर नहीं चल रहा होता और इस घर में कदम रखने की इसकी हिम्मत भी नही होती।"

सारी बात एक साँस में बोल कर सोना आँसूओं का सैलाब लिए अपने कमरे में चली गई। पीछे कमरे में रह गए निस्तब्ध से बैठ पिताजी, ग्लानि में डूबी माँ और मान-अभिमान की बात करने वाले चाचा-चाची अपने उतरे हुए केंचूल को समेटते हुए ।

शोचनीय विषय है ये कि क्या हमारी बेटियाँ और बहने घरों में सुरक्षित हैं? क्या उनकी अस्मिता को तार-तार करने वाले घरों में छिप कर नही बैठे हैं? क्या उनके आत्मसम्मान को चूर-चूर करने वाले घर की छत के नीचे ही तो नही पनप रहे है? क़्यों घर वाले भी उनके इन समस्याओं को नही समझते? क़्यों रिश्तों में इतनी पारदर्शिता नही है कि बेटियाँ खुल कर बात कर सकती है, इस भरोसे के साथ की उन्हें ग़लत नही समझा जाएगा? बहुत ज़रूरी है कि बेटियों को शिक्षा के साथ आत्मरक्षा का प्रशिक्षण भी दिया जाए और निर्भीक हो दृढ़ता से अपने सम्मान के लिए खड़ा होना भी सीखना चाहिए। उनमें यह विश्वास होना चाहिए कि उनके साथ हुए ग़लत के लिए उन्हें ज़िम्मेदार नही माना जाएगा। 

 

 


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