काश के फूल और पहला प्यार
काश के फूल और पहला प्यार
रास्ते के दोनों ओर लहलहाते सफेद काश के फूलों को देखते ही मन जैसे खिल सा उठा, नीले आकाश पर वो रूई के फाहों जैसे अठखेलियाँ खेलते बादलों को देख दोस्तों के साथ वो बचपन में की गई चुहलबाज़ी की यादों से होंठ के किनारे पर मुस्कान तैर गई.... आज मन फिर से उस बचपन में जाने को मचल उठा।
दुर्गा पूजा के अवसर पर मिलती वो एक महीने की छुट्टियां, दोस्तों के साथ कभी गुड़ियों के खेल तो कभी छुप्पम छुपाई का वो खेल। घर के पीछे जुड़े मैदान को देख लगता जैसे काश के फूलों की चादर सी बिछी हुई है, उस सफेद चादर को हौले से छूते हुए दौड़ना और दौड़ते दौड़ते उस सांवले रंग और गहरी आँखों वाले से टकराना.... याद आता है बिन कहे एक दूसरे से इज़हार-ए-मोहब्बत और दुर्गा मंडप में यज्ञ के धुएँ से मेरी आँख में पानी देख तुम्हारा बिन कुछ कहे अपना रुमाल मेरी तरफ बढ़ाना....सप्तमी की सांझ सबसे छुप मुझे मेरी पसन्दीदा चाट खिलाने ले जाना याद आता है।
अष्टमी की सुबह पुष्पांजलि के समय उसके पसन्दीदा रंग की वो पीली साड़ी पहनना और चोर नज़रों से उसको निहारना जैसे पूछ रही हो "कैसी लग रही हूं।" याद आता है तुम्हारा वो ढाक बजाना और मेरा तुम्हारी आँखों का इशारा मिलते ही आँचल को कमर में खोंस कर ताल से ताल मिलाते हुए नाचना... याद आता है नवमी की रात सबसे छिप तुम्हारा अपनी आधी खाई आइस-क्रीम मुझे देते हुए चले जाना, बहुत याद आता है दुर्गा विसर्जन पर अचानक मेरे गालों पर हल्का सा सिंदूर लगाने का वो पहला स्पर्श...याद आता है जो पूरी शिद्दत से किया था प्यार, बहुत याद आता है
सच में बहुत याद आते हैं वो बेफिक्रे बचपन और अल्हड़ जवानी के दिन..... जब जब देखती हूं इन काश के फूलों को।

