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मिली साहा

Abstract

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मिली साहा

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कामयाबी का जुनून

कामयाबी का जुनून

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प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में कामयाबी के ख़्वाब देखता है, कोई अपनों को पीछे छोड़ कर कामयाबी हासिल करता है तो कोई अपनों को साथ लेकर।


किंतु जब कामयाबी एक जुनून बन जाए तो पीछे मुड़कर नहीं देखती। कामयाबी की चकाचौंध उसे इस तरह भ्रमित करती है कि कब वो अंधकार की आगोश में समा जाता है, इसका एहसास भी नहीं होता। एक ऐसा अंधकार जहां कोई अपना नहीं, बस कामयाबी तक साथ देने वाले यार होते हैं, जो मतलब पूरा होने पर तन्हा छोड़ चले जाते हैं। और यहीं से शुरू होता है एक तन्हा सफ़र ज़िंदगी का।


कामयाबी के शिखर पर सब कुछ तो मिल जाता है ऐशो- आराम धन- दौलत, मतलब के रिश्ते, बस मिलता नहीं अपनों का साथ। कुछ ऐसी ही कहानी है परम की, जिस पर कामयाबी का ऐसा जुनून सवार था कि वो कामयाब होने के लिए कुछ भी कर सकता था। अपनों को बेसहारा छोड़ कर भी जा सकता था। परम बहुत ही गरीब परिवार से था। उसके सपने बहुत ऊंचे थे, कारण छोटे-मोटे काम करने में कभी उसका मन नहीं लगता था। इसी वजह से उसके पिता भी सदा उस पर क्रोध करते थे, पर परम को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था, उसकी तो बस ऐसो आराम की जिंदगी की ख्वाहिश थी।


और इसी बीच परम के एक दोस्त ने परम को अपने साथ शहर ले जाने की बात कही, परम तुरंत मान गया, वो अपने बूढ़े माता-पिता और भाई-बहनों को छोड़कर शहर चला गया। वहां परम के दोस्त ने एक छोटी सी कंपनी में उसकी नौकरी लगवा दी, पर तन्खवाह अधिक ना मिलने के कारण परम को वहां मन नहीं लग रहा था, कुछ दिनों तक वहां काम करने के पश्चात परम को लगा, इतने पैसों से क्या होगा उसे कुछ बड़ा करना चाहिए। और उसके इसी सोच का फायदा उठाया ड्रग्स का धंधा करने वाले एक गिरोह ने।


उन्होंने परम को बंगला, गाड़ी, रुपयों का लालच देकर अपने गिरोह में शामिल कर लिया। परम धीरे-धीरे उस दलदल में समाता चला गया, उसे ऐशो आराम की ज़िंदगी अच्छी लगने लगी वो अपने माता पिता अपने परिवार को भूल गया। उसे लगा यही कामयाबी है। आखिर उसके परिवार ने उसे गरीबी के अलावा दिया ही क्या है। यही तो खुशियों का जहां है जो उसे हमेशा से चाहिए था। यहां तक कि उसे इस बात से फर्क ही नहीं पड़ रहा था कि उसका परिवार वहां आर्थिक तंगी से गुज़र रहा है। अपनी उस मां को भी भूल गया जो अपने हिस्से का निवाला भी उसे दे दिया करती थी।


परम कामयाबी की चकाचौंध में इतना खो गया कि उसे महसूस ही नहीं हुआ कि कब उसकी ज़िंदगी अंधेरों में खो गई। महफिलें सजती, जश्न होता था पर वहां परम को अपना कहने वाला कोई नहीं, वहां सिर्फ व्यापार करने वाले मौजूद रहते थे। धीरे-धीरे परम को अपनों की कमी महसूस होने लगी, यहां तो उसकी गलतियों पर कोई उसे डांटने वाला भी नहीं था, अपने पिता की डांट के पीछे छुपा प्यार और चिंता परम अब समझ रहा था। ये ऐशो आराम की ज़िन्दगी अब उसे चुभने लगी, वो लौटना चाहता था, अपनों के पास, जहां सच्ची खुशियां थीं। पर कामयाबी के जुनून ने उसे ऐसी जगह लाकर खड़ा कर दिया था कि वो चाहकर भी वापस नहीं लौट सकता था।


क्योंकि जिस गिरोह के लिए परम काम कर रहा था वहां आना तो संभव था, परन्तु वहां से लौट कर जाना नहीं। अब परम को ऐसा लगने लगा कि उसके पास तो सब कुछ हो कर भी कुछ नहीं। जिस रोशनी की तलाश में इतनी दूर निकल आया वो रोशनी नहीं अंधकार है।


जुनून ऐसा छाया, कामयाब होने का,

कि आज अकेला खड़ा हूं महफिल में,


सब कुछ पाकर भी खाली हाथ रह गया,

तन्हाई के सिवा अब कुछ नहीं ज़िंदगी में।



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