जन्मों का रिश्ता
जन्मों का रिश्ता


शिखर पेड़ की ओट में बीड़ी के कश लगा रहा था। काका के पदचापों की आहट सुनकर वह सुलगती हुई बीड़ी को पैर के नीचे कुचलकर एक पल में शांत कर सकता था किंतु वह कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता था, इसलिए उसने चंपाकल से पानी निकालने के बहाने राजेश्वरी को खड़ा कर दिया था जो उसकी छोटी बहन थी।
तभी काका आ गए। वे बहुत खुश थे। उनके हाथ में बताशे थे। यह वह मिठाई थी जो शिखर की अम्मा किसी के यहाँ गीत
( जमाई के आगमन, शादी - ब्याह, संतान - प्राप्ति आदि के आयोजन पर गाँव की स्त्रियों द्वारा मिलकर किया जाने वाला आयोजन ) में जाती थी, तब लाती थी।
सिक्के के आकार की यह मिठाई शुद्ध शक्कर थी जो पानी एवं आग का संयोग पाकर रूप बदल लेती थी।
राजेश्वरी चंपाकल ज़ोर - ज़ोर से चलाने लगी। काका ने उसकी तरफ झांका ही नहीं, वे सीधे घर के भीतर प्रवेश कर गए जहाँ अम्मा बिलोवना ( दही को मथ कर मक्खन निकानले की प्रक्रिया ) कर रही थी।
काका का तेज़ स्वर कान में गूंजा-
“ले बताशा खा ले, तेरे छोरा को ब्याह पक्को कर आयो हूँ। गेहूँ का उचित दाम न मिला पर आज थोड़ो आगे निकल गयो। मंडी में कैलाश बाबू मिल गया, अरे वही किरण का जेठ जो शादी - ब्याह करवाने के लिए जान्या जाव। खैर, छोड़ अ सब, काम की बात सुन। बात ही बात म्अ शिखर्या ( शिखर ) की बात छिड़गी। म्अ बोल्यो कि अबकी बार बारहवीं कक्षा पास कर लेसी तो कैलाशजी मण् जबरदस्ती आपक्अ साथ गौरीजी क घर लेग्या। बढ़े बेरो पड़ो कि ब तो आपाण्अ पेली स ही जान्अ। मण् आपकी छोरी दिखाई। गौरीजी को गाँव में दबदबो है, सौ बीघा खेत है। और के चाहिए। छोरी न देखली। संस्कारी है। नजरा झुकाकर आई थी, आजकल का टाबर पापड़ बेसी खाव है न, इसलिए म्अ पापड़ सिकवार भी देख लियो।
चोखो ही सेक दियो। आठवीं पास करी है अबकी बार। अठारह साल की होगी। फूटरी भी है। म्अ ओ रिश्तो पक्को कर आयो। मंगसर म्अ ब्याह को मुहूर्त निकल्यो है।"
काका आगे भी कुछ कह रहे थे किंतु शिखर के कानों में कुछ शब्द ही गूंज रहे थे-
“अब मेरा ब्याह होने वाला है।”
शिखर वर्तमान में तब आया जब बीड़ी उसके होंठों से लग गई। वह दर्द से चीखता उसके पहले ही वहाँ राजेश्वरी आ गई। वह शिखर का विवाह पक्का होने की बधाई देने आई थी जिसे शिखर ने अनजान बनकर एवं उदास चेहरे से साथ यह कहते हुए स्वीकार की -
“काका भी न, इतनी क्या जल्दी थी ? अभी तो मुझे पढ़ना था।”
राजेश्वरी जान गई कि भाई के मन में लड्डू फूट रहे हैं और वह उन्हें बांधे रखने का असफल प्रयास कर रहा है। वह उसे शर्मिंदा नहीं करना चाहती थी इसलिए भीतर चली गई। उसके मन में भी अपने होने वाले पति की काल्पनिक छवि आ गई थी। वह अभी कक्षा दस में थी। आने वाले दो - चार साल में किसी दिन अचानक से किसी लड़के का पिता आकर उससे भी पापड़ ही सिकवाने वाला था।
शिखर यकीन नहीं कर पा रहा था। काका की कही बातों को बार - बार अपने मन में दोहरा था किंतु अपनी होने वाली पत्नी का नाम नहीं जान पाया। उसे लग रहा था कि काका ने अम्मा को नाम तो बताया ही होगा किंतु वह सुन नहीं पाया हो। उसे अभी इसी घड़ी लड़की का नाम जानने की इतनी तीव्र उत्कंठा हुई कि वह एक बार फिर राजेश्वरी के पास पहुँच गया।
उससे भी किंतु सीधे तौर पर उसकी होने वाली भाभी का नाम कैसे पूछे ? इसलिए बनावटी मुँह बनाकर बोला -
“पता नहीं किस पागल को मेरे खूटे से बाँध आए हैं काका, वो क्या नाम बताया था तुमने उसका....”
राजेश्वरी खिलखिला कर हँस पड़ी। वह जानती थी कि काका ने अभी तक नाम तो बताया ही नहीं है। उसने अपने भाई को बहलाने के लिए ऐसे ही ‘श्यामा’ नाम बता दिया।
नाम सुनकर शिखर की आँखों के सामने साँवली लड़की की छवि नाच उठी किंतु अगले ही पल इस सोच के साथ नदारद हो गई कि पड़ोस में रहने वाले ज्ञानचंद ताऊ अनपढ़ है।
अब तो उठते - बैठते, सोते - जागते शिखर, श्यामा के ख्यालों में खोया रहता। उस श्यामा के जिसको उसने देखा ही नहीं था। उसे यह भी नहीं पता था कि वह कौनसे गाँव में रहती है। पता होता तो कदाचित् वह मोहन के साथ उस गाँव की पनघट का एक चक्कर लगाकर ही आ जाता।
पहचान नहीं पाता किंतु मन में शांति तो होती कि इनमें से ही कोई एक हो सकती है।
अम्मा विवाह की तैयारियों में लग गई थी। काका ने शिखर को उसके पहनने के कपड़े आयाशहर से ला दिये थे। शिखर, श्यामा के ख्यालों में खोया हुआ था कि राजेश्वरी ने उसके हाथ में कुंकुम पत्रिका पकड़ाई। दुल्हन का नाम श्यामा नहीं था। तो क्या काका ने उसका विवाह श्या
मा के स्थान पर किसी और के साथ तय कर दिया और उसे जानकारी ही नहीं हुई। वह राजेश्वरी को घूरने लगा। दिन भर ख्यालों में डूबे रहने वाले भाई का यह रूप देखकर राजेश्वरी डर गई।
शिखर ने तेज स्वर में कहा-
“किसी के साथ भी खूंटे से बाँध दे मुझे परवाह नहीं है पर काका ने जब लड़की बदली तो तुम्हें तो कम - से - कम बताना चाहिए था !"
राजेश्वरी के चेहरे का रंग उड़ गया। अगले ही पल उसके होठों पर हँसी तैर आई। उसे माजरा समझ में आ गया था। वह मुस्कराते हुए बोली -
“भाईजी, भोजाई का नाम वह ना है जो मैंने आपको बताया था। यही है जो इस न्यूते में लिखा है।”
कहकर वह उसके हाथ से पत्रिका छीनकर भाग गई। शिखर भौंचक्का रह गया। जिस श्यामा को वह दिल की गहराइयों से चाहने लगा था वह तो कोई और निकल गई।
फिर बिजली - सी गिरी, किंतु कौन!
उसने तो ध्यान से नाम पढ़ा ही नहीं था। इस ख्याल ने उसके पैरों में चीते की गति दे दी किंतु राजेश्वरी के समीप जाकर वह हाथी की चाल में आ गया।
उसके हाथ में पकड़ी क कुंकुम पत्रिका से अपनी होने वाली पत्नी का नाम जानने का प्रयास करने लगा। राजेश्वरी, शिखर की व्यथा समझ रही थी किंतु सीधे तौर पर उसके हाथ में कुंकुम पत्रिका पकड़ाने में उसे भी लज्जा आ रही थी। उसने खाट पर पत्रिका को कुछ ऐसे रखा कि शिखर को नाम दर्शन हो जाए।
अहा ! उसकी होने वाली जीवन संगिनी का कितना प्यारा नाम था, गुलाबो !
उसकी आँखों के आगे पटवारीजी का बगीचा घूम आया जहाँ गुलाब के एक पौधे पर सर्दी के मौसम में बड़े खूबसूरत गुलाबी रंग के गुलाब लगते हैं।
गुलाबो भी गुलाबी रंग के गुलाब - सी नाज़ुक और सुंदर होगी। पल में ही श्यामा का ख्याल तिरोहित हो गए। शिखर अब पहले से भी अधिक ख्यालों की दुनिया में रहने लगा था क्योंकि विवाह के दिन नज़दीक आ गए थे और नाम भी अब मनभावन हो गया था।
इन्हीं ख्यालों में कब दूल्हा बनकर ससुराल की चौखट पर पहुँच गया अहसास ही नहीं हुआ। तभी तोरण के बाद गले तक घूंघट में छिपी, भारी - भरकम लहंगा एवं गहने पहनी आकृति हाथ में वरमाला लिए उसकी तरफ कदम बढ़ाती आई तो उसकी साँसे जमने लगी।
यही तो है वह जिसके ख्यालों में खोकर उसने पूरे छहः महीने बिताये हैं। वह सोच ही रहा था कि आकृति ने उसके गले में वरमाला डाल दी। वह झुकना चाहता था किंतु मित्रों एवं काका के डर से गर्दन ही झुका पाया। न जाने गुलाबो को घूंघट के भीतर कैसे अहसास हुआ कि उसे कितना ऊपर अपने हाथ को उठाना है किंतु वह सफल हो गई थी और जा भी चुकी थी।
शिखर माला के फूलों में गुलाबो को महसूस कर रहा था। आज पहली बार उसे फूल इतने खूबसूरत और सुगंधित लगे थे।
विवाह की रस्में चल रही थी किंतु वह अपनी ही दुनिया में खोया था। फेरों के लिए पंडितजी ने मंत्रोच्चार प्रारम्भ कर दिया था। वह अब भी माला को पकड़े बैठा था।
गुलाबो तभी सखियों से घिरी घूंघट में सिमटी उसके करीब आकर बैठ गई। वह उसे जी भरकर इसी रूप में देखकर तृप्त होना चाहता था किंतु यह करना बेशर्मी कहला सकती थी।
वह नज़रें झुकाए अपने दिलोदिमाग में उठते तूफान को शांत करने के प्रयास में दम साधे बैठा रहा। वह इस तरह पूरी ज़िंदगी निकाल सकता था। तभी किसी ने उसके हाथ को अपने हाथ में लिया। शायद यह गुलाबो की बड़ी बहन थी। अगले ही पल उसे अपने हाथ पर किसी नरम कोमल स्पर्श का अहसास हुआ। ऊफ्!
क्या स्पर्श था यह ! जन्नत कहीं अगर थी तो वहीं थी। उसके पूरे शरीर में झनझनाहट दौड़ गई। कनखियों से उसने अपनी हथेली की तरफ देखा कि शरीर का कंपन कहीं उंगलियों में आकर उसे हास्य का पात्र न बना दे। उससे राहत की साँस ली क्योंकि हथलेवा की इस प्रथा में उसके और गुलाबो के एक - दूसरे से बंधे हाथों को एक रुमाल से ढक दिया गया था...।
अब वह इत्मीनान से ज़िंदगी में पहली बार महसूस की इस इनझनाहट का आनंद ले सकता था। उसे अभी जो तृप्ति हो रही थी वह शब्दातीत थी।
अचानक से गुलाबो की उंगलियाँ रुमाल के पहरे में उसके हाथों की उंगलियों में फँसी कसमसायी तो वह जैसे बेहोश ही होने को आ गया।
इस कसमसाहट के शिखर ने मायने निकाले कि गुलाबो ज़िंदगी के हर मोड़ पर उसका हाथ ऐसे ही थामे रखेगी, जैसे उसने अभी थाम रखा है।
शिखर ने इस मौन भाषा पर वहीं बैठे - बैठे अपनी सहमती की मोहर लगा दी थी। उसने फेरे होने के पहले एवं गुलाबो के चेहरे को देखने से पहले ही गुलाबो के साथ जन्मों - जन्मों का रिश्ता जोड़ लिया था...।।