विदाई और जुदाई
विदाई और जुदाई
“गुड़िया, ओ गुड़िया, अरे सुनती क्यों नहीं हो, न जाने कितनी बार आवाज लगानी पड़ती है, अभी देर हो जायेगी तो बिना फ्रेश हुए भागोगी, कुछ नहाओगी कुछ नहीं, रोटी की बीड़ी बनाकर खाओगी, जूते भी अच्छी तरह पहनकर नहीं जाओगी, पागलपन दिखाते हुए ऑटो में बैठकर रस्सी बाँधोगी।
पता है न, मुझे तुम्हारी यह दस मिनट देर से उठने की आदत बिल्कुल पसंद नहीं है। इतनी बड़ी हो गई लेकिन ऊपर का तल्ला बिल्कुल खाली है। एक आदमी तो आधे घंटे तक तुम्हें उठाने के लिए ही चाहिए बस......
गुड़िया ओ गुड़िया.....हे ईश्वर क्या करूँ में इस बच्ची का।”
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“लाडो, नये घर में ठीक तो हो न। कल आईने में तुम दिखाई दे रही थी, कह रही थी, “माँ, चिंता मत करना, मैं सजी-सवँरी ऐसी ही दीखती हूँ जैसी अभी आप दीख रही हो। आपकी ही तरह संस्कारी बहू बनने का पूरा प्रयास कर रही हूँ।”
तुम इतनी जल्दी उठ जाती हो, तुम्हारी नींद तो पूरी हो जाती है न बेटा.....मेरी फूल सी बच्ची नींद की मार से कैसे कुम्हला गई है।”
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“मीना, मीना, उठो,
क्या हो गया तुम्हें आजकल, रात भर नींद में बड़बड़ाती रहती हो। न खुद सोती हो न मुझे सोने देती हो। दुनिया में एक तुम्हीं नहीं हो जिसने अपनी बेटी को ससुराल भेजा है। क्या मुसीबत है ! तंग आ गया हूँ मैं तुम्हारे राने-धोने और इन उटपटांग हरकतों से। देखना, एक दिन या तो तुम पागल हो जाओगी या मुझे कर दोगी। उसे अकेले रहना सीखने दो और मेहरबानी करके खुद भी उसके बिना रहने की आदत डाल लो, और मुझे भी......उनके बिना.......रहने की आदत.....डालने दो।
सच, बहुत मेहरबानी होगी तुम्हारी, हाथ जोड़ता हूँ मैं तुम्हारे..................”
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वह आँख मलते हुए उठी और बहुत देर तक ज्यों की त्यों बैठी रही। जो अभी कानों ने सुना था और जो कुछ देर पहले उसके साथ घटित हो रहा था उसमें सामंस्स्य बैठाने का प्रयास करने लगी। कुछ पल में ही अभी वाली तस्वीर बिलकुल साफ हो गई किंतु वह धुंधली हो गई जिसके अक्स को वह कुछ देर पहले निहार रही थी। कदाचित् निहार ही नहीं रही थी वरन अवचेत मस्तिस्क के साथ चेतनता से जुड़े होठों द्वारा भी उन्हीं पलों को अनजाने में उच्चरित करने लगी थी जो अब इस घड़ी सूरज डूबते ही अंधकार के साम्राज्य की स्थापना करते हुए अदृश्य हो चुके थे।
समझते समय नहीं लगा कि प्रतिदिन की तरह आज भी वह अपनी चेतना के लिए चिंतित होकर रात भर बड़बड़ाती रही है।
चेतना, आह कितना खूबसूरत नाम है उसकी बेटी का। किनते मनोयोग से उसने यह नाम रखा था क्योंकि वह चाहती थी कि उसकी बेटी चेतना पूर्वक काम करके पूरी दुनिया में अपना नाम कमाये।
इससे अधिक वह सोच नहीं पाई। एक बार फिर पार्श्व से तेज स्वर आया जो गोली में भरे बारूद से कम खतरनाक नहीं था-
“पागलपन खत्म गया हो तो नाश्ता बना लो, मुझे ऑफिस जाना है, चेतू को याद करने और रात भर बड़बड़ाने रहने से तुम्हारा काम चल जायेगा पर मेरा नहीं चलेगा।”
वह हड़बहड़ाकर उठी, उन स्वरों को नजरअंदाज करके जो अब भी लगातार उसी दिशा से आ रहे हैं। ध्यान देकर सुनने से वे शब्द कुछ यूँ खुद को प्रतिध्वनित कर रहे थे-
“मेरी भी तो बेटी है चेतू, लेकिन न जाने मीना को क्या हो गया है। जब देखो तब रोती रहती है, जमाने का दस्तूर तो निभाना ही पड़ेगा। उसे लगता है मैं पत्थर हूँ, मुझे न तो अपने बेटी की फिक्र है और न ही मुझे उसकी याद आती है। उसे कौन समझाए कि घर में प्रवेश करने से पहले मुझे अपनी आँखों को धोना पड़ता है, धूल मिट्टी न होने पर भी धूप का चश्मा लगाकर रखने का नाटक करना पड़ता है पर मीना को देखकर बहुत गुस्सा आता है, मैं खुद को सम्भालूँ या उसे !
मीना ने नहाते हुए खुद से वादा किया-
“मैं अब खुद को सम्भालूँगी। दुनिया की हर एक लड़की ससुराल जाती है। मैं भी तो एक दिन डोली में बैठकर आ गई थी। अब तो कभी मायका याद ही नहीं आता है, कभी आता है तो भी अपने इस घर से जुड़ी लाख बेड़ियाँ है जो कुछ घंटों में ही खींच लाती है। मैं अब चेतना को बिल्कुल याद नहीं करूँगी। उसे नए घर में रचने-बसने का पूरा मौका दूँगी।
अब वह संभल चुकी थी। बाथरुम के बाहर आई तो वह खुद में ताजगी महसूस कर रही थी।
आईने में खुद को देख कंघी करने लगी तो एक बार फिर न चाहते हुए भी अवचेतन मस्तिष्क अनियंत्रित गाड़ी की तरह बेकाबू हो गया। उसकी आँखों के आगे सजी सवँरी चेतना आ गई और वह उन यादों में खो गई जब चेतना बचपन में दुल्हन बनकर दरवाजे तक जाकर विदा हुआ करती थी।
उसे इसका अहसास तब हुआ जब पीछे से धमाका हुआ-
“हे ईश्वर, तुम्हें पागलखाने में भर्ती करवाना ही पड़ेगा। तुम आईने में खुद को निहारती रहो, मैं ऑफिस जा रहा हूँ।”
वह दौड़कर दरवाजे तक आई किंतु तब तक उसे गली में उड़ती धूल ही नजर आई क्योंकि चेतना की विदाई के समय उसके द्वारा गाड़ी का दरवाजा न छोड़ने का स्थिति में चलती गाड़ी पड़ोस के घर की दीवार से टकरा गई थी, अभी उसकी मरम्मत के लिए आई निर्माण सामग्री वातावरण में जून के महीने में ओस का आकार ले रही थी।
वह लौटकर निढ़ाल सी बिस्तर पर गिर गई। उसे भी अब लगने लगा था कि उसे मनोचिकित्सक की आवश्यकता है। वह क्या करे उसे कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था। अभी भी बाहर उड़ती धूल ने उसे उस दिन की यादों की दहलीज पर एक बार फिर पहुँचा दिया था जिस दिन चेतना सदैव के लिए विदा होने के लिए इसी घर के दरवाजे पर खड़ी थी जो कुछ पलों पहले तक उसका अपना घर हुआ करता था।
रो-रोकर मीना की आँखें सूज गई थी। कबीर इधर-उधर के कामों में व्यस्त थे या स्वयं को व्यस्त दिखा रहे थे इस उलझन में मीना नहीं पड़ना चाहती थी, बस उसे कबीर पर क्रोध आ रहा था कि दुःख के इन पलों में कबीर उसे सांत्वना देने उसके पास क्यों नहीं आ रहे हैं। वे कबीर, जो उसके मामूली सिर दर्द में भी ऑफिस की छुट्टी ले लेते हैं, वे कबीर जो उसके आँख में आए एक आँसू को भी बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं।
जब से चेतना की सगाई हुई थी, कबीर उसे बदले से लगने लगे थे। वह रात को घंटों रोती थी किंतु कबीर की तरफ से मिलने वाली सांत्वना में तीव्र गति से कमी आई थी। कबीर के खर्राटों के बीच उसकी सिसकियों में फूट-फूट के रोने के स्वर अनायास शामिल हो जाते थे किंतु कबीर को इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता था।
यहाँ तक कि चेतना भी अपने लिए उसके अतीव स्नेह से परेशान रहने लगी थी। वह अपने नए रिश्तों को सुदृढ़ करने के लिए घंटों मोबाइल पर लगी रहती थी किंतु मीना चाहती थी कि जब तक उसका विवाह नहीं हो जाता वह उसकी आँखों के सामने ही रहे और उससे ही बातें करती रहे।
एक बार फिर इन यादों के बीच में से निकलकर धूल के गुब्बारे उसकी आँखों के सामने आ गए जिनके मध्य से कुछ देर पहले कबीर भूखा ही ऑफिस के लिए निकल चुका था।
उसे इन गुब्बारों मे चेतना का बचपन याद दिला दिया।
छोटी थी तब कितने स्नेह से गुब्बारों से खेला करती थी। बंशी मैदान में होने वाले सालाना मेले के प्रारम्भ होने के दिन से ही प्रतिदिन वहाँ जाकर गुब्बारे खरीदना चेतना का न केवल मनपसंद क्रिया कलाप था वरन उसके चेहरे पर खिलखिलाती हँसी देखने की राम बाण औषधि भी थी।
वह अब तक कबीर की भूख भूल चुकी थी। उसे कबीर पर क्रोध आने लगा था।
कारण मात्र इतना ही था कि आज धूल के गुब्बारों को देखकर कबीर को उसकी तरह चेतना याद क्यों नहीं आई।
अब गाड़ी से उड़ती धूल रुपी दृश्य ने तुरंत मानस पटल से धूल को गायब कर दिया और गाड़ी को यूँ आँखों से समाने खड़ा कर दिया मानों चेतना अभी-अभी गाड़ी में सवार होकर गई है।
वह दरवाजे के बाहर खड़ी गाड़ी को निहार रही है किंतु तभी चेतना की चाची सास आकर उसे झकझोर कर कहती है-
“समधनजी, अपने घर के अंदर जाइये, अब आपकी बेटी हमारी हो गई है, आपने उसे विदा कर दिया है, बेटी के घर होने वाले रीति रिवाज खत्म हो गए हैं, अब बहू के यहाँ होने वाले रीति रिवाज शुरु होने वाले हैं। बस, गाड़ी घूमकर आने ही वाली होगी। यहाँ रोवनी सूरत लेकर खड़े रहकर हमारी खुशियों में अपशगुन मत डालिये।”
मीना का उस दिन खून खौल गया था। उसकी आँख के आँसू क्या कभी भी उसकी बेटी की खुशियों में ग्रहण लगा सकते हैं ! वह उस दिन को कोस रही थी जब चेतना के ससुराल वालों को विवाह के लिए ठहराने के लिए उसने ही पड़ोस में रहने वाले मेहताजी का खाली फ्लेट दिलवाया था ताकि दोनों परिवार आस-पास रहे और विवाह की रस्में निभाने में अधिक परेशानी न आए।
उसे उस दिन पहली बार लगा कि किसी ने उसके श्वास लेने पर भी पहरा बैठा दिया है।
उसके घर में आईं रिश्तेदारों ने मिलकर उसे उसके घर में ही नहीं उसके कमरे तक पहुँचाया था किंतु वह कहाँ पहुँच पाई थी उस दिन अपने कमरे तक ! केवल उसकी देह ही तो थी जो इधर-ऊधर घूमती रहती थी, उसका मन-मस्तिष्क तो तब से अब तक लगातार चेतना के पास ही है।
उसे धूल-मिट्टी से एलर्जी है क्या उसकी सासू माँ सफाई करते समय इस बात का ध्यान रखती होगी ! सब्जियों में टमाटर की ग्रेवी दे देने से उसकी भूख ही मर जाती है, क्या नए घर में उसने यह बात किसी को बताई होगी !
कैसे बताई होगी, मैंने ही तो उसे सख्य निर्देश दिये थे कि शुरुआती चार-छह महीने बिल्कुल गूंगी बनकर रहना। जो जैसा खाने, पहननने, करने के लिए कहे, करते रहना, ये महीने ही जिंदगी भर उस घर में तेरे अस्तित्व का निर्धारण करेंगे।
इस तरह की अनगिणत बाते थी जो हर पल उसके मस्तिष्क को अपने काबू में रखती थी। कबीर ने चेतना से जुड़ी हर एक वस्तु को नजरों से ओझल कर दिया था किंतु उस घर की तो हवाओं में भी चेतना बसी हुई थी उसे घर से निकाल देने सा सामर्थ्य कबीर में नहीं था।
होठों पर चेतना का नाम लाने पर जब कबीर ने पाबंदी लगा दी तो मन-मस्तिष्क ने उसे याद करने के नए रास्ते तलाश लिये। अब वह अपनी काल्पनिक दुनिया में चेतना को जीने लगी। कभी उससे बातें करती, कभी डाँटती और कभी उसे नदारद पाकर जोर-जोर से रो पड़ती।
अगले ही पल संभल जाती और वर्तमान में लौट आती। अपने आप को कुछ समय के लिए वास्तविकता समझाती और फिर किसी न किसी वस्तु, स्मृति या स्थान के बहाने उसे चेतना याद आ जाती और वह फिर एक काल्पनिक दुनिया में खो जाती।
कबीर उसे मनोचिकित्सक के पास भी ले जा चुका था। वह अवसाद में नहीं थी और न ही पागल थी, यह चिकित्सक ने बिल्कुल साफ कर दिया था। उसके अनुसार बेटी की विदाई के बाद माँ की हालत अक्सर ऐसी हो जाती है। कुछ महीनों में फिर सब कुछ ठीक हो जाता है।
घंटों वह पलंग पर बैठी रही। तभी फोन की घंटी ने उसका ध्यान भंग किया। उसकी आँखों के सामने फिर चेतना दौड़ आई। उसके शिथिल पैरों में चेतना के फोन होने के अहसास मात्र ने ही स्फूर्ति से भरे टॉनिक दौड़ने लगे।
उसने दौड़कर फोन उठाया। आह- सच में सामने चेतना ही थी।
वह हड़बड़ाते हुए कह रही थी-
“माँ, कुछ देर बाद चाचीजी के घर में काम करने वाला श्यामू आपके घर आयेगा। आप उसे मेरा वह बैग दे देना जो मैंने अपने हनीमून के लिए पैक दिया था। आज शाम को चाचीजी यहाँ आ रही हैं, वे अपने साथ ले आयेंगी। हाँ माँ, आजकल आपको अच्छी तरह कुछ याद नहीं रहता है, प्लीज़ इसमें कोई भूल मत करना। अभी रखती हूँ, मम्मी आवाज लगा रही है.............”
मीना बहुत देर फोन को हाथ में लेकर खड़ी रही। वह समझ ही नहीं पाई कि फोन वास्तव में चेतना का ही था या किसी और का।
वह एक पल के लिए उसे नहीं भूल पा रही है और चेतना ने एक बार उसका हालचान पूछना भी आवश्यक नहीं समझा।इतनी हड़बड़ी में फोन काट दिया जैसे सामने ततैया का छाता और अगर वह छिड़ गया तो उससे बचना मुश्किल हो जायेगा।
“नहीं...नहीं.....ऐसा नहीं हो सकता। यह मेरे मन का मात्र वहम है। भला मेरी बेटी मुझसे ऐसे कन्नी कैसे काट सकती है। वह जानती है मैं उससे कितना प्यार करती हूँ किंतु उसका साधिकार अपनी सास को मम्मी कहना भी तो मैं दिल से स्वीकार नहीं कर पा रही हूँ। इस घर को कितनी आसानी से आज उसने आपका घर कह दिया। यह सुनकर भी तो दिल का कोई कोना तड़प उठा था।”
मीना इन्हीं सब बातों यादों में घिरी अलमारी के ऊपर रखा चेतना का बैग उतारती है। उसे वह कुछ खाली सा लगता है। वह आनन फानन तैयार होती है, बगल में ही बने मॉल में दौड़कर जाती है और कुछ नई स्टाइल की पोशाकें और खरीद लाई, उस तरह की पोशाकें जो उसके कुँवारेपन में पहनने पर मीना ही उसे डाँटा करती थी।
दौड़ती-भागती घर लौटी है तब फोन तीव्र गति से बजता हुआ मिला। सामने एक बार फिर चेतना है किंतु इस बार उसका स्वर पहले वाले स्वर से अधिक उग्र है। वह कह रही है-
“माँ, आपको पहले ही कहा था, कोई गड़बड़ मत करना। पहले से बोलने के बाद भी न जाने आप ताला लगाकर कहाँ चली गई। श्यामू आधा घंटा दरवाजे पर खड़ा रहकर लौट आया है।
सच में पापा ठीक ही कहते हैं आप बिल्कुल पागल हो गई है.....”
लम्बी पीप की ध्वनि कानों के पर्दों से टकरा रही है। मीना की आँखों में एक बार फिर आँसू है किंतु इसलिए नहीं कि बेटी ने तेज स्वर में बात की, वरन इसलिए कि उसके कपड़े नहीं पहुँच पाये।
वह तुरंत कबीर को फोन करती है और उसे ड्राइवर को गाड़ी के साथ घर भेजने का निर्देश देती है। चेतना, कबीर को तब तक सारी कहानी बता चुकी है।
कबीर बिना किसी सवाल-जवाब के गाड़ी भेज देता है। वह जानता है कि आज शाम को उसे घर किराये की टैक्सी में जाना है और कल सुबह ऑफिस भी उसी से आना है क्योंकि दिल्ली से कानपुर गई गाड़ी कल दोपहर पहले लौटकर नहीं आ पायेगी।
इधर मीना कपड़ों की बैग के साथ अन्य पाँच बैग और तैयार कर देती है जिनमें चेतना की पसंद से जुड़े न केवल खाने-पीने की वस्तुएँ है वरन वे सभी वस्तुएँ भी है जो कभी चेतना ने यूँ ही शौक के लिए खरीदी थी या खरीदने की इच्छा प्रकट की थी........
चेतना के पास सामान पहुँचता है तो वह सभी बैग खोलकर ही नहीं देखती। उसे कल हनीमून पर जाना है इसलिए वह अपनी तैयारियों में व्यस्त है। खाने-पीने का सामान रसोइये के हाथ में जाता है और बाकी सामान उसके नए घर के स्टोर रूम में, जहाँ यूँ तो रद्दी सामान रखा जाता है किंतु वह आज ये बैग रखती है, हनीमून से लौटकर आने के बाद खोलने के लिए.....
मीना अपनी बेटी के फोन के इंतजार में एक बार फिर कल्पनाओं में खोई है....
“ड्राइवर से सामान लेकर चेतना फूली नहीं समा रही होगी। वह उस सामान से लिपटकर ऐसे ही रोई होगी मानों मुझसे लिपट रही है।
मुझे दिखाती नहीं है तो क्या हुआ, मेरी बेटी है, मुझे याद तो करती ही है.......”