बेटी जैसी बहू
बेटी जैसी बहू
रमा की सास हर किसी से कहती,
“हम तो हमारी बहू को बहू नहीं बेटी जैसी ही मानते हैं।”
रमा भी खुश थी। वह बहू नहीं बेटी जैसी है।
वक्त के साथ बेटी जैसी होने और बेटी होने का फ़र्क सामने आने लगा।
बेटी को दस बजे सो कर उठने की इजाज़त थी, तो बेटी जैसी को सिर पर पल्लू न रखने की आज़ादी प्रदान कर दी गई थी,
जो कि अमूमन घरों में बहूओं को नहीं मिलती है।
वक्त और आगे बढ़ा,
परिवार में रहते कुछ ग़लतियाँ होना स्वाभाविक थी, रमा ने भी कि तो रमा की सास की बेटी ने भी,
बेटी को पल में माफ़ी मिल गई। बेटी जैसी की ग़लती जग जाहिर हो गई, उतनी जितनी शायद एक बहू की नहीं होती,
क्योंकि कहा गया-
“हमने तो इसे बहू नहीं बेटी जैसा माना था किंतु यह तो ढंग से बहू भी नहीं बन पाई...”
पहली बार रमा को बात समझ में आई...
काश मैं बेटी जैसी न बनकर बहू ही बन जाती।