Babita Komal

Tragedy

4.6  

Babita Komal

Tragedy

लड़कों की भी विदाई होती है

लड़कों की भी विदाई होती है

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अम्मा-बाबा,

प्रणाम।

आप तक यह खत नहीं पहुँचेगा इसलिए अम्मा-बाबा लिख रहा हूँ। जानता हूँ पहले ये सम्बोधन आपको नागवार थे। अब बात कुछ और है। खैर आज तो मैं भी आपको इन नामों से नहीं पुकारता। मैं मम्मी-पापा या फिर विदेशी मित्रों के सामने तो आपके लिए मॉम- डेड शब्दों का इस्तेमाल करता हूँ।

कई वर्षों पश्चात छोटी के विवाह के मौके पर गाँव आना हो पाया था। कितनी बड़ी हो गई थी वह। इतनी की उसको सत्तर वर्ष की उम्र में ही आपने विदा कर दिया। वह जब हुई थी तब मैं सत्तर वर्ष का था। गुड़िया सी इठलाती मेरे चारों तरफ घूमती थी जब मैं कुछ दिन के लिए हॉस्टल से घर आता था। किंतु तब भी आप उसे मेरे करीब आने से रोकते थे कि वो कहीं मेरी पढ़ाई में बाधक न बन जाए।

याद है मुझे, मैं कक्षा पाँच के पश्चात मेरे अन्य मित्रों की तरह वहीं रहकर पढ़ना चाहता था। किंतु आप मुझे बड़ा आदमी बनाना चाहते थे। इतना बड़ा जितना रामगंज में कोई नहीं बना। आपकी आँखों में पलते सपनों को पूरा करने के लिए मैं शहर चला गया। बहुत रोता था आपको याद करके। किंतु बस तब जब वार्डन बत्ती बंद करके कमरे में अंधेरा कर देता था। कभी-कभी बहुत डर लगता था इतना कि आपके आँचल से लिपटने और अपने आँगन में खेलने के लिए मैं वहाँ से एक बार भागने के लिए भी तैयार हो गया था। किंतु आपके सपनों ने ऐसा करने से रोक दिया था। 

कभी-कभी मन करता...काश मैं पढ़ने में इतना अच्छा न होता तो, आज अपने मित्रों की तरह गाँव में कबड्डी खेल रहा होता। खेलता तो यहाँ भी था, बास्केट बॉल, बॉलीबॉल, टेबल टेनिस, केरम, क्रिकेट और भी न जाने क्या क्या। किंतु..खैर छोड़िये...याद है मुझे कक्षा आठ में था जब टेबल टेनिस की राज्यस्तरीय प्रतियोगिता में प्रथम आया था। मेरी तस्वीर अखबार के मुख्य पृष्ठ पर छपी थी तब आप दोनों कितने खुश हुए थे। मैं भी, क्योंकि मैंने पहली बार सपनों के पूरे होने की चमक आपकी आँखों में देखी थी।

फिर तो यह सब मेरी जिंदगी का हिस्सा बन गए। आपकी अलमारी में चार तालों के भीतर कैद छोटे से लॉकर में रखने के लिए अखबार की कतरनें जमा होने लगी जिन्हें आप बहुत गर्व से सब को दिखाया करते थे। खासकर मदन काका एवं महावीर काका को, क्योंकि उनके पुत्रों ने कक्षा आठ में अनुत्तीर्ण हो जाने के कारण पढ़ाई छोड़ दी थी एवं खेत पर काम करने लगे थे।

मुझे इस मुकाम तक पहुँचाने के लिए आपने इतने बलिदान किये कि कभी शायद दोनों वक्त भर पेट खाना भी नहीं खाया। जैसे भी पैसे बच सकते थे वैसे ही बचाकर मेरी पढ़ाई के लिए आपने भेजे। इसी बीच छोटी दुनिया में आ गई। वह ग़लती का परिणाम थी। मेरे लिए देखे सपनों को पूरा करने में लगने वाले धन एवं समय में हिस्सेदारी लेने वाली। वह भी एक लड़की। कभी आपने उसके लिए वो सपने नहीं देखे जो मेरे लिए देखे थे, तब भी नहीं जब वह भी मेरी ही तरह कक्षा में प्रथम आती थी। मैंने दबी ज़ुबान में विरोध किया था किंतु आपने ध्यान नहीं दिया। अपनी प्रतियोगी परिक्षाओं में मैं भी इतना व्यस्त हो गया था कि धीरे-धीरे अपनी ही दुनिया में खोता चला गया। पता ही नहीं चला कब आपके सपनों के लिए शुरु हुए सफर के पड़ाव में मेरे सपने जुड़ते चल गए। मंज़िल वह ही थी...बड़ा आदमी बनना...किंतु बड़े आदमी की परिभाषा नहीं पता थी। राज्य के अखबारों की दौड़ को जीतकर नाम राष्ट्रीय अखबारों में आने लगा था। किंतु मंज़िल की तलाश जारी थी।

आप जितना एक वर्ष में कमाते थे मैं एक महीने में कमाने लगा था किंतु दौड़ जारी थी। कितना सुकून होता था आपके चेहरे पर जब आप मेरा वेतन गाँव वालों को बताते थे। लगता था गंगा नहा आए, सारे तीर्थ एक साथ कर लिए। मंज़िल की तलाश ने अब कदमों को अन्तर्राष्ट्रीय सीमा की तरफ मोड़ दिया। अब आप पहली बार विरोध के लिए आगे आए।

पहली बार आपके मुँह से कुछ कर्कश सुना-

“इस दिन के लिए पाल पोस कर बड़ा आदमी बनाया था कि यूँ बुढ़ापे में हमें छोड़कर विदेश चले जाओ। अरे पैसे को खायेंगे क्या...घर बड़ा क्या काम आयेगा जब तुम ही नहीं रहोगे। माना गाँव में तुम्हारा काम नहीं चलेगा किंतु यहाँ भी तो बड़े शहर में रहकर कमा सकते हो।”

बाबा, आपको कैसे समझाता कि बड़पपन से बड़ा आदमी बनने की जो घूटी आप पिलाते रहे हो वह कुछ इस तरह चेतना में दौड़ने लगी है कि राष्ट्रीय स्तर पर पहचान पाकर भी उसे मंज़िल नहीं मिली है। अभी उसका सफर बाकी है। वर्षों से पिलाई घूटी का असर आपके उस दिन विरोध करने से कैसे खत्म हो सकता था...खैर आप ही की दी हुई घूटी थी। आप भी उसका नशा नहीं उतार पाए। मैं लौट आया। अब आप मेरी बुराई करते नहीं थकते। अपनी परवरिश को कोसते हो क्योंकि मैंने यहीं पर अपनी पसंद से नैंसी के साथ विवाह कर लिया है। आप वहीं गाँव में रहने वाली सरला से मेरा विवाह करना चाहते थे इसलिए मुझसे नाराज़ होने के लिए आपको एक और विषय मिल गया। किंतु मैं कैसे सरला के साथ जिंदगी बिता सकता था जो सिर में कड़वा तेल लगाकर दो चोटी बनाती है। कहती है-

“शहरों में लड़कियाँ कैसे बेशर्मों की तरह बाल खुले करके फिरती है सब की सब भूतनी है”

आपका तर्क था वह भी शहरी तहजीब सीख जायेगी जैसे मैंने सीखी। किंतु क्या यह उसके लिए सम्भव हो पाता। शायद कभी नहीं क्योंकि उसके माता पिता ने मेरे माता पिता की तरह उसे बड़ी औरत बनाने का सपना कभी नहीं देखा था।

इधर उधर की बातों में ज़रुरी बात रह गई। छोटी के विवाह की बात चल रही थी। अपने ही घर में उपेक्षित जीवन गुजारती सोलह श्रृंगार करके वह डोली मैं बैठकर विदा हो गई। सरकारी माध्यमिक स्कूल में अध्यापक के पद पर कार्यरत महेश के संग आपने उसके हाथ पीले कर दिये। मैंने विरोध किया तो बोले-

“आजकल अध्यापकों को सरकार बहुत वेतन देती है, पहले वाली बात नहीं है। तेरे जैसा विलायती हमें नहीं ढूंढना....जो बुढ़ापे में अपने माता-पिता का ही नहीं हो सका...”

मैं अपनी पत्नी के सामने कहीं इन बातों को सुनकर बहुत आहत हुआ था।

तब भी जब छोटी की विदाई के वक्त आप दोनों फूट फूट कर रोये थे। छोटी भी जी भरकर रोई थी। वह तो साल में एक दो दफा महीने-महीने के लिए आ सकती थी। बेझिझक रोकर कह सकती थी-

“मम्मी-पापा आपकी याद आती है।”

किंतु मैं तो दस वर्ष की उम्र में ही पराया हो गया था। किसी ने मुझे इस तरह गले लगाकर विदाई नहीं दी थी। अम्मा आप छोटी को गाँठ में बाँधकर ले जाने के लिए ज्ञान दे रही थी-

“छोटी घर एवं स्थान बदलते हैं तब रहन सहन बोलचाल भी बदलती है। कुछ यूँ खुद को वहाँ के रंगरुप में ढालना की मायका बहुत पीछे छूट जाए। खुद को जितनी जल्दी नए परिवेश में ढाल लोगी उतना ही आराम से रह पाओगी।”

अम्मा मैंने भी तो यह ही किया है। खुद को उस परिवेश में ही तो ढाला है जिसमें आपने मुझे वर्षों पहले भेज दिया था बिना किसी नसीहत के, अब मुझसे इतनी नाराज़गी क्यों...

इसलिए क्योंकि यह हक केवल बेटियों को मिलता है। बेटे इसे अपना अधिकार मानने लगे तब यह बगावत और माता-पिता द्वारा दिये संस्कारों की अवहेलना होती है। कल फेसबुक में उसकी तस्वीर देखी। वह लम्बे घूँघट से छोटे कपड़ों में आ गई है। फोन किया तब पता चला रमेश शहर रहने लगा है एवं अपनी पत्नी को आधुनिक वस्त्रों में देखना चाहता है।

जानता हूँ मैं, आप गर्व के साथ यह पूरे गाँव को बता रहे होंगे कि छोटी ने दो ही दिन में खुद को बदल लिया। मैं तो वर्षों की मेहनत के पश्चात खुद को बदल पाया था फिर भी मुझे उलाहना ही मिली है। तब भी जब छोटी की हल्दी की रस्म में नैंसी के सिर से पल्लु खिसक गया था, उफ़ अम्मा आपने कितना हंगामा किया था, उसे हाथ पकड़कर बाहर ही कर दिया था। कितना अपमानित महसूस किया था उसने खुद को। किंतु वह मेरे लिए चुप रह गई थी। आज छोटी की सास से नहीं बनती यह भी मुझे खबर मिली है। आपने ही उसे रमेश को शहर में बस जाने के लिए तैयार करने कहा है।

नैंसी का तो मेरे विदेश बसने में कोई हाथ ही नहीं था। वह तो मेरे जीवन में ही मेरे लंदन बसने के बाद आई। फिर भी आप उसे उनके बेटे को खा जाने वाली डायन बताती है। ऐसा क्यों अम्मा ?

ऐसा क्यों बाबा कि आप अपनी बहु के हाथ का पानी भी नहीं पीना चाहते?

जवाब किंतु आप कैसे देंगे। मैं तो यह खत कभी आप तक पहुँचा ही नहीं पाउंगा। क्योंकि बेटे इतना भावुक खत लिखने का अधिकार नहीं रखते। भावुकता पुत्रियों की ही जागिर है क्योंकि वे अपना परिवेश छोड़कर नया परिवेश अपनाती है। वे अपना दर्द बयां कर सकती हैं........किंतु पुत्र नहीं कर सकते क्योंकि वे घर से दूर तो होते हैं, नए परिवेश में खुद को ढालते तो हैं किंतु कभी पराये नहीं होते। हाँ पराये नहीं होते..

आपका पुत्र

अंचल उर्फ छोटू


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