जीत की हार
जीत की हार
"मानो, उनका पहला अनुभव हो मछली बाजार से मछली खरीदने का,लड़के की माँ के हाव-भाव से मुझे ऐसा ही लग रहा था। वो अपनी नाक-भौं सिकुड़े रखी और दीदी को चारों तरफ घुमा-घुमाकर उनका मुआयना करती रही, जैसे कोई सड़ी-गली मछली ना खरीदकर ले जा सकें। सुनो सम्भल कर रहना दीदी ! होने वाली तुम्हारी सास एकता कपूर के सीरियल सा मज़ा देने वाली हैं। मुझे उन्हें ललिता पवार कहने का जी कर आया था, लेकिन माँ के डर से चुप रह जाना पड़ा।" नमिता की छोटी बहन कविता खिलखिलाते हुए चुहलबाजी करने में मस्त दिख रही थी। नमिता की शादी तय हो रही थी, उसी सिलसिले में लड़केवालों ने नमिता को परिवार संग मिलने के लिए अपने शहर में बुलाया था।
"चल परे हट ! माँ मैं सोने जा रही हूँ...। बहुत थक गई हूँ" कविता को अपने से बेमन जबरदस्ती अलग करती हुई नमिता मुस्कुरा रही थी।
"अरे ! अभी कहाँ सोने चली ! और तुमलोग नई हवा-हवाई हवाई यात्रा में थकने लगी.. कभी दो-तीन की रेल यात्रा, तीन-चार दिनों में पूरी करो तो समझ पाओगी क्या होता है ऊबना-थकना..। जल्दी से तुमदोनों तैयार होकर मेरे साथ चलो। हम नैय्यर जी के बुलावे पर उनके क्लब/फार्म हाउस पर जा रहे हैं। माता के आदेश को पूरा सुनने के पहले ही…
"मैं तो आपलोगों के साथ नहीं जा रही हूँ, क्यों कि मुझे अपने कोचिंग में जाना ज्यादा जरूरी है..," कहते हुए कविता बिजली की गति से फुर्र हो चुकी थी, कोई तो होगा जो उसकी प्रतीक्षा में होगी या होगा।
नमिता जबतक अपनी माँ के साथ नैय्यर जी के फार्म हाउस पर पहुँची तबतक क्लब का कार्यक्रम लगभग शुरू हो चुका था, मंच संचालक घोषणाकर युवा को मंच सौंप दर्शक दीर्घा में पहुँच रहा था। युवा अपना आख्यान पढ़ने के बाद दर्शक दीर्घा से उभरे सवालों का जबाब बड़े आत्मविश्वास के साथ व फुर्ती से दे रहा था और नमिता उसके व्यक्तित्व में, बोलने के चुम्बक में अपना वजूद खोती जा रही थी। कभी-कभी कुंदन में भी चुम्बकत्व हो जाता है...। वाचाल लड़की मूक हो चुकी थी जबतक दर्शक दीर्घा में पहुँचे युवा से उसकी माँ परिचय करवा रही थी। घर लौटकर आने के बाद भी उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह किस अनुभूति से गुजर रही है। चलचित्र दो ढ़ाई घण्टे में निपट गया या उपन्यास तीन सौ-चार सौ पन्ने में सिमट जाने वाली थोड़ी है जिंदगी...। भला एक बार और वो भी कुछ देर के लिए देखने-सुनने से क्या हो जाता है। साथ-साथ रहने के अनेकानेक वर्षों तक में भी शायद कभी कभी-काले मेघ दिखते हैं जो कभी बरसते हैं और कभी नहीं भी बरसते हैं वो प्रेम कहलाने के लिए विवश करने वाले...। क्या वो अनजान थी कि सैलाब का लहर एक बार ही आता है और अपने आगोश में सबकुछ लपेट कर ले जाता है बड़े वाले जाल की तरह। अगर वो कविता की तरह ही अपने कुछ निजी कारणों की वजह से माँ के साथ नहीं गई होती तो इस मकड़जाल में नहीं फँसती..। उसकी तड़प को लड़केवालों की तरफ से उम्मीद से ज्यादा दहेज की माँग और सोशल मीडिया से मिले उसी युवा के साथ ने एक साथ राहत दिया। फेसबुक की मित्रता ने नमिता को उस युवा के नजदीक पहुँचा दिया तथा मैसेंजर इनबॉक्स में हुई बातचीत में नमिता की तरफ से शादी का प्रस्ताव भी आ गया। चाँद पर वैज्ञानिक पहुँच चुके हैं। भारत में भी बुलेट ट्रेन आने वाली है। बदलाव के साथ बहुत कुछ बदला है ! है कि नहीं ?.. सतयुग-द्वापरयुग में भी स्वयम्बर होता था.. ! अभी हम चौंकने का अभिनय क्यों करते हैं।
! है कि नहीं ?..
युवा के बहुत समझाने पर कि बड़ों के आशीष के साथ ही वे दोनों अपना विवाहित जीवन शुरू करेंगे..., पहले नमिता अपने माता-पिता से बात कर ले । उसे अनुमति मिल जाने के बाद ही युवा अपने माता-पिता को जानकारी देगा । युवा को अपने माता-पिता पर पूरा विश्वास रहता है, लेकिन नमिता के माता पर उसे विश्वास नहीं होता है, क्यों कि युवा अंतरराज्यीय होने के साथ-साथ अंतरजातीय भी होता है...। नमिता अपनी माँ को ज्यों अपने शादी के लिए पसंद के बारे में बताती है... ज्वालामुखी फट जाता है.. माँ शादी से साफ-साफ मना कर देती है... नमिता अपने प्रेम का वास्ता देती है... ।
"प्रेम, प्यार, इश्क़, प्रणय, अनुरक्ति मोहब्बत... ढ़ाई, साढ़े तीन, साढ़े चार जितने वर्ण के शब्द को निरखो आधा समेटे अधूरा सा लगेगा। जो अपने आप में अधूरा सा है वो मुकम्मल हो भी नहीं सकता न...। मैंने नहीं देखा एक भी ऐसे किसी जोड़े को कि एक गर्म दूध पिये तो दूसरे के गले/शरीर पर फोफले हो गए हों और नहीं देखा कि किसी के हथेली पर सोंटे पड़े तो निशान दूसरे की हथेली पर जख्म बनकर उभर जाए... कैसे प्रमाण बटोरकर लाओगी कि सच्चा प्रेम कैसा होता है... ?" नमिता की माँ आग उगलती जा रही थी। नमिता के बहुत महीनों समझाने-जिद-हठ के बाद उसकी माँ कहती है कि वे मंदिर जायेंगी,वापस आकर निर्णय करेंगी...। मंदिर में मिले पुष्प पर उनका निर्णय हाँ-या-ना टिका हुआ था... माँ को मिले पुष्प पर हाँ की स्वीकृति मिल जाती है... नमिता आभासी दुनिया से बाहर सत्य में मिलने लगती है युवा से और उनका प्रेम अपनी मंजिल की ओर बढ़ता नजर आता है तो युवा अपने माता-पिता से अपनी शादी की बात करता है और जैसा उसे उम्मीद थी कि उसे विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा अत: उसे अनुमति देकर खुशियाँ देते हैं उसके माता-पिता... अब बारी आती है नमिता को युवा की माँ से बात करने की तो वह अपनी हिन्दी दिनोंदिन सुधारती जाती है... फिर समय आता है दोनों के माता-पिता का आपस मिलकर शादी की योजना बनाने का तो नमिता की केवल माँ मिलने आती है युवा के माता-पिता से मिलने जो उनके ही शहर के एक होटल में ठहरे होते हैं... नमिता से मिलने पर युवा की माँ बहुत खुश होती है... झट से गले लगा लेती है... पिता भी आशीर्वाद देते हैं... लेकिन नमिता की माँ युवा से सवाल करती है कि-“तुम नमिता से क्यों शादी करना चाहते हो ?”
“वो मुझे पसंद करती है !”
“तुम उसे पसंद नहीं करते ?”
“नापसंद करने लायक कुछ नहीं है.. प्रेम करता हूँ !”
“ठीक है अगर तुमलोग आपस में प्रेम करते हो तो यह प्रेम आगे भी कायम रहेगा ही । मुझे छ: महीना का समय चाहिए ताकि मैं नमिता के पिता और दादा जी को समझाकर तैयार कर सकूँ और अच्छे से तैयारी कर शादी की जाए !” सभी ख़ुशी-ख़ुशी तैयार हो जाते हैं... सबका मुँह मीठा हो जाता है... सबकी वापसी हो जाती है.. सबको सब समान्य लगता है.... दो महीने बीतने के बाद रात के दस बजे नमिता का फोन युवा की माँ के पास आता है कि वह अपने समानों के साथ सड़क पर बैठी है और लगातार रोये जा रही थी... युवा को उसकी माँ फोन करती है तो पता चलता है कि वह उस शहर में नहीं है... थोड़ी देर में पहुँचने वाला है... तबतक नमिता से युवा की माँ सम्पर्क बनाये रखती है... युवा की माँ को अपना शहर हजारों किलोमीटर दूर होना खलता है... रात होने के कारण अनेक दुश्चिन्ताओं से अलग मानसिक रूप से परेशान होती है ... कठिनाई के पल कटते हैं युवा आकर सब सम्भाल लेता है... नमिता से पता चलता है कि नमिता की माँ की सोच होती है कि छ महीना का जो समय उसे मिला है उसे वह नमिता की शादी अपने ही परिवेश-जाति के लड़के से कर लेगी... उस दिन वह नमिता को किसी लड़के से मिलवाने के लिए जिद पर अड़ गई थीं और उनदोनों में बहस छिड़ गई थी... नमिता की माँ का कहना था अलग जाति अलग राज्य अलग परिवेश होने के कारण नमिता को कठिनाई होगी...-“तुम जिसे प्रेम कह रही हो वह महज आकर्षण है ! मैं पुनः मंदिर गई थी यह पता करने कि तुम्हारी शादी उस युवा से करूँ कि ना करूँ तो इस बार पुष्प का निर्णय से ना करना उचित है हमारे लिए... वो लड़का तुम्हें पायदान/पैर पोछना (डोरमैट)बनाकर रखेगा...”
“उनलोगों को भी तो आशंकित होना चाहिए कि लड़की और लड़की की माँ उनके इकलौते लड़के को फँसाकर उनसे दूर कर देगी..” अपने साथ के लिए कविता की ओर आशा से देखती है लेकिन कविता अपनी माँ के संग जाकर खड़ी हो जाती है... अभी तो उसे अपनी माँ की ज्यादा जरूरत है... दीदी का साथ देकर कौन अपने लिए मुसीबत मोल ले...। बहस तकरार बढ़ता गया और नमिता के दूसरे लड़के से मिलना इंकार करने पर उसकी माँ ने शर्त रखा या तो दूसरी जगह शादी करो या उसका घर छोड़ दो ... दोनों के लिए सहमती नहीं देने पर नमिता को मार-पिट कर उस अँधेरी रात में उसकी माँ ने घर से निकाल दिया...
अपने कमरे में ले जाने के पहले युवा नमिता को पुलिस-स्टेशन ले जाता है ताकि बाद में नमिता की माँ कोई कानूनी दाँव-पेंच में ना फँसा दे.. लेकिन पुलिस रिपोर्ट लिखने से मना कर देती है और सलाह देती है कि “आपदोनों बालिग हो.. कोर्ट मैरिज कर लो... “ युवा दूसरे दिन नमिता के रहने के लिए अन्य कमरा की व्यवस्था करता है और अपने पिता से सलाह करता है तथा कोर्ट मैरिज का अप्लाई करता है... संग-संग नमिता की माँ को मनाने की कोशिश भी किया जाता है.. युवा के पिता कई बार बात करने की कोशिश करते हैं.. लेकिन छ: महीने बाद होने वाली शादी में भी कोई शामिल नहीं होता है... उलटे धमकियाँ दी जाती रही नमिता की माँ की तरफ से... नमिता के दादा, पिता और चाचा सभी तैयार हो जाते है लेकिन नानी भी नमिता की माँ का समर्थन करती हैं या यूँ कहें कि वे ज्यादा बढ़ावा देती हैं... सुलगी चिंगारी को तेज आग करती रहीं।

