जीनत
जीनत
जीनत आपा हमारी बहुत ही खाश आपा थी, हमेशा काले हिजाब से ढका सर गुलाब की तरह चमकता चेहरा जैसे काले बादलों के बीच चमकता चाँद। बहुत ही खूबसूरत पाँचों टाइम नमाज़ पढ़ना, दीनो रसूल को मानने वाली थी। पर आँखों का सूनापन कुछ और ही कहता था। हम तो छोटे से थे खेलते कूदते उनकी गोद में बैठ जाते वह गले लगाती हम लग जाते और कहानियाँ सुनते, पर जब थोड़े से बड़े हुये तो आँखो का सूनापन पढ़ने लगे। जब समझदार हुये तो पूछ ही लिया जीनू अपपी हाँ हम उनको कहते थे, तो पहली बार जीनत आपा को रोते देखा और वह बोली नये जमाने के बंदे को रसूलवाला पंसद ना आया और शादी के चंद दिन बाद ही मैं गंवार नजर आने लगी और हमको अपने से अलग कर दिया, बस अफसोस यही है कि मैंने कुछ किया ही नहीं पर शायद ख़ुदा भी अपने बंदो को अजमाते है। हम भी हैरान है परेशान है पर हमारे हाथ में कुछ नहीं ।