जीने भर की जरुरत
जीने भर की जरुरत
शशांक सुबह सुबह अपनी मारुती-800 कार की सफाई कर रहा था। साथ ही साथ झल्ला भी रहा था अपनी आठ साल पुरानी कार पर। रात ही एक पारिवारिक शादी में गया तो देखा कि बाकी सब भाइयों और रिश्तेदारों के पास ऊँचे मॉडल की गाड़ियाँ हैं। फिर भी उनमें चर्चा ये ही थी कि अब वो कौन सी गाड़ी खरीदेंगे। अपनी जिंदगी को साधारण से भी कम ही अंकता था शशांक। अपने आप से ही बुदबुदा रहा था “साली कुछ जिंदगी है, हर दिन इस चिंता में की खर्चे कैसे पूरे होंगे? लोग मज़े कर रहें हैं, लाख पचास हज़ार खर्च करने में कुछ सोचना ही नहीं पड़ता, यहाँ 1000 रुपये खर्च करने से भी महीने का बजट गड़बड़ा जाता हैं।”
फिर उसने ध्यान दिया की गाड़ी की खिड़की नीचे की तरफ से जंग खाकर गल चुकी है। उसने कपड़ा मारकर बाहर से दिख रहे जंग के निशान को मिटाने का असफल प्रयास किया। झल्लाकर बोला “ये कब तक चलेगा.... जिन्दगी भर बस धक्के ही खाने हैं क्या? साला कम से कम दो लाख रुपये महीना का जुगाड़ तो हो ही, एक ढंग की जिंदगी जीने को। जितना मिल रहा है इतने में तो जीने भर की जरूरत भी पूरी नहीं होती”
“बाबूजी कुछ खाने को
दे दो” एक बिखरी सी आवाज़ से शशांक का तारतम्य टूटा ।
अपनी ही धुन में मगन शशांक ने कहा “अभी नहीं यार, बाद में आना”
लेकिन आवाज़ उसकी पत्नी तक पहुँच गयी थी। वो शादी में से मिलें पकवान में से कुछ खाने को ले आई और भिखारी को दिया। फिर एक पैंट देते हुए बोली “लो ये पुरानी पैंट है, पहन लेना।"
ये सुनते ही शशांक का ध्यान टूटा, तुरंत उसने पैंट को देखते हुआ कहा “नहीं लेखा ये सूती है, गाड़ी साफ़ करने के लिए रखी है मैंने”
“बाबूजी मैं अपना पजामा दे दूंगा गाड़ी तो इससे साफ़ कर लेना” भिखारी ने याचना भरी आवाज़ में कहा..
अब शशांक का ध्यान उस भिखारी पर गया वो एक 60-65 वर्ष का बूढ़ा था। उसके बदन पर एक फटी हुई कमीज थी और नीचे एक फटा सा पजामा, जो बस तन पर कपड़ा होने की औपचारिकता पूरी कर रहे थे। उसके कपड़ों में से वक़्त और धूप की मार से जली उसकी चमड़ी झांक रही थी। शशांक अपने विचारों के भँवर से बाहर निकला और बोला “लेखा मेरी पुरानी कमीज भी पड़ी हैं वो भी दे दो”
भिखारी खाना और कपड़े लेकर जा चूका था। शशांक अपनी गाड़ी को फिर से साफ़ करने में लग गया।