satish bhardwaj

Drama Tragedy Classics

4.7  

satish bhardwaj

Drama Tragedy Classics

मिट्टी

मिट्टी

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नारायण और उसकी पत्नी सरस्वती दोनों महाराज गंज से दिल्ली में आकर मजदूरी करते थे। दोनों ही एक फैक्ट्री में ठेकेदार के माध्यम से नौकरी करते थे। यमुना के किनारे के खादर में बहुत सी झुग्गियां थी जिनमें ये दोनों रहते थे। वहाँ एक छोटी सी झोपडी किराए पर ले रखी थी। खाली ज़मीनों पर अवैध झुग्गियां बसाकर किराये पर देना एक अवैध परन्तु संगठित व्यवसाय था भारत में, जिसमें बाहुबली और माफिया घुसे हुए थे।

तीन वर्ष की एक बिटिया थी दोनों की और सरस्वती तीन माह की गर्भवती भी थी। सरस्वती के नाम का अपभ्रंश अब सरसुती हो गया था और नारायण को सब नारान बोल देते थे।

कोरोना महामारी ने भारत में दस्तक दे दी थी। नारायण और सरस्वती जैसे मजदूरों को कोरोना भी कुछ है ये पता तब चला जब लॉकडाउन के कारण दिल्ली के बाज़ार पूर्णतया बंद हो गए। फैक्ट्री मालिक जो कभी इन मजदूरों से सीधे कोई संपर्क नहीं करता था उसने इन्हें खुद तनख्वाह और कुछ अतिरिक्त पैसा दिया। और बोल दिया था कि लॉकडाउन खुलने पर बुलवा लूँगा।

दोनों अपने झोपड़े में रहते थे, गर्मी भी अब परवान पर थी। इनके हाथ में पैसा तो था पर बाज़ार बंद होने के कारण कुछ मिल नहीं पा रहा था। जैसे तैसे करके कोई दूकान खुली मिल जाती तो उससे ही कुछ राशन ले लेते थे। वो भी महंगी दरों पर मिल रहा था। लेकिन ये लॉकडाउन की ख़ामोशी कुछ ज्यादा ही भयावह होती जा रही थी। पुलिस जहाँ भीड़ देखती वहीँ खदेड़ देती। पूरी दुनिया मुहँ लपेटे घूम रही थी। बहुत सारे मजदूर अपने घरों की तरफ चल दिए थे। लेकिन ये दोनों रुके हुए थे। इनकी कोलोनी में भी लोग आते थे इनको मास्क और बिस्कुट बाँट कर फोटो खिंचवा कर चले जाते थे।

अफवाहों का दौर गर्म था। लोगो में तरह तरह की चर्चा थी कि हवा से भी फ़ैल रही है ये बिमारी तो। अब लगभग सभी अपने घरो की और चल दिए थे। कोई मौत को निश्चित मानकर अपने परिवार के पास जाने को आतुर था तो कोई काम धंदा ना होने कि मज़बूरी में। सरस्वती अपनी छोटी बच्ची और अपने गर्भ के कारण हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी।

सरस्वती ने बिटिया को सुला दिया था और एक प्लास्टिक के टुकड़े से उसकी हवा कर रही थी। नारायण आया और एक पैकेट बिस्किट का सरस्वती को दे दिया। सरस्वती ने मुस्कुराकर अभिवादन किया।

नारायण ने गंभीरता से कहा "सरसुती, उ ठेकेदार कहवन कि गाडी जा रहन.....फैइजाबाद तक "

सरस्वती की आँखों में चमक थी "क्या? सच.... तो चलो"

नारायण ने निराशा के साथ कहा "ऊ.... वो गाड़ी वाला .....उ दोनों का पाँच हज़ार रूपया मांग रहल"

सरस्वती को झटका सा लगा "पाँच हज़ार, इतना काहे, कोनो कोई जहाज में ले जायेगा"

नारायण : सब गाड़ियाँ बन्द हैं... कर्फु लगा है, पैदल चलने पर भी पुलिस डंडा मार रही है

सरस्वती ने कुछ सोचने के बाद कहा "इतने पैसे तो दे ही देंगे, यहाँ भी कब तक रहेंगे? राशन महंगा भी मिलना मुश्किल हो रहा है। वो खाना बांटने वाले भी कभी आते हैं तो कभी नहीं...जब आते हैं तब भी फोटो ज्यादा खींचते हैं"

सास्वती ने नारायण के हाथ पर हाथ रख कर कहा "एक बार गाँव पहुँच जाएँ तो कम से कम अपने परिवार से तो मिल लेंगे"

सरस्वती की इस बात से नारायण भावुक हो गया। उसने बिटिया के सर पर हाथ फेरते हुए कहा "सब बोल रहें हैं कि ये बिमारी नहीं छोड़ेगी, अब जब मरना ही है तो अपने गाँव में मरेंगे। पता नहीं यहाँ तो अग्नि भी नसीब होगी या नहीं?"

सरस्वती ने भी निराशा से कहा "वो जरमन बता रहा था कि मुर्दों को कंधे देने को भी कोई तैयार नहीं है। सड़ रहे हैं मुर्दे..."

नारायण ने कुछ देर चिंतन किया और फिर निर्णायक शैली में बोला "सामान बाँध, अब गाँव में ही जायेंगे"

ठेकेदार इन सब से पैसे ले रहा था लेकिन फिर भी उसका अंदाज़ ऐसा था जैसे कि इनपर एहसान कर रहा हो। वो ही इन्हें ज्यादा कमाई के सपने दिखाकर दिल्ली लाया था। उसका व्यापार ये ही था, पूर्वी उत्तर प्रदेश से मजदूरों को लाकर यहाँ की फैक्ट्रियों में उनसे काम करवाना।

ठेकेदार ने नारायण के सामान के गट्ठर देखे और बोला "दुनिया में परलय आ रही है और तू ये सामान की गठरी ठाए घूम रहा है। अब तो लालच छोड़ दे नरान। बस राम नाम भज अब। शुकर है ये ले जाने को तैयार हो गए नहीं तो सड़को पर झाँकने भी नहीं दे रही पुलिस"

नारायण ने ध्यान नहीं दिया और ट्रक में चढ़ गया। अपने सामान की गठरी भी उसने ट्रक में ही लाद ली।

ट्रक वाले से गोरखपुर तक छोड़ने की बात तय हुई थी और उसने पैसे पहले ही ले लिए थे। ट्रक में नारायण के अलावा 15 या 20 लोग और भी थे जिन्हें उस क्षेत्र में ही जाना था।

ट्रक ड्राइवर ठेकेदार से बोला "मथुरा को ले जाऊँगा, वहाँ चेकिंग से बच जायेंगे, आगे का रास्ता आगे देखेंगे नहीं तो टूंडला मैनपूरी कन्नोज को होते हुए चलेंगे"

ठेकेदार ने ट्रक में चढ़ते हुए कहा "भईया तुमै बताय दिए हैं कि कितै-कितै उतारनो सबन नै, अब जो सही लगे करो। जो जाने वो ताने.... हमतै कछु ना कहो"

सभी को बेहद सुकून महसूस हो रहा था ये सोचकर कि चलो अब अपने गाँव पहुँच जायेंगे।

मजदूरों में से ही एक मजदूर ने ट्रक चलते ही महादेव के नाम का उद्दघोष किया बाकी ने भी साथ दिया। एक मजदूर ने तम्बाखू हथेली पर निकाला और उसमें से कुछ ख़राब तुनके और पत्ती बीनने लगा। तभी नारायण ने आत्मीयता से कह "थोरा सा बढाय लो भईया"

उस मजदूर ने मुस्कराहट से नारायण को प्रतिउत्तर दिया। फिर और भी लोगो ने उसकी तरफ याचना भरी दृष्टि से देखा तो उसने 8 से 10 लोगो के लायक तम्बाखू हथेली पर निकाल लिया और अपनी मस्ती में तम्बाखू और चुने को सधे हुए हाथो से मिश्रण बनाकर रगड़ते हुए गुनगुनाने लग

"रउआ.... बिना के पूजी बिरही.....हैह्ह्ह्हह दरद कैसा ......ह्ह्ह्ह"

तभी उसके कंधे पर एक साथी मजदूर ने हाथ रखा तो उसने अपनी गुनगुनाहट को विराम दिया और मुस्कुराते हुए उसकी तरफ देखा।

उस मजदूर ने संजीदगी से कहा "भईया आये रहे थे कि कछु पैसा कमाकर घर भिजवाएंगे.....बस इसलिए उहाँ वो इहाँ हम बिरहा की आग में जलते रहे"

तम्बाखू रगड़ रहे मजदूर ने खींसे निपोर कर कहा "तो भईया इहाँ आके भइल कोल्हू का बैइल.....कछु हाथ लगा का"

उस मजदूर ने मायूसी से उत्तर दिया "ठेकेदार बोले थे कुछ दिन बाद वापस आ जाना कछु पैसा जोडकर....जो जोड़ा वो तो ले लिहिस इसने... भाड़ा"

तम्बाखू रगड़ते रगड़ते वो मजदूर फिर हंसकर बोला "का भईया भीख ना माँगा वाहे खातिर मजदूरी किये ना। लेकिन का हुआ लाइन में लग लग भीख मांगी खाने की....... और ससुरो से फोटू भी खिंचवाए"

इस बात पर सरस्वती जो अभी तक घूँघट किये मौन थी, वो तुनक कर बोल पड़ी "बहुत लज्जा आती थी, का करे पेट के मारे सब सहना पड़ी। और बार बार पैकेटवा को पकरा कर फोटो खींचते थे"

नारायण को उसका मर्दों के बीच यूँ बोलना अच्छा नहीं लगा। उसने उस पर अपना मर्दाना रोब ज़माते हुए कहा "काहे खखुआ के चढ़ी बईठल, खामोश रहो ना"

इतने समय में उस मजदूर के पारंगत हाथो ने तम्बाखू को रगड़ कर उसे मटमैली से हरी रंगत में बदल दिया था। जब उसने जोरदार थपकी लगाई तो उसकी गंध सबके नथुनों को उत्तेजित कर गयी। मजदूर तम्बाखू से भरी हथेली आगे बढ़ाते हुए बोला "ई ससुरा कुरोना का दम घुट गइस रगड़ा खाकर। लियो भईया पर तनी हमार लिए बी छोर दीयों"

सब मजदूर ठठाकर हंस दिए

सबने थोडा थोडा पत्ती लेकर अपने होठों में दबा ली। नारायण की बिटिया सरस्वती की गोद में ही सो गयी थी। कुछ लोग ऊँघ रहे थे तो कुछ आपसी चर्चा में मशगुल थे। अभी 2 घंटे का सफ़र ही हुआ था कि गाडी में एकदम से ब्रेक लगे और गाड़ी रुक गयी। अभी वो सदाबाद के पास ही आये थे। पुलिस चेकिंग से बचने को ड्राइवर अलग रास्तो से आया था।

ठेकेदार भागकर पीछे आया और हडबडाहट में बोला " उतरो सब नीचे"

फिर वो उन्हें सड़क से हटकर अलग रास्ते पर ले गया और आगे जाकर बोला "इस रास्ते से आगे जाकर सड़क पर मिलो सब, चेकिंग चल रई है। एक बार पकड़ लिया तो उसकी गाडी जपत हो जायेगी और हमे तुमे कर देंगे बंद........ पुरे मास के लिए"

मजदूरों के चेहरे पर अब परेशानी साफ़ दिखने लगी। उन्होंने पैसे सारे दे दिए थे, एक मजदूर बोला "अरे ठेकेदार साहब पुलस से कछु कह सुनकर देख लो ना"

ठेकेदार ने माथे में सलवट डालते हुए कहा "इतनी बुद्धि तो मुझे भी दी है भगवान् ने, बात करेंगे लेकिन भईया इतनो को देखकर आगे ना जाने देंगे"

नारायण थोडा हिचकते हुए बोला "वो आ तो जायेगा हमें लेने ठेकेदार साहब"

ठेकेदार ने नारायण के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा "नरान तुम ई ना हो हज़ारो कु काम दिलवाया यहाँ, और अब उनके देश भी पहुंचा रहा हूँ। भिया यो विपदा ई एसी आई है...... कम से कम अपने परिवार से तो मिल लेंगे"

एक मजदूर ने गंभीर आवाज़ में कहा "यो बिमारी तो जी पता नी कितनो मारेगी। अब तो बस इतना होजा कि अंत काल में अपनी मिट्टी मिल जाए बाबु जी"

उसकी इस बात से कई मजदूरों की आँखों में से पानी बह निकला। सरस्वती ने अपने साड़ी के पल्लू से अपनी आँख साफ़ की।

ठेकेदार ट्रक वाले के साथ गया और वो सब बताये रस्ते के अनुसार चल दिए। जहाँ उन्हें बताया था वो सब वहाँ पहुँच गए। बहुत समय तक इंतज़ार भी किया सूरज सर पर चढ़ आया था लेकिन ठेकेदार का कोई ठिकाना नहीं था। ठेकेदार का फोन भी नहीं उठ रहा था। काफी प्रयासों के बाद ठेकेदार ने नारायण का फोन उठाया और घबराहट में बोला "ओ नरान, भैया सब आगे बढ़ लो उहाँ से। पुलिस ने गाडी ज़ब्ती कर ली"

नारायाण ने घबराहट में कहा "का कह रहे हो बाबूजी, हमारा का होगा इस परदेश में?"

फोन लाउड मोड़ पर था तो सभी सुन रहे थे। उधर से ठेकेदार ने कहा "भईया जइसा बोले रहे वइसा करो। ना पुलिस आ रही है सबउको लेने। फिर डाल देंगे कहीं बंदी में। और इहाँ मरे तो भईया पता ना देह को अग्नि भी नसीब हो या ना"

और इतना कहकर ठेकेदार ने फोन काट दिया। अब सभी मजदूरों में घबराहट थी। तभी एक बोला भईया इहाँ से तो चलो पहले ना तो पुलिस आती ही होगी"

जिस मजदूर ने चुना रगड़ा था वो एकदम से बोला "आती ना होगी भईया, भेजी होगी उ छिनार के जने ठेकेदार ने। सब रूपया पईसा तो ठग ही लिए"

अब ठेकेदार का फोन बंद आ रहा था। पुलिस की एक गाड़ी आई और सभी को लाठिया कर खदेड़ना शुरू कर दिया। वो सब गाँव की पगडण्डी की तरफ चले गए तो पुलिस वाले भी वहाँ से चल दिए।

मजदूर अभी भी तय नहीं कर पा रहे थे कि करें तो करें क्या? अब किसी के पास ज्यादा पैसे भी नहीं बचे थे। तभी एक मजदूर बोला "अरे ओ भइया चोरासी कोस परिकम्म्मा किये हो कभी?"

लगभग अधिकतर ने कहा "किये हैं भईया"

तब वो बोला "तो चलऊ फिर करते हैं डबल परिकम्मा, वैसे भी पईसा बचा नहीं....और भईया यहाँ रहो या अपने गाम में ये बिमारी छोड़ेगी भी नहीं"

नारायण ने दार्शनिक भाव में कहा "भईया जब मिटना ही है तो अपनी मिट्टी में जाकर मिटेंगे"

और इस तरह सब पैदल और एक लम्बी यात्रा पर निकल लिए। इनमें से सभी का गंतव्य 1000 किलोमीटर से भी ज्यादा था। लेकिन जीवन भर मजदूरी करने वाला मेहनत से नहीं डरता। वो जानता है अपने शरीर की अंतिम सीमा तक उससे काम कैसे लेना है।

उस पुरे दिन वो सभी चले और रात भी काफी समय चलने के बाद एक जगह उन्होंने रात काटी। सुबह फिर चल दिए। अब उनके पास खाने की भी समस्या हो चली थी परन्तु देहात में उन्हें रास्ते में सहानुभूति भी खूब मिली और भोजन भी। देश का मिडिया 1947 के बाद के इस सबसे बड़े पलायन पर जमकर टीआरपी बटोर रहा था। लेकिन ये जो पलायन कर रहे थे, इनकी आँखों में बस अपना परिवार और अपना गाँव था। इनमे से किसी को नहीं पता था कि वो एक बड़े वैश्विक मिडिया इवेंट के मुख्य पात्र हैं। ये पलायन मीडिया में अब कोरोना से ज्यादा चर्चा बटोर रहा था।

तभी चलते चलते सरस्वती को दर्द होने लगा। बाकी मजदूरों को आगे चलने को बोलकर नारायण अपनी बेटी और सरस्वती के साथ वहीँ रुक गया। उसके साथ एक मजदूर और उसकी पत्नी और रुक गये। उस मजदूर ने नारायण की बेटी को एक बिस्किट जो उसे रस्ते के एक गाँव में मिला था वो दिया। बिस्किट लेते ही उस बच्ची के थके हुए मासूम चेहेरे पर एक सुन्दर मुस्कान फ़ैल गयी जैसे घुप्प अँधेरे में कोई रौशनी की किरण फ़ैल जाती है। इस महामारी के दौर में भी प्रकृति ने अपनी अप्रतिम सुन्दरता इस बच्ची के मुखमंडल पर बिखेर दी थी।

सरस्वती एकदम से ज़मीन पर बैठ गयी और पीड़ा से कराहते हुए बोली "अब ना हो पायेगा, देह में बिलकुल जान ना बची है.....पता नही पीड़ा बढती ही जा रही है" और उसके मुख से एक कराहट निकली।

नारायण ने उसके माथे पर हाथ फेरते हुए उसे पानी पिलाया और बोला "हे सरसुती थोड़ी हिम्मत करो रे"

लेकिन सरस्वती की कराहा और पीड़ा बढती ही गयी।

साथी मजदूर ने नारायण को कहा "अरे हो नरान, भोजाई को छाँव में बैठा, कुछ देर बाद आगे चलते हैं"

नारायण ने परेशान होते हुए कहा "भईया यहाँ बियाबान में कहाँ रुके......कोनो मदद भी ना मिले यहाँ तो"

उस मजदूर ने कहा "नरान आगे ना चल पयेगी भोजाई...देख तो तनिक"

सरस्वती को दोनों लोग उठाकर छाँव में ले गए। तभी नारायण ने ध्यान दिया कि सरस्वती को रक्तश्राव हो रहा है। सरस्वती की साड़ी रक्त से पूरी तरह ख़राब हो गयी थी। सरस्वती दर्द से करहा रही थी। साथ में चल रही स्त्री ने नारायण और साथी मजदूर को अलग जाने का इशारा किया और सरस्वती को संभालने में लग गयी। उसने अपनी एक धोती से पर्दा कर दिया। नारायाण किसी अनिष्ट की आशंका से घबराकर रोने लगा और साथी मजदूर उसे ढाढस बंधाने लगा। नारायाण की बिटिया को नहीं पता था कि ये क्या हो रहा है? लेकिन वो माँ की दर्द भरी कराहट और नारायण का क्रंदन देखकर घबरा गयी थी। नारायण को कुछ होश आया तो वो रोती हुई बिटिया को थोडा दूर ले गया। जहाँ उसकी माँ की कराहट की आवाज़ कम आ रही थी।

कुछ समय बाद जब सरस्वती शांत हो गयी तो नारायण सरस्वती को देखने उसके पास आया। उस महिला ने सरस्वती को दूसरी साड़ी पहना दी थी और रक्त से सनी उसकी साड़ी वहीँ पास में पड़ी हुई थी।

उस महिला ने नारायण के पास आकर भीगी आँखों से कहा "भईया सरसुती का लल्ला न रही"

नारायण सरस्वती के पास गया और उसके सर पर हाथ फेरने लगा। उसकी बिटिया कुलबुलाते हुए उसकी गोद में छिप गयी। दर्द से अब राहत थी लेकिन ह्रदय में उसके अजन्मे बच्चे के यूँ काल का ग्रास बन जाने के घाव थे। ये मानसिक पीड़ा उस दैहिक दर्द से भी ज्यादा थी। अपनी बेटी के कोमल हाथो के स्पर्श से सरस्वती के चेहेरे पर एक शान्ति का भाव आ गया।

सरस्वती ने रोते हुए नारायाण से कहा "देखिये ना हमाये लल्ला ने तो अभी दुनिया देखि भी नहीं थी और लील गयी ये महामारी उसे"

नारायण ने उसे अपने अंक में लेते हुए कहा "रो मत सरसुती, बिटिया घबरा जाई....भगवान् सब सही करेगा"

सरस्वती ने भगवान् को कोसते हुए कहा "हम मजदूरों का कोई भगवान् नहीं......कहीं नहीं जाना मुझे, बस अब तो यहीं मर जाउंगी अपने लल्ला के साथ ही" और सरस्वती हिड्की दे कर रोने लगी।

नारायाण ने कहा "ना सरसुती ना....एसी बात ना कर। जी को तनी मजबूत कर। यहाँ परदेश में ना मरेंगे, मरना है तो अपने गाँव जाकर ही मरेंगे, अपनों के साथ"

सरस्वती ने अपनी हिचकी को रोकते हुए कहा "ये भी तो अपना ही था। जिन बच्चो के खातिर इतना दूर आये, मेहनत मजूरी करे खातिर, वो ही ना रहे तो काहे लाने गाँव जाएँ"

नारायण ने तब उसके सर पर हाथ फेरते हुए कहा "अपनी मिट्टी की खातिर सरसुती.....जिस मिट्टी से पैदा भये उस मिट्टी में ही मिलेंगे। यो हमारी धरती ना सरसुती.......चलना तो पड़ेगा"

नारायण की बात सुनकर से सरस्वती अतीत की यादों में पहुँच गयी। जब वो पहली बार गोने के बाद मायके से चली थी तो माँ ने रोते हुए विदा करते समय कहा था "यहाँ से तेरी विदाई हो गयी बिटिया, अब अंतिम विदाई ससुराल से ही हो बस"

सरस्वती को याद आया कि जब वो गाँव में आई थी नयी नवेली दुल्हन बनकर तो बस परिवार और कुटुंब ही नहीं पुरे मोहल्ले में उल्लास का माहोल था। वो हर व्यक्ति की बहु, बेटी या भोजाई बनकर आई थी। मर्यादाओं का बड़ा भार उसके कंधो पर था।

चूल्हे को लिपते समय उठने वाली वो सोंधी खुसबू उसके नथुनों में भर गयी। उसके ससुराल की हवाओं की खुसबू और वहाँ की मिट्टी की खुसबू ने उसके मस्तिस्क और उसकी कल्पनाओं को महका दिया। सरस्वती के निस्तेज चेहेरे पर एक तेज़ आ गया और जोश के साथ वो उठकर चल दी.....अपनी मिट्टी के लिए, अपने गाँव के लिए।


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