इश्क़-विश्क़ और फुर्सत
इश्क़-विश्क़ और फुर्सत
ये जब से सुना है ,"ये इश्क़ विश्क़ फुर्सत का काम है" तो यकीन जानिए देखा कुछ लोगों को यह कहना सोचने के लिए भी फुर्सत लगती है।वाकई , जिंदगी जब तक उनको घुमाती रहती है,कोल्हू के बैल की तर्ज पर ,कहाँ होता है तब समय सोचने का खुद को भी।कभी इसकी कभी उसकी बस सबकी ही सुनते करते ख्याल भी कहाँ आता है उनको 'खुद' के होने का।और हैरानी ये की कभी शिकवा भी नहीं कर सकते वे खुद के खोने का।
ऐसा नहीं कि जद्दोजहद में लगी उनकी जिंदगी को ख्याल नहीं आता 'उसका'। आता ही होगा और 'उसके' इश्क़ की मुश्क कभी कभी दिल को महसूस भी होती होगी लेकिन दुनियादार जहन फौरन से पेशतर ले आता होगा सामने फाइलों, मीटिंग्स, दवाइयों, सब्जियों, साबुन और लोबान की महक। वो तमाम कामों की लिस्ट खींच खींच पकड़ने लगती होगी हर सिम्त से। भागने लगता होगा समय और भागने लगते होंगे वे। सब सही है न!
लेकिन यह सोच क्यों नहीं आती उनको की समय इश्क़ के लिए भी तो भाग रहा है। उसका ख्याल भी तो कहीं दूर छूटता जा रहा होगा। पता नहीं क्या है? इत्मिनान है या भरम है उनके दिल को कि इस भागमभाग में 'वो ' कहीं नहीं छूटेगा। रहता तो आसपास , दिल मे ही है न! लेकिन क्या ये सच नहीं है ? आपके आसपास ही सही पर दिल में बसाये जाने वाले को भी निगहबानी चाहिए होती आपके इश्क़ की । ये आम जिन्दगी के बड़े भारी मसले और उनके बीच आपकी राह ताकता मासूम ,खामोश बैठा 'इश्क़', को घबराहट तो होती होगी। उसे इंतज़ार तो होता होगा आपकी एक नज़र का। सबके लिए होता हुआ आपका समय सिर्फ उसके लिए ही क्यों नहीं होता। वह भी आपकी जिंदगी का हिस्सा है ,औरों की तरह तमाम जरूरी में क्यों नहीं आता। वो क्यो न भाग जाय निकल के उम्मीदों की कैद से!? दूर कहीं और ,सिर्फ अपने लिए।
तो बुरी तरह व्यस्त दुनिया वालों ,जब फुरसत लगे । आये ख्याल इश्क़-विश्क़ का ,लगे चलो सब निपट चुका ।अब एक काम जो ये बाकी रहा इसे भी देख लिया जाय। तो, जो मिले न दिल के आस पास भी कहीं" इश्क़ विश्क़" तो अपनी फुरसत को रुखसत कर देना, कहना "ये इश्क़ विश्क़ तो फुर्सत का काम है न!"