इंतजार
इंतजार
"कैसे हैं? जोशी जी। उठिए, घूमने नहीं चलना। देखिए फिक्स छः बजे आपके घर पहुँच गया हूँ। आज भी आप ही ने देर की है। अब तो मानना पड़ेगा आप हार गए। "
जोशी जी बिना कुछ बोले एकटक त्रिपाठी जी को देखते रहे। ऐसे जैसे उनकी बातें सुन तो रहे हों पर मन कहीं और ही विचारों में उलझा हो। त्रिपाठी जी ने प्यार से उनके सिर पर हाथ फेरा, कंधों को सहारा दे व्हील-चेयर पर बैठा उन्हें बाहर ले आए।
सालों से त्रिपाठी जी का यही रूटीन था। घर से घूमने के लिए निकलते और अपने परम-मित्र के साथ, घंटों उनकी बगिया में बैठ पुरानी यादें ताजा करते। आज बगीचा पुदीने की महक से सिक्त था। त्रिपाठी जी को जोशी जी के शब्द अक्सर याद आते, "नीम, आम, हरसिंगार, बेल, तुलसी और अब मैंने पुदीना भी लगाया है। आने वाले दिनों में अंगूर की बेल के लिए भी जाल डालना है। "
"इतनी मेहनत क्यों करता है भाई? इतनी कमाई है तेरी एक माली लगा ले। "
"बातें मत बना, सबसे ज्यादा मजे पुदीने के मजे तू ही लेगा। एक गुलाब तोड़ने के बहाने भाभी जी से बच घंटों यहीं आ बैठ जाता है।" फिर गंभीर होकर बोले, "मिट्टी से जुड़ा आदमी हूँ। पिताजी गाँव में खेती किया करते थे। पहाड़ों का जीवन तो वैसे भी बहुत कठिन होता है। जब गाँव में घर के आगे उन्होंने इतनी हरियाली कर रखी थी तो ये तो शहर है। जहाँ खाद, पेस्टीसाइड सभी आसानी से मिल जाते है। अपनी मेहनत से सजाई बगिया की बात ही कुछ और है। "
"देखना जब मेरे पोते यहाँ लगी मखमली घास में खेलेंगे ना! तो मुझे याद किया करेंगे। "
त्रिपाठी जी ने अपने आँसू पोंछते हुए जोशी जी के हाथ में हाथ रख दिया।
"कब तक खुद को सजा देता रहेगा। कुछ तो बोल! देख तेरा हरसिंगार का पेड़ कैसे फूलों से लदा है पर तेरे बिना उनकी रौनक अधूरी है। आम की बौर भी हर साल आकर झड़ जाती है शायद तेरे स्पर्श को तरसती हैं। "
त्रिपाठी जी की किसी बात का जोशी जी पर कोई असर न होता।
काफी देर अपने मित्र से बतियाने के बाद त्रिपाठी जी ने आवाज लगाई, "भाभी जी कुछ लाना है तो बता दीजिएगा, आज बेटा सिटी की तरफ जाएगा। "
"नहीं भाई साहब, ला सकते हैं तो इनकी याददाश्त वापस ला दीजिए। इनका स्वाभिमान, अभिमान, इज्जत....जानती हूँ कुछ वापस नहीं आएगा।" कह रोने लगीं।
"देखिए जो बीत गया वो एक हादसा था। होनी को कौन टाल सकता। जो हालात बने हैं उनसे समझौता करके ही चलना होगा। डॉक्टर ने कहा है ना कभी भी जोशी की याददाश्त वापस आ सकती है। आपको हिम्मत रखनी ही होगी । देखना एक दिन मेरा मित्र जरूर ठीक होगा। भगवान के घर देर है अंधेर नहीं। "
"उस दिन चमत्कार ही होगा भाई साहब। देखते ही देखते आज बाईस साल बीत गए। डॉक्टर की दी हुई उम्मीद से ही जिंदा हूँ, कहीं बाहर से आती हूँ तो लगता है अभी आवाज लगाएंगे। "
"आप तो उनके मन में बसी हैं, भाभी जी। देखिए ना कितनी प्यार से आपको आज भी आवाज लगाता है, आप दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हैं। देखना आपका त्याग और समर्पण एक दिन जरूर रंग लाएगा। "
इतने में जोशी जी ने हनुमान चालीसा बोलनी शुरू कर दी। जिसे सुन मिसिज जोशी रो पड़ीं, "हनुमान-चालीसा ऐसे बोलते हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं है इन्हें।"
"नीमा...."
"आई जी" कह मिसेज जोशी पानी का गिलास ला जोशी जी को पानी पिलाने लगीं।
"सालों बीत गए भाई साहब। मेरा नाम ले इतनी स्वाभाविक आवाज मारते हैं और मैं सुनकर हर रोज इस उम्मीद में भागकर जाती हूँ कि अब आगे कहेंगे" नीमा चाय तो पिला दो यार। मेरी जगह कोई और भी पानी का गिलास ले जाए तो नहीं जानते कि नीमा ने पिलाया या किसी और ने, कितना बड़ा दुःख है ये भाईसाहब।" आँखों के पोर से आँसू पोंछते हुए सुबकने लगी।
"भाभी जी जिस आदमी ने पूरी जिंदगी ईमानदारी से काम किया हो उसके व्यक्तित्व में रिश्वतखोरी जैसा दाग लग जाना कोई मामूली बात तो नहीं। "
"जी, समझ सकती हूँ भाई साहब। मैंने कई बार कहा अच्छा वकील कर लो तो कहते, "वकील की फीस भरोगी तो तुम जिंदगी भर क्या खाओगी। भगवान साक्षी है मेरी बेगुनाही का। "दस साल वो भगवान कहाँ सोए रहे नहीं जानती पर इन दस सालों ने मेरी जिंदगी बदल कर रख दी। बड़ा बेटा थोड़ा गंभीर स्वभाव का था। मुंह से कुछ ना कहता। छोटे से जब लोग प्रश्न करते, "तेरे पापा की न्यूज़ टीवी में आ रही थी उन्हें सस्पेंड कर दिया गया है ना?" घर में तफतीश के दौरान बिखरा समान और सबसे ज्यादा अपने पापा को हताश देख अपनी जिंदगी हार बैठा, सुसाइड कर लिया उसने।
बड़ा अक्सर पिता को संबल देता। "पापा ये कलियुग है यहाँ ईमानदारी का कोई मोल नहीं। जैसा देश, वैसा भेष बनाना पड़ता है। "पिता ने उसकी कोई बात नहीं मानी तो बहू और बच्चों को ले चला गया।
स्कूटर से आते हुए इतनी बड़ी दुर्घटना घट जाएगी नहीं जानती थी। तनाव में तो थे ही मैंने अकेले जाने को बहुत बार मना किया पर जिस मित्र ने फँसाया था बस एक बार उससे मिलना चाहते थे। स्कूटर से आते वक्त दिमाग में न जाने क्या बातें चल रही थी जो दुर्घटना का शिकार हो गए। दिमाग पर चोट आई और तब से आज तक मौन है। बड़ा बेटा बाद में आया भी। अपनी गलती महसूस कर माफी भी माँगी बहुत देर हो चुकी थी। आजकल के बच्चे हैं। गर्म खून है। हर परिस्थिति को अपने हिसाब से बदलना चाहते हैं। उसका भी क्या दोष था। छोटा वाला बिट्टू बहुत लाड़ला था इनका हमेशा कहता, "पापा जैसा बनूँगा" मझदार में ही छोड़ गया। कहाँ था इनका जैसा, ये तो बहुत हिम्मती थे।
देखिए ईमानदारी का सबब। भगवान ने फल दिया। जिस मित्र ने मजबूरी वश इन्हें फँसाया था उसे वो पैसे नहीं फले। उसने खुद ही दस-साल बाद अपना गुनाह कबूल कर लिया और इन्हें केस से बरी कर दिया गया। वो यहाँ आकर इनसे माफी भी माँग कर गया। लेकिन अब सब फिजूल था। "
इतने में जोशी जी ने आवाज लगाई, "नीमा...."
और वो उनकी आवाज़ पर उठ, उनका मन पढ़, व्हीलचेयर खिसका कमरे में ले गई।
मिसेस जोशी के लिए सबसे बड़ा दुःख ये था कि वो नीमा आवाज़ लगाने के बाद भी ये नहीं जानते थे कि नीमा कौन है! बस जो उनकी जरूरत की पूर्ति कर दे वो नीमा।
दुबला-पतला शरीर भी समय बीतने के साथ भारी हो गया था। बेटे ने साथ चलने की बहुत बार ज़िद्द की। सोचा पुरानी चीजों के बीच रहने से इनकी याददाश्त शायद कभी फिर वापस आ जाए। जब भी बाहर से आती तो इस उम्मीद के साथ कि शायद वो आज ठीक मिलेंगे। "
आज दिन सुबह से ही कुछ अलग था। त्रिपाठी जी, रोज की तरह जोशी जी को लेकर बाहर बगिया में बैठे थे। नीमा जी पौधों में से पीले पत्तों को हटा रही थीं। इतने में जोशी जी ने आवाज लगाई, "अरे नीमा, धीरे से....पौधों को भी दर्द होता है। आज त्रिपाठी को क्या चाय-वाय नहीं पिलाओगी। "
नीमा जी व त्रिपाठी जी के आश्चर्य की सीमा न थी। एक पल भी खोए बिना भागकर चाय बनाने चल दीं। वो ऐसे बोल रहे थे जैसे उन्हें कुछ हुआ ही ना हो। एकटक अपनी बगिया को देखते रहे और मुस्कुराते रहे। त्रिपाठी जी उत्सुकतावश न जाने क्या-क्या बोलते रहे लेकिन वो बिल्कुल शांत, बस मुस्कुराते रहे। ऐसी मुस्कुराहट सालों पहले उनके चेहरे पर दिखाई देती थी। नीमा जी ने चाय का प्याला उनके आगे कर दिया। चाय पी कर फिर आवाज लगाई, "नीमा...."
खुशी के मारे नीमा जी के मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। क्या बोलें, क्या कहें, शिकायत करे, लड़े या रोए समझ नहीं पा रही थीं। आवाज का मतलब जानती थीं व्हील-चेयर सरका कमरे में ले गई।
इस अंतरंगता के पल की महक को त्रिपाठी जी बीच में जा खत्म नहीं करना चाहते थे। उन्होंने अंदर जाना उचित नहीं समझा। दरवाजा खोल बाहर जाने को हाथ बढ़ाया ही था कि नीमा जी के चिल्लाने की आवाज से अंदर दौड़ पड़े। देखा, तो जोशी जी की गर्दन एक तरफ लटकी हुई थी, दिल की धड़कन रुक चुकी थी और नीमा जी....रोते-रोते बार-बार यही कहती रहीं, "भाईसाहब इंतजार खत्म हो गया। अब कभी उनकी याददाश्त वापस नहीं आएगी। "
