इंतज़ार का नाम ज़िंदगी
इंतज़ार का नाम ज़िंदगी
अक्टूबर की हल्की ठंड ने जैसे ही दस्तक दी, मैंने स्वेटर निकाला और पार्क की ओर निकल पड़ा। सुबह-सुबह की ताजी हवा, बिखरी धूप, और पत्तों की सरसराहट में एक सुकून था। वहीं, हमेशा की तरह, पार्क की उसी पुरानी बेंच पर बैठे थे भट्टाचार्य जी — मेरे बचपन के साथी, पड़ोसी, और आज उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच चुके इंसान, जिनकी मुस्कुराहट अब वक्त की सिलवटों में भी नहीं खोती। मैंने पास जाकर कहा, “कैसे हैं आप, भट्टाचार्य जी?” वो बोले, “अरे! आज जयंत आ रहा है। भारतीय क्रिकेट टीम में उसका चयन हो गया है। बोस बाबू की बेटी से उसकी शादी तय करनी है। मैं तो बहुत खुश हूं।” उनकी आंखों की चमक बच्चों जैसी थी। यह बात मैं बीते बीस वर्षों से सुन रहा हूं — हर बार उतनी ही गर्मजोशी, उतनी ही उम्मीद के साथ। लेकिन हकीकत कुछ और है। जयंत अब पैंतालीस का हो चुका है। अमेरिका में रहता है। तीन बार शादी कर चुका है, एक बेटा है जो देहरादून के हॉस्टल में पढ़ता है। पिछले कुछ सालों में वह भट्टाचार्य जी से मिलने भारत आता तो है, लेकिन एक औपचारिक मिलन से अधिक कुछ नहीं। भट्टाचार्य जी को अल्ज़ाइमर है — एक मस्तिष्क रोग जिसमें स्मृति धीरे-धीरे धुंधली होती जाती है। उनके लिए वक्त जैसे ठहर गया है। उनका बेटा अब भी रणजी ट्रॉफी का कप्तान है, और हर दिन वह “आज घर आ रहा है।” इस दोहराव में दर्द है या सुकून? मैं अक्सर सोचता हूं — क्या वो ज़्यादा सुखी हैं, जो अपनी बीती खुशियों के भ्रम में जी रहे हैं, या हम, जो हर सच्चाई को रोज़ झेल रहे हैं? मैंने भी जीवन अपने बच्चों के लिए जीया। सपने, इच्छाएं, सब पीछे छूट गए। आज वही बच्चे कहते हैं — “आपको कुछ नहीं आता।” मेरी समझदारी पर सवाल उठते हैं। उनकी बातों में शिकायत नहीं, एक ठंडापन है — जो रिश्तों को भीतर से कुरेदता है। कभी-कभी मन कहता है, काश मेरा मस्तिष्क भी भट्टाचार्य जी जैसा हो जाता। न दर्द महसूस होता, न ताने चुभते, न अस्वीकार का बोझ उठाना पड़ता। पर तभी उनका चेहरा देखता हूं। उस मुस्कान के पीछे का खालीपन दिखता है। वो इंतज़ार जो कभी खत्म नहीं होता, वो सपना जो कभी सच्चा नहीं हुआ, और वो दुनिया जो उन्होंने अपने भीतर ही रच ली है। क्या वास्तव में स्मृति खो देना ही सुकून है? शायद नहीं। क्योंकि यही पीड़ा, यही अस्वीकार, यही अनुभव हमें मनुष्य बनाते हैं। भट्टाचार्य जी अपने बेटे के लौटने का इंतज़ार कर रहे हैं, और मैं उस पल का, जब मेरे बच्चे मेरी आंखों में झांककर कहें — “हमें आपकी ज़रूरत है, पापा।” हर किसी के जीवन में कोई न कोई इंतज़ार पलता है। किसी को प्रेम का, किसी को माफी का, किसी को स्वीकृति का, किसी को सिर्फ़ एक बात सुनने का — "आपका होना ज़रूरी है।” शायद यही ज़िंदगी है — इंतज़ार। वो इंतज़ार जो अधूरा है, लेकिन हमारे भीतर सबसे संपूर्ण भावनाओं को जगाता है। वो इंतज़ार ही है जो जीवन को गति भी देता है और ठहराव भी। भट्टाचार्य जी की स्मृति चली गई है, लेकिन उनका दिल आज भी धड़कता है उस बेटे के लिए जो शायद अब कभी वैसे लौटेगा नहीं। और मैं — एक स्मृति से भरे इंसान — आज भी उम्मीद करता हूं, कि मेरी ज़रूरत फिर से महसूस की जाएगी। शायद एक दिन, जब मैं बेंच पर अकेला बैठा होऊंगा, मेरे बच्चे आकर कहेंगे — “पापा, चलिए आज पार्क चलते हैं। आपकी कहानी अधूरी रह गई थी।”
