खिड़की के उस पार
खिड़की के उस पार
शब्द बहुत साधारण थे, पर मेरे भीतर सुनामी उठ चुकी थी।
मेरा गला सूख गया, आँखें स्थिर रह गईं — जैसे समय वहीं रुक गया हो।
मैं जान ही नहीं पाई कि यह खालीपन कैसे भरूँगी।
मेरी सुबहें, मेरी प्रतीक्षा, मेरी चुपचाप चलती भावनाएँ — सब एकाएक निराधार हो गईं।
मेरे जीवन में कोई पुरुष मित्र नहीं था — न कोई सच्चा साथी, न कोई सहारा।
और शायद वह लड़का... उसने कभी मेरी आँखों में वो सवाल नहीं पढ़े, जो मैं हर दिन बिना बोले पूछती थी।
हमारी बातचीतें सीमित थीं — शिष्ट, औपचारिक, लेकिन मेरे लिए वह हर मिलन एक अनकहा संवाद बन चुका था।
शायद उसने कभी मुझे उस नज़रों से नहीं देखा।
या शायद, उसने देखा… लेकिन समझने की हिम्मत नहीं जुटाई।
और अब वह जा रहा था — एक नई दिशा में, एक नई दुनिया की ओर।
मैं वहीं खड़ी थी — अपनी अधूरी उम्मीदों की छाँव में,
जहाँ उसका नाम अब बस एक पुरानी किताब की तरह रह गया था,
जिसे बंद करते वक़्त एक पन्ना हमेशा मुड़ा रह गया।
उस दिन मौसम कुछ अलग था।
हल्की-हल्की बारिश की फुहारें जैसे किसी अधूरी कविता की पंक्तियाँ बनकर गिर रही थीं।
बिजली की चमक और बादलों की गड़गड़ाहट से पूरा आकाश काँप रहा था।
हवा में एक बेचैन सिहरन थी, और घर के भीतर एक अजीब-सी चुप्पी।
माँ और बहन कहीं बाहर थीं।
घर की बत्तियाँ गुल थीं, और कमरे में अंधेरे की परछाइयाँ दीवारों पर कहानियाँ लिख रही थीं।
वह आया — अंतिम बार।
बरसात की बूँदों से भीगा हुआ, लेकिन उसकी आँखों में अब भी वही गर्मी थी —
जो पहली बार मुझे उसकी ओर खींच लाई थी।
हम दोनों चुप थे।
ना कोई औपचारिक संवाद, ना कोई उद्देश्य।
सिर्फ मौन था — लेकिन वह मौन भी बोल रहा था।
वातावरण जैसे हमारे भीतर की उलझनों को पढ़ रहा था।
हर बूँद, हर गरजता बादल, हर साँस, जैसे कह रहा हो —
"यह जीवन है, दो पल जी लो खुलकर।"
उस क्षण में, मैं अपने भीतर की सारी जर्जर सीमाओं को तोड़ चुकी थी।
मैंने उसे अपने करीब खींच लिया — बिना किसी शब्द, बिना किसी संकोच।
हमारी साँसें एक लय में बहने लगीं, और हम एक-दूसरे की आत्मा से मिलने लगे।
वह क्षण शब्दों से परे था —
ना वह प्रेम था जो परिभाषाओं में बंधा हो,
ना कोई अपराध था जो समाज के तराजू पर तौला जाए।
वह एक आत्मिक समर्पण था —
जिसमें न कोई वासना थी, न कोई योजना, सिर्फ मौन और मिलन था।
बारिश धीरे-धीरे थम रही थी,
लेकिन हमारी भीतर की हलचल उस शांति में भी जारी थी।
उस दिन हम दोनों ने जो साझा किया —
वह एक संबंध नहीं, एक स्मृति बन गया।
एक ऐसी स्मृति, जो वर्षों बाद भी बरसती है —
कभी आँखों में, कभी ख़्यालों में।
वह चला गया… एक नई ज़िंदगी की ओर,
लेकिन मेरे भीतर वह क्षण अब भी जीवित है —
जैसे कोई अधूरी कविता,
जिसका अंतिम शेर मैं आज भी हर बारिश में महसूस करती हूँ।
वह चला गया…
बिना कुछ कहे, बिना कुछ पूछे।
और मैं — उस क्षण — अपने ही मौन में जड़वत खड़ी रह गई,
मानो समय ने मेरे चारों ओर एक अदृश्य घेरा बना दिया हो, जिसमें केवल मेरे धड़कते प्रश्न बचे थे।
उसकी चुप्पी ने जैसे मेरे भीतर एक तूफ़ान जगा दिया था —
एक ऐसा तूफ़ान, जो प्रेम और नैतिकता की सीमाओं को छूकर लौट आता था।
मेरे मन के किसी कोने में उठता यह सवाल,
"क्या यह प्रेम था? या सिर्फ़ एक भावुक क्षण?"
हर उत्तर को निगल जाता था।
उस दिन की अनुभूति कोई साधारण स्पर्श नहीं थी।
वह आत्मा के धरातल पर हुआ संवाद था,
जहाँ शरीर मौन थे और भावनाएँ मुखर।
मैंने पहली बार जाना कि कभी-कभी प्रेम भी प्रश्न बनकर आता है —
निष्कलंक नहीं, बल्कि संशयों में डूबा हुआ।
मैं स्वयं से लड़ रही थी।
क्या यह जो घटा, वह नैतिक था?
या फिर, बस उस पल की एक सहज प्रतिक्रिया —
जिसे समाज की परिभाषाओं में बाँधना संभव नहीं था।
यह वह प्रेम नहीं था, जिसे खुले तौर पर स्वीकार किया जाए।
यह वह प्रेम था जो चुपचाप दिल में उतर जाता है,
और वहाँ एक गुप्त कोना बना लेता है —
जहाँ हर साँस एक अपराध-सा लगता है, फिर भी वह साँस जीने से मना नहीं करती।
मैंने महसूस किया कि यह सिर्फ़ भावनाओं की कहानी नहीं है —
यह संघर्ष है,
उस सीमा रेखा पर खड़े होने का,
जहाँ आत्मा की पुकार और सामाजिक मर्यादा की लकीरें एक-दूसरे से टकराती हैं।
मैंने खुद को एक कसौटी पर पाया —
जहाँ मेरा स्त्रीत्व, मेरी नैतिकता और मेरा प्रेम
तीनों अलग-अलग दिशाओं में खींच रहे थे।
मैं सोचती रही,
क्या प्रेम हमेशा नैतिक होना चाहिए?
या नैतिकता के बाहर भी उसका कोई अस्तित्व हो सकता है?
शायद इस कहानी का कोई साफ़ अंत नहीं है।
क्योंकि यह एक खोज है —
प्रेम की, सही और गलत की,
और सबसे ज़्यादा — ख़ुद की।
जो उस दिन हुआ, वह न तो पूरी तरह से स्वीकार्य था,
न पूरी तरह से निंदनीय।
वह बस एक सच था —
जो मेरी आत्मा के दर्पण पर उकेरा गया,
और मैं चाहकर भी उसे मिटा नहीं सकी।
अब भी जब मैं अकेले बैठती हूँ,
उसका चेहरा नहीं,
पर उस एक क्षण का मौन मुझे सुनाई देता है —
जो सब कुछ कह गया था…
बिना कहे।

