किस्मत की अधूरी मुलाक़ात
किस्मत की अधूरी मुलाक़ात
मेरी पोस्टिंग कुछ ही दिन पहले ही एक नए ज़िले में जिलाधिकारी के पद पर हुई थी। नई-नई ज़िम्मेदारियों का उत्साह मन में था, और अपने कार्यक्षेत्र को नज़दीक से देखने और समझने का जोश भी। उसी कड़ी में उस दिन मैं कार से एक गाँव के निरीक्षण के लिए निकल पड़ा। आसमान में काले बादल पहले से ही मंडरा रहे थे, लेकिन यह अंदाज़ा नहीं था कि मौसम इतनी जल्दी बिगड़ जाएगा।
शहर से गाँव की ओर बढ़ती हुई कच्ची सड़क धीरे-धीरे वीरान होती जा रही थी। खेतों के बीच से गुज़रते हुए जब हम लगभग गाँव के नज़दीक पहुँचे ही थे, तभी अचानक कार से अजीब-सी आवाज़ आई। ड्राइवर ने तुरंत कार रोक दी। बोनट खोला गया, पर जल्दी ही साफ़ हो गया कि गाड़ी अब आगे नहीं बढ़ सकती।
इसी बीच, मानो आकाश ने भी हमारी परीक्षा लेने की ठान ली हो। देखते ही देखते मूसलधार बारिश शुरू हो गई। हवा ऐसी चल रही थी मानो बरसों का ग़ुस्सा निकाल रही हो। हम दोनों ने चारों ओर नज़र दौड़ाई। सामने दूर कुछ घरों की झलक दिखाई दी। यह कोई छोटा-सा गाँव था, जहाँ ज़्यादातर मकान कच्ची मिट्टी से बने हुए थे।
हमने छाते निकालने का सोचा, पर बारिश इतनी तेज़ थी कि छाता किसी काम का नहीं रहता। मजबूरी में हम दोनों भीगते हुए गाँव की ओर दौड़ पड़े। गलियों में कीचड़ ऐसा फैला था कि हर क़दम पर पैर धँसने लगे। कपड़े और जूते पूरी तरह भीग चुके थे।
आख़िरकार, एक छोटे-से मकान के सामने पहुँचकर हम रुक गए। घर के बाहर मिट्टी और लकड़ी का बना एक छोटा-सा शज्जा (बरामदा जैसा हिस्सा) था। हमने वहीं शरण ली। छत से पानी की धार मोटे रस्सों की तरह गिर रही थी। हम दोनों बरामदे में खड़े होकर बारिश रुकने का इंतज़ार करने लगे।
बरामदे के भीतर से मिट्टी और गोबर से लिपे फर्श की खुशबू आ रही थी। अंदर अँधेरे कमरे में कोई पुरानी लालटेन टिमटिमा रही थी। शायद घरवाले भी हमें देख रहे थे, पर झिझक के कारण बाहर नहीं निकले। हमें लगा जैसे इस छोटे से बरामदे ने हमें जीवन का सबसे बड़ा सुकून दे दिया हो — बाहर आकाश टूटकर बरस रहा था, और हम भीगते हुए उस छोटे से शरण-स्थल में खड़े थे।
मेरे लिए यह दृश्य किसी फ़िल्म जैसा था — एक जिलाधिकारी होकर गाँव की सच्चाई के बीच खड़ा होना, जहाँ की गलियाँ कीचड़ से भरी थीं, और लोगों के घर अब भी कच्ची मिट्टी से बने थे। उस पल मेरे मन में एक अजीब-सी अनुभूति हुई — जैसे यह बारिश मुझे मेरे असली कर्तव्य का बोध करा रही हो।
बरामदे में हम खड़े थे और बारिश थमने का नाम नहीं ले रही थी। तभी भीतर से लकड़ी का दरवाज़ा धीरे-धीरे खुला। सामने लगभग मेरी उम्र का एक व्यक्ति खड़ा था जिसके चेहरे पर झुर्रियाँ थीं लेकिन आँखों में एक आत्मीय चमक।
उसने हमें ऊपर से नीचे तक देखा और फिर धीमी आवाज़ में बोला
“बाबूजी, अंदर आ जाइए… बाहर खड़े रहेंगे तो और भीग जाएँगे।”
हम थोड़ी झिझक के साथ अंदर चले गए। मिट्टी से लीपे कमरे के कोने में एक मिट्टी का चूल्हा रखा था, जिस पर हल्की आँच बुझती-सी धधक रही थी। कमरे की दीवार पर एक टूटी हुई अलमारी थी, और फर्श पर बोरे बिछे हुए थे। साधारण-सा घर, लेकिन भीतर गज़ब की गर्माहट।
ड्राइवर ने धीरे से कहा,
“साहब, यहाँ तो बहुत ग़रीब लोग रहते हैं।”
उस व्यक्ति ने भीगी मिट्टी के आँगन से एक पुरानी चारपाई खींची और उस पर बैठने का इशारा किया। मैं धीरे से बैठ गया। चारपाई की रस्सियाँ कुछ ढीली थीं, लेकिन उसमें एक अजीब-सी आत्मीयता थी — जैसे थकान और अनजानेपन के बीच किसी पुराने साथी का सहारा मिल गया हो।
वह व्यक्ति थोड़ी झिझक के बाद बोला,
“बाबूजी, आप शायद हमारे जिले के जिलाधिकारी हैं?”
उसके स्वर में न तो भय था और न ही अत्यधिक आदर, बस एक सादा-सा यक़ीन था।
मैंने हल्की मुस्कान के साथ उसकी ओर देखा।
“हाँ, मैं ही हूँ,” मैंने उत्तर दिया।
उसने तुरंत भीतर की ओर देखा और कहा,
“यदि आप उचित समझें तो मैं अपनी पत्नी से आपके लिए चाय बनाने को कह दूँ?”
मैंने स्वीकृति में सिर हिला दिया। उसके चेहरे पर एक संतोष की लहर दौड़ गई। उसने अंदर जाकर अपनी पत्नी से कुछ कहा, और थोड़ी देर में चूल्हे पर पानी चढ़ने की हल्की-सी खटपट सुनाई देने लगी। मिट्टी, भीगी लकड़ियों और चूल्हे की धुएँ की महक वातावरण में घुलने लगी।
मैं चारपाई पर बैठा-बैठा अचानक खो गया। न जाने क्यों मुझे अपना बचपन याद आने लगा।
याद आया कि मेरी परवरिश भी ऐसे ही गाँव में हुई थी। मिट्टी की वही खुशबू, वही कच्चे घर, और बरसात में गलियों का वही कीचड़। मैं भी बरसों पहले ठीक इसी तरह की चारपाई पर बैठकर दूध-भात खाया करता था। गाँव का आँगन, बैलों की घंटियाँ, और माँ की डाँट—सब कुछ एक-एक कर आँखों के सामने जीवित हो उठा।
लेकिन फिर स्मृतियों का सिलसिला बदल गया। याद आया कि मैं पढ़ाई में अच्छा था। गाँव के छोटे-से विद्यालय से पास करके शहर चला गया। उस दिन पूरे गाँव ने मुझे विदा किया था, मानो उनका कोई बेटा आगे बढ़ रहा हो।
फिर समय ऐसा दौड़ा कि गाँव पीछे छूट गया। हाई स्कूल, कॉलेज, प्रतियोगी परीक्षाएँ। रात-रात भर जागकर पढ़ना, किताबों के बीच सपनों को सँवारना। आई.आई.टी. से इंजीनियरिंग, और फिर उसी सपने की पराकाष्ठा—यूपीएससी क्लियर करना। आई.ए.एस. बनकर देश की सेवा करना।
इन सबके बीच कभी गाँव की तरफ पलटकर नहीं देखा। मानो जीवन की दौड़ में पीछे छूटा वह संसार किसी धुँधली स्मृति में कैद हो गया हो।
आज अचानक, इस छोटे-से गाँव के इस साधारण-से घर में बैठकर मेरे भीतर का वही बच्चा जाग उठा। बरसों पहले मिट्टी के आँगन में खेलते हुए जिस बच्चे ने किताबों के पन्नों में भविष्य खोजा था, वह आज अचानक मेरी आँखों के सामने खड़ा था।
जैसे ही वह औरत घूँघट डालकर चाय लेकर आई और मेरे सामने गिलास रखा, मेरी नज़र अनायास ही उसके चेहरे पर टिक गई। और तभी मानो समय ठहर गया।
मैं अवाक रह गया। यह चेहरा… यह वही था!
वह मेरी पहली प्रेमिका थी। कॉलेज के दिनों में जिससे मेरा मन गहरे से जुड़ा था। वह, जो मेरी कविता की प्रेरणा थी। वह, जिसकी आँखों में मुझे अपना पूरा भविष्य दिखता था।
उसके चेहरे पर अब उम्र और परिस्थितियों की हल्की रेखाएँ थीं, पर उसकी सुंदरता अब भी वही थी—साधारण किन्तु दिल को छू लेने वाली। गेहुँआ रंग, बड़ी-बड़ी झील-सी आँखें, जिनमें बरसों पुरानी मासूमियत अब भी झलक रही थी। कपड़ों का सादा अंदाज़, किन्तु चाल-ढाल में वही कोमलता। बरसों बाद भी उसका आभा मंडल मेरी साँसों को थाम लेने वाला था।
मेरे मन में अतीत की परतें खुलने लगीं।
मुझे याद आने लगा—वो कॉलेज की लाइब्रेरी का कोना, जहाँ हम घंटों बैठा करते थे। वह धीरे-धीरे नोटबुक में कुछ लिखती रहती और मैं चोरी-चोरी उसे देखता। उसकी हँसी… हल्की, संकोची, लेकिन ऐसी कि जैसे पूरा कमरा रोशनी से भर गया हो।
वो बरगद के पेड़ के नीचे बैठकर की हुई लंबी बातचीतें—जहाँ हम अपने भविष्य की योजनाएँ बनाते। मैंने उसे कितनी बार कहा था,
“मैं बड़ा आदमी बनूँगा… और तब तुम्हें अपने जीवन में रानी की तरह रखूँगा।”
वह मुस्कुराकर कहती,
“तुम्हें पढ़ाई से ही फुर्सत नहीं मिलती, और मुझे रानी बनाओगे?”
हम दोनों ठहाका लगाकर हँस पड़ते।
मुझे वे संध्याएँ भी याद आईं जब हम कॉलेज के बाद गंगा घाट तक पैदल जाते। वह चुपचाप बहते पानी को देखती रहती और मैं उसकी आँखों की नमी को पढ़ने की कोशिश करता।
लेकिन फिर… भाग्य ने मोड़ लिया। मैं अपनी महत्वाकांक्षाओं में इतना उलझ गया कि गाँव और अतीत को पीछे छोड़ता चला गया। वह मेरे जीवन के किसी पन्ने पर छूट गई, और मैं अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता चला गया।
आज, बरसों बाद, वही औरत मेरे सामने खड़ी थी—एक साधारण ग्रामीण स्त्री के रूप में, अपने पति के लिए चाय बनाती हुई।
मेरे भीतर भावनाओं का ज्वार उमड़ पड़ा। मैं बोलना चाहता था, उसका नाम लेना चाहता था, पूछना चाहता था—“तुम यहाँ कैसे?” लेकिन गले से आवाज़ ही नहीं निकली।
उसकी नज़र एक पल के लिए मेरी आँखों से मिली। एक गहरी, असमंजस भरी दृष्टि। मानो वह भी मुझे पहचान गई हो… पर तुरंत उसने नज़र झुका ली और चुपचाप अंदर लौट गई।
मैं चारपाई पर बैठा, हाथ में चाय का गिलास लिए, काँपते मन से अतीत और वर्तमान के टकराव को महसूस करता रहा।
मैं चौककर लगभग हड़बड़ा गया,
“अरे… अदिति, आप? बहुत दिनों बाद मुलाक़ात हुई। मुझे तो यह भी पता नहीं था कि आपकी शादी हो गई है।”
मेरे स्वर में आश्चर्य, खुशी और कहीं न कहीं छुपा हुआ दर्द सब एक साथ घुलकर बाहर आ गया।
अदिति ने मेरी ओर देखा। उसकी आँखों में क्षणभर के लिए बरसों पुरानी चमक कौंधी, लेकिन तुरंत ही बुझ भी गई। उसके होंठों पर हल्की-सी मुस्कान आई, पर वह मुस्कान निस्तेज थी—जैसे किसी ने उसे ओढ़ने के लिए मजबूर कर दिया हो।
वह सामने खड़ी थी, परंतु उसकी देहभाषा ने साफ़ कर दिया कि समय ने उसके आत्मविश्वास को कहीं पीछे छोड़ दिया है। वह मुस्कुराई, लेकिन उसका चेहरा उस मुस्कान का बोझ नहीं उठा पा रहा था।
उसने धीरे से सिर झुका लिया। अपने पैर के अंगूठे से वह ज़मीन पर बनी गीली लकीरों को खुरचने लगी। मानो मिट्टी की वह सतह ही उसके भीतर छुपे हुए दर्द का आईना हो।
सामने ज़मीन पर पड़ा एक फटा हुआ अख़बार का टुकड़ा हवा से हिल रहा था। अदिति ने उसी पर अपनी आँखें गड़ा दीं, जैसे वह किसी गहरी शर्मिंदगी या अनचाहे सवाल से बच रही हो। उसका चेहरा पढ़ना मेरे लिए आसान नहीं था, लेकिन उसकी चुप्पी सब कह रही थी।
मैं उसे देखता रहा। याद आया, यही अदिति कभी कितनी आत्मविश्वासी थी। क्लास में जब कोई प्रश्न पूछता तो वह सबसे पहले हाथ उठाती। उसकी आँखों में हमेशा एक अलग-सी चमक रहती थी, जैसे उसे अपने भविष्य पर पूरा विश्वास हो।
और आज वही अदिति, मेरे सामने अपने पैर की उँगलियों से ज़मीन कुरेद रही थी।
मैंने गहरी साँस लेकर फिर कहा,
“अदिति, मैं… मैं सचमुच विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ कि आपसे इतने सालों बाद यहाँ, इस परिस्थिति में मुलाक़ात होगी। कभी सोचा नहीं था…”
वह अब भी चुप थी। उसके होंठ हिलते तो थे, पर आवाज़ बाहर नहीं निकल पा रही थी।
कुछ पल बाद उसने बेहद धीमे स्वर में कहा,
“ज़िंदगी बहुत बदल गई है… साहब।”
“साहब”—उसके मुँह से यह संबोधन सुनकर मेरे दिल में कुछ टूट-सा गया। वह जो कभी मुझे सिर्फ़ मेरे नाम से पुकारती थी, आज उसी के मुँह से यह औपचारिक शब्द सुनना मेरे लिए किसी तीर की तरह चुभ गया।
उसके शब्दों और चुप्पियों के बीच मुझे साफ़ महसूस हो रहा था कि उसके जीवन की धारा उस दिशा में बह गई थी, जिसकी कल्पना हमने कभी नहीं की थी।
मैंने चाय का गिलास हाथ में थामा, लेकिन मेरे भीतर का मन बेचैन था। न जाने कितने अनकहे प्रश्न मेरी आँखों में तैर रहे थे, और न जाने कितने उत्तर उसकी चुप्पी में छिपे थे।
मैंने अदिति के घर से विदा ली। बाहर बारिश थम चुकी थी, पर ज़मीन अब भी भीगी हुई थी। गली के कीचड़ में चलते हुए मेरे पैर भारी हो रहे थे, मानो उनमें सिर्फ़ मिट्टी नहीं, अतीत की यादों का बोझ भी चिपक गया हो।
मेरे मन में हलचल थी। बरसों बाद अदिति से मिलना—और वह भी इस रूप में—जैसे भाग्य ने मेरे सामने आईना रख दिया हो। मैं सोच रहा था, किस्मत आखिर कितनी बेरहम होती है।
मैंने सोचा—कभी मैं और अदिति दोनों सपने देखा करते थे। एक सुनहरे भविष्य के, एक ऐसी ज़िंदगी के जहाँ संघर्ष कम और खुशियाँ अधिक होंगी। मैं अपने सपनों के पीछे भागा, सफल भी हुआ, लेकिन इस सफलता की दौड़ में मैंने कभी पलटकर यह नहीं देखा कि अदिति का क्या हुआ।
आज वह मिली भी तो एक साधारण ग्रामीण गृहिणी के रूप में—उसकी आँखों में अनकहे दुख, चेहरे पर थकी मुस्कान। यह देखकर मेरे भीतर एक प्रश्न गूंजता रहा:
क्या सचमुच किस्मत ही इंसान की ज़िंदगी तय करती है, या हम अपनी चुप्पियों, अपने फैसलों से उसकी डोर खुद काटते-बुनते हैं?
अगर उस समय मैंने उसे अपने जीवन में जगह दी होती… अगर मैं सिर्फ़ महत्वाकांक्षा के पीछे भागने के बजाय उसके साथ खड़ा रहता… तो क्या आज उसका जीवन ऐसा होता? या फिर, क्या यह सब पहले से ही लिखा हुआ था—किस्मत की उस किताब में, जिसे कोई मिटा नहीं सकता?
मेरे भीतर एक पीड़ा उठ रही थी। सफलता और असफलता का फर्क आज पहली बार इतना नग्न होकर सामने आया। मैं जिलाधिकारी था, चमक-दमक और सम्मान से भरा हुआ जीवन मेरे पास था। और वही अदिति—कभी मेरे दिल की धड़कन रही—आज अपने पति के लिए चाय बनाकर एक छोटे-से कच्चे घर में ज़िंदगी काट रही थी।
मैं सोचता रहा—किस्मत कितनी विडंबनापूर्ण होती है।
एक ही समय में जन्मे लोग अलग-अलग राहों पर निकल पड़ते हैं। कोई ऊँचाई पर पहुँच जाता है, तो कोई साधारण जीवन की तपिश में झुलसता रह जाता है। और कभी-कभी तो ऊँचाई पर पहुँचा व्यक्ति भी भीतर से उतना ही अकेला और अधूरा रह जाता है, जितना वह, जो साधारण जीवन जी रहा है।
मेरे लिए यह मुलाक़ात किसी सज़ा से कम नहीं थी। यह मुलाक़ात मेरी आत्मा को झकझोर रही थी। मैं चलते-चलते सोच रहा था—
शायद हम सबकी ज़िंदगी किसी अदृश्य लेखक की लिखी हुई कहानी है।
और उस कहानी में हमारे हिस्से की मुलाक़ातें, जुदाइयाँ और अधूरे सपने पहले से तय कर दिए गए होते हैं।
बरसों पहले छूटा हुआ प्यार, आज फिर सामने आया—लेकिन उस रूप में, जिसे मैं कभी स्वीकार भी नहीं कर सकता। यह एक ऐसा तीर था जो दिल को छूकर भीतर गहरा घाव दे गया।
उस मुलाक़ात ने मुझे यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि ज़िंदगी के फैसले, महत्वाकांक्षाएँ और सफलता की दौड़ हमें कहाँ ले जाती हैं। और किस तरह कभी-कभी हमारी चुप्पियाँ, हमारी प्राथमिकताएँ, उन लोगों की ज़िंदगियाँ बदल देती हैं जो कभी हमारे दिल का हिस्सा रहे थे।ज़िंदगी कभी भी वैसी नहीं होती जैसी हम सोचते हैं।
हम अपने सपनों की गठरी लेकर आगे बढ़ते रहते हैं, लेकिन रास्ते में भाग्य कई ऐसे मोड़ देता है जो हमारी कल्पना से कहीं अलग होते हैं।
“किस्मत के अधूरे पन्ने” उसी टकराहट की गाथा है—
सपनों और वास्तविकताओं की,
भाग्य और निर्णयों की,
प्यार और जुदाई की।
यह कहानी सिर्फ़ मेरी नहीं, उन सभी लोगों की है जिन्होंने कभी जीवन से कुछ और चाहा था, पर पाया कुछ और। यह उन अधूरे पन्नों की आवाज़ है, जिन्हें हम अक्सर अपने दिल में दबाकर रख देते हैं।
मुझे उम्मीद है कि यह कहानी आपको भी अपने भीतर झाँकने और किस्मत के खेल को नए दृष्टिकोण से समझने के लिए प्रेरित करेगी।
मैं भारी कदमों से आगे बढ़ता रहा, और मन में बस यही गूँजता रहा—
“किस्मत… तेरे खेल कितने अजीब हैं।”
