हाँ (एक स्त्री की पुनर्यात्रा और शब्दों में बसी आत्मा की कहानी)
हाँ (एक स्त्री की पुनर्यात्रा और शब्दों में बसी आत्मा की कहानी)
(एक स्त्री की पुनर्यात्रा, एक अधूरे प्रेम का स्पर्श, और शब्दों में बसी आत्मा की कहानी)
सर्दी का मौसम था।
आसमान में हल्का कोहरा तैर रहा था, जैसे यादों की कोई पुरानी चादर धरती पर बिछी हो। ठंडी-ठंडी हवाएं बालों से खेलती हुई भीतर तक उतर रही थीं, और हर झोंका नीलम के भीतर दबी कोई भूली-बिसरी अनुभूति को जगा देता था।
शाम के पाँच बजे थे।
दिन की आख़िरी सुनहरी किरणें अब धुंध से छनकर ज़मीन पर गिर रही थीं। अंधेरा धीरे-धीरे दरवाज़ा खटखटाने लगा था, और बालकनी में बैठी नीलम चाय की प्याली हाथ हाथ में लिए उन पंछियों को देख रही थी जो दूर क्षितिज में गहरे होते आसमान को चीरते हुए अपने घर लौट रहे थे।
उन्हें देखना उसे अच्छा लगता था।
हर शाम वो यही सोचती — काश, मैं भी किसी घोंसले की ओर लौट पाती… कोई ऐसा घर जहाँ मैं सिर्फ मैं होती। न किसी की माँ, न किसी की पत्नी, न रोटियों और राशन की सूची में उलझी स्त्री — बस नीलम... जो कभी चाँद को देख कर कविताएँ लिखा करती थी।
चाय की हर चुस्की जैसे उसे थोड़ी गर्माहट देती, थोड़ी और अकेली कर जाती।
तभी मोबाइल की घंटी बजी।
उसकी उंगलियाँ जैसे ठिठक गईं।
स्क्रीन पर नाम चमक रहा था — “राजीव सर”
और उस एक नाम ने उसके भीतर जैसे कोई पुरानी लहर जगा दी।
दिल धक से रह गया।
उंगलियाँ ठिठक गईं।
दिल की धड़कन हल्की सी तेज़ हो गई।
राजीव — वही जो कभी उसके कॉलेज के अंग्रेज़ी प्रोफेसर थे।
वही जिन्होंने एक दिन उसकी डायरी से निकाली एक कहानी पढ़कर कहा था — “तुम्हारे शब्दों में आत्मा है, नीलम। लिखना कभी मत छोड़ना।”
उस दिन के बाद, नीलम की दुनिया बदल गई थी।
उसे लगा था, उसके शब्द भी साँस लेते हैं।
लेकिन फिर ज़िंदगी आ गई।
उस एक वाक्य ने नीलम के भीतर कोई दरवाज़ा खोल दिया था।
पर उस दरवाज़े को फिर बंद करने में ज़िंदगी ने ज़्यादा देर नहीं लगाई थी।
शादी हुई।
बच्चे हुए।
घर की चारदीवारी में कई ज़िम्मेदारियाँ आईं, और एक अधूरी डायरी अलमारी के कोने में बंद हो गई — ठीक वैसे ही जैसे नीलम खुद।
वो डायरी अब भी वहीं थी।
कुछ अधूरी कविताएं, कुछ खुरदरे
मनोज अच्छा पति था — जिम्मेदार, शिष्ट, मगर भावनाओं से थोड़ी दूरी बनाए रखने वाला।
बच्चे हुए।
घर, गृहस्थी, सब कुछ था।
बस वो नीलम कहीं नहीं थी, जो शब्दों से दुनिया गढ़ा करती थी।
राजीव के कॉल ने जैसे सब कुछ फिर से खींच कर सामने रख दिया था।
उसने कॉल उठाया।
"हैलो, सर?"
वहीं परिचित गंभीरता, वही आत्मीयता भरी आवाज़ —
"नीलम… क्या मैं एक बात पूछ सकता हूँ?"
"जी, ज़रूर।"
"एक वर्कशॉप करवा रहा हूँ — Forgotten Voices नाम है।
उन महिलाओं के लिए जो कभी कुछ करती थीं, लिखती थीं, गाती थीं… पर अब भूल गई हैं कि वो कौन थीं।
तुम इसमें हिस्सा लोगी?"
नीलम चुप हो गई।
उसकी आँखों के सामने जैसे उसकी ही परछाईं खड़ी हो गई —
जिसने कभी बारिश में भीगते हुए प्रेम पर कविता लिखी थी,
जो पुरानी चिट्ठियाँ संभाल कर रखती थी,
जो अब हर सुबह बिना आईने में देखे रसोई में चली जाती थी।
राजीव की आवाज़ अब भी इंतज़ार में थी —
"नीलम?"
वो रो पड़ी — बिना आंसुओं के।
आँखें नम थीं, लेकिन भीतर एक सूखी ज़मीन पर पहली बूँदें गिरी थीं।
और फिर, बिना ज़्यादा सोचे, उसने कहा —
"हाँ…"
उस रात नीलम ने अलमारी खोली।
पुरानी डायरी निकाली, उस पर जमी धूल को फूंका —
जैसे वर्षों से जमा चुप्पियों को झाड़ रही हो।
पन्नों में उसने पाया —
वो अब भी जिंदा है।
कहीं-कहीं कांपती हुई, कहीं तड़पती हुई, पर मौजूद।
एक कविता निकाली —
“बंद अलमारी की वो औरत”
एक स्त्री की पुकार जो अपनी ही आवाज़ से अनभिज्ञ हो गई थी।
सुबह होते ही कविता टाइप की, भेज दी राजीव को।
कुछ ही देर में जवाब आया —
"नीलम, यह कविता नहीं, आत्मा की पुकार है। इसे पहली वर्कशॉप में पढ़ना।"
वर्कशॉप वाले कमरे में 12 और स्त्रियाँ थीं —
कोई पूर्व पत्रकार, कोई कथक नृत्यांगना, कोई चित्रकार, जिनके ब्रश अब बच्चों की नोटबुक तक सिमट चुके थे।
राजीव ने मुस्कराकर परिचय करवाया —
“और ये हैं — नीलम शर्मा। लेखिका। एक समय में बेहद संजीदा कहानियाँ लिखती थीं।”
नीलम चौंकी। "लेखिका?"
वो शब्द उसके लिए अब अनसुना-सा था।
राजीव बोले —
“नीलम, क्या आप शुरुआत करेंगी?”
हाथ काँपते हुए, पर हृदय स्थिर, उसने कविता पढ़नी शुरू की:
“मैं बंद अलमारी की वो औरत हूँ,
जो हर रेशमी साड़ी के पीछे एक अधूरी कविता छुपा आई है,
जो बच्चों की कॉपी में अपना नाम लिखकर रोई थी,
जो अब फिर से अपना नाम पुकारना चाहती है।”
कमरे में एक ऐसी चुप्पी छा गई जो सिर्फ़ महसूस की जा सकती थी।
पढ़ने के बाद जब वो बैठी, तो उसके पास बैठी 60 वर्षीय शोभा जी ने उसका हाथ थामा —
"तुमने मेरी आत्मा बोल दी।"
अब हर सप्ताहांत वर्कशॉप होती।
राजीव की बातें गूंजतीं —
"तुम्हारा डर ही तुम्हारा साहित्य है। लिखो, नीलम।"
नीलम लिखती रही —
रातों में, बच्चों के स्कूल जाने के बाद, चाय के बीच।
उसने ब्लॉग शुरू किया —
“नीलम की नर्म आवाज़”
पहली पोस्ट का शीर्षक था —
"ये आवाज़ खो गई थी… अब लौट आई है, काँपती हुई, लेकिन सच्ची।"
मनोज ने पहली बार ब्लॉग देखा, कुछ नहीं कहा।
फिर एक रात चुपचाप उसके लिए एक लैपटॉप लेकर आया।
"अब इतना लिख रही हो, मोबाइल की स्क्रीन से आंखें खराब हो जाएंगी।"
नीलम उसे देखती रही —
मनोज शब्दों से नहीं, इशारों से प्रेम जताता था।
और आज वो समझ रहा था कि यह लिखना केवल शौक नहीं, उसकी जीवनरेखा है।
एक दिन राजीव ने वर्कशॉप के बाद कहा —
“नीलम, तुम्हारे शब्द बदलते जा रहे हैं… अब उनमें सच्चाई के साथ साहस भी है।”
नीलम ने हँसकर कहा —
“शायद उम्र की देरी से जो डर छिपा था, अब वो निकलने लगा है।”
राजीव देर तक उसे देखता रहा।
फिर बहुत धीरे से कहा —
"तुम जानती हो, मैं सिर्फ़ तुम्हारे शब्दों का प्रशंसक नहीं रहा… कभी-कभी लगता है तुम्हारे मौन में भी कोई कविता रहती है — जो सिर्फ़ मुझे पढ़ने को मिलती है।"
नीलम सन्न रह गई।
उसके भीतर कुछ हिला, कुछ चटका —
शायद प्रेम… या सिर्फ़ वह स्वीकृति जिसकी उसे वर्षों से प्यास थी।
'Women Who Returned' कार्यक्रम का दिन।
सैकड़ों की भीड़।
मंच पर नीलम —
धीरे-धीरे अपनी कहानी कहती हुई, बिना रुके, बिना झिझके।
“मैं एक साधारण स्त्री हूँ —
पर मेरी ‘हाँ’ ने मुझे असाधारण बना दिया।
यह हाँ सिर्फ़ वर्कशॉप के लिए नहीं थी,
यह हाँ — खुद से मिलने के लिए थी।”
लोगों की आँखें नम थीं।
राजीव सामने बैठा था — मुस्कराता हुआ, आँखों में नमी के साथ गर्व।
कार्यक्रम के बाद राजीव उसके पास आया।
बोलने से पहले चुपचाप एक लिफ़ाफ़ा बढ़ाया — उसमें एक पुरानी कविता थी… नीलम की लिखी हुई।
नीलम ने कहा —
"आपने अब तक इसे संभाल कर रखा?"
राजीव ने धीमे स्वर में कहा —
"मैंने सिर्फ़ कविता नहीं, तुम्हें संभाल कर रखा है।"
नीलम की आँखों से आँसू बह चले।
फिर बोली —
"कुछ प्रेम अधूरा रहकर ही सबसे सुंदर होता है, राजीव सर।"
अब जब कोई नीलम से पूछता है —
"आपने फिर से कैसे शुरुआत की?"
वो मुस्कराकर कहती है —
"एक कॉल आया था… और मैंने बस ‘हाँ’ कह दिया।"

