Sarita Maurya

Inspirational

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Sarita Maurya

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इलायची का पौधा

इलायची का पौधा

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वह एक सामान्य परिवार में जन्मी पली बढ़ी खूबसूरती की मानो गढ़ी हुई परिभाषा थी। जो भी देखता उसके पिता से कहता कि अल्हड़ उम्र समाप्त होने से पहले ही बेटियों को घर से विदा कर देना चाहिये। माता कहतीं कि वे अपनी बेटी को पढ़ाना चाहती थीं लेकिन पिता देखते कि सिलाई कटाई करके किसी प्रकार से परिवार का गुजारा चल रहा था, वैसे भी एक अकेली तो थी नहीं बल्कि तीन अन्य बेटियां और एक बेटा यानी सात जनों के भरण पोषण के साथ ही बाकी सामाजिक जिम्मेदारियों को भी तो पूरा करना था। अतः अट्ठारह की होते ही उसका विवाह कर दिया गया। खूबसूरत सपनों को संजोये सखियों की किलकारियों के बीच फुसफुसाहट में कहे गये वाक्यों की खुमारी के साथ धड़कते ह्रदय से उसने ससुराल में कदम रखा और सभी रीति रिवाजों को हरसंभव निभाने का प्रयास किया। लेकिन कदम रखते ही मानो सपनों का महल धराशायी हो चुका था क्योंकि ठेठ शहरी परिवेश से निकल कर वह एक ऐसे बीहड़ गांव में आ गई थी जहां चार बजे उठना और लोटा लेकर बाहर निकलना अनिवार्य था। वही सास ननद जिनके सामने एक हाथ का घूंघट निकालकर शर्म लिहाज और आदर का पौधा लगाना था तो दूसरी तरफ उन्हीं के साथ दैनिक निवृत्ति के लिए जाकर सारी शर्म लिहाज दरकिनार भी करनी थी। प्रथा के अनुसार मंडप पूजन परंपरा के बाद उसे स्वादिष्ट भोजन से भरे थाल की माफिक सजाकर थाली में किसी के समक्ष परोसा जाना था तो वह रात भी आ ही गई। जाने क्यों उसका मन प्रसन्न नहीं था और बार-बार जाकर अपने घर की छोटी सी अंगनाई में हरी-भरी गमलों में उगी खूबसूरती और मधुमक्खियों पर जाकर अटक जाता था। अनजाने भय के बीच घूंघट में सिकुड़ी सिमटी प्रतीक्षा का जब अंत हुआ तो उसने पाया कि जीवनसाथी की उसकी अपेक्षाओं में से एक पर भी वो खरा नहीं उतरा था। देसी दारू के नशे ने उसकी आत्मा को उस रात छिन्न-भिन्न कर दिया। अभी कुछ ही दिन बीते थे कि पता चला उस लिजलिजे व्यक्तित्व में इतना भी दम नहीं था कि वह अपने पिता की बहू के प्रति वहशियत भरी नज़रों का विरोध कर पाता। बल्कि उसने खुले शब्दों में कह दिया कि वह पिता के समक्ष कुछ नहीं बोल सकता था। अनजाने माहौल में अपना समझे जाने वाले अपनों के बीच असुरक्षित सी वह स्वयं को बचाने की जिम्मेदारी कैसे उठा पायेगी उसकी समझ में नहीं आ रहा था। अंततः माता-पिता की दी गई सीख जिसमें कहा गया था कि ‘‘डोली में यहां से विदा हो रही हो और अर्थी में ससुराल से विदा होना’’ से इतर उसने एक मजबूत निर्णय लिया और एक रात चुपचाप अपना सामान पोटली में बाँधकर निकल गई, फिर कभी वापस नहीं आने के लिए।

पिता थोड़ा कसमसाये लेकिन हकीक़त जानकर चुप हो गये। अपने घर आंगन में उसने जाने से पहले इलायची के कुछ पौधे रोपे थे उसने देखा इन पौधों में अंकुर निकलने प्रारंभ हो गये थे। उस मुश्किल दौर में भी नन्हें नवांकुरों को देखकर फीकी ही सही लेकिन उसके चेहरे पर संतोष की मुस्कान भरी रेखा खिंच गई। उसने घर पर व्यर्थ बैठने से बेहतर कुछ करने की ठानी और एक पैकिंग फैक्ट्री में बनर्जी बाबू की सेक्रेट्री बन गई। स्वयं के अतीत की जद्दोजहद से निकलने की कशमकश में जाने कब बनर्जी बाबू उसे अच्छे लगने लगे और उसके अंदर जीने की ललक उन्होंने भर दी लेकिन विजातीय होने के कारण पिता जी किसी भी प्रकार से राजी नहीं हुए यहां तक कि उसका काम पर जाना बंद करवा दिया। हालात इतने बिगड़े कि पिता पुत्री में ठन गई। अंततः वही हुआ जो बेटियों के साथ होता है, कहां चलती है उनकी अपनी मर्जी? उसकी इलायची के पौधे में हरियाली तो थी लेकिन पौधे बेजान से थे, ऐसा लग रहा था मानो फूलने फलने की स्थिति में नही होंगे और बस उम्र भर यूं ही रहकर एक दिन पीले और फिर सूख कर भूरे हो जायेंगे फिर उन्हें गमले से हटा दिया जायेगा।

राम से उसकी मुलाकात एक दिन अचानक ही रास्ते में हो गई। ये वही राम थे जो उसे देखने आये थे लेकिन जिनके रिश्ते के लिए पहले भी पिता जी ने न कह दिया था। जाने राम की आंखों में क्या जादू था कि वह पहले भी उन्हें न नहीं कर पाई थी और अब भी जैसे उसके अंदर कहीं आशा थी कि यही वो शख्स था जो उसकी जीवन नैया को पार लगा सकता था। जैसे ही पिता जी को पता चला कि राम ने उसकी नौकरी एक टाइपिस्ट के तौर पर लगवा दी थी वैसे ही पिताजी ने उसपर सामाजिक पहरा लगा दिया। अब उसे राम के निर्णय का ही सहारा था। अंतर की कसमसाहट में जीवन जीने की ललक थी तो पिता द्वारा किये गये क्रोध का भान भी था। जिंदगी की हकीकतों से रूबरू वह जानती थी कि एक बार अगर उसने जीने की इच्छा समाप्त कर दी तो वह चलती फिरती मशीन बनकर रह जायेगी। इसलिये राम का साथ मिलते ही मानो उसके इलायची के पौधों में कलियां मुस्कुराने लगी थीं। आज अत्यंत ही सादे समारोह में बहुत ही करीबी परिजनों के समक्ष राम उसे अपना बनाने आये थे। हालांकि राम और उसके सिवा कोई और नहीं जानता था कि इस स्वीकृति के लिए उन्हें क्या कीमत चुकानी पड़ी थी? घर से विदा लेते समय उसे संतोषपूर्ण दुख था, और विदाई की बेला में भी उसकी नजर इलायची के नरम पौधों पर ही टिकी थी। उसने विदा से पहले उन पौधों को अपने आंचल में समेट लिया, अपनी निजता के आंगन में रोपने के लिए।

आज विवाह के 35 बसंत राम के साथ गुजर चुके हैं, इलायची के पौधों से फूल और फल बनने तक उसके आंगन में जो स्नेह की कलियां, प्रेमरस से पगे फूल और प्रेम परिणति स्वरूप किलकारियां पल्लवित हुईं कि उसका मन आंगन महक उठा। आज वह किसी की नानी बन चुकी है और अपने आंगन में इलायची के नये नवांकुरों को पुनश्च पल्लवित होते देख रही है। हां ये निश्चित है कि वह महक से भरे इन नवांकुरों को कभी मुरझाने नहीं देगी बल्कि इलायची में नवबीज बनने और पकने तक स्वतः स्वतंत्रता से जीने देगी। वह जानती है कि पौधा इलायची का हो या इंसान का उसे उसके वास्तविक स्वरूप में ही पुष्पित पल्लवित होने देना चाहिये। संतोष भरी मुस्कुराहट की रेखा उसे क्षितिज के उस पार डूबते सूरज पर भी अपने होठों की तरह ही नज़र आ रही है।



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