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V. Aaradhyaa

Romance Action Fantasy

3  

V. Aaradhyaa

Romance Action Fantasy

हम तुम्हारे लिए

हम तुम्हारे लिए

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"मैं आपसे एक बात स्पष्ट कह देना चाहती हूं राकेश जी!"


पूर्णिमा ने जब दृढ़ स्वर में राकेश से कहा तो राकेश ने भी अपने दोनों कान उसकी बात सुनने के लिए खड़े कर दिए।


"बोलिए पूर्णिमा जी ! मैं आपकी बात सुन रहा हूं!"


फिर पूर्णिमा ने अपने स्वर को थोड़ा मुलायम करते हुए कहा ,


"ऐसा है राकेश जी! कि शायद आपसे हमारे घर के कुछ हालात पता है और कुछ हालात शायद नहीं पता है । अभी हमारे घर की मैं ही एक अकेली अर्निंग मेंबर हूं। मेरी कमाई से ही घर चलता है और मुझे यह बताने में कोई झिझक नहीं है। पांच साल पहले मेरे पिता की मृत्यु हो गई थी। और उसके बाद से मैं ही घर संभाल रही हूं। अभी मेरे घर में मेरे दोनों छोटे भाई बहन पढ़ाई कर रहे हैं तो उनकी पढ़ाई का खर्चा और घर के बाकी खर्चे भी मुझे देखने पड़ रहे हैं। अगर मैं आपसे शादी करती हूं तो मेरी कमाई का जो हिस्सा मैं प्रतिमाह घर में देती आई हूं वह मुझे आगे भी देना पड़ेगा। तब तक जब तक मेरा भाई अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो जाता। अभी भुवन इंजीनियरिंग के अंतिम वर्ष में है। अमूमन तीन साल के अंदर वह घर की जिम्मेदारी उठाने लायक हो जायेगा। इसके अलावा अगर दहेज वहेज़ की आपलोगों की कोई मांग हो तो माफ कीजिएगा, मैं इसके खिलाफ हूं। अगर आपको मेरी यह शर्त मंजूर है तो मुझे इस शादी से कोई एतराज नहीं है!"


यह थी राकेश और पूर्णिमा की दूसरी मुलाकात।


पहली मुलाकात में राकेश के चाचा जी यह रिश्ता लेकर आए थे। और फिर पूर्णिमा के परिवार वालों से बात करने के बाद राकेश के परिवार वाले जब पूर्णिमा को देखने गए तो उन्हें पूर्णिमा हर तरह से पसंद आई थी। पूर्णिमा के लिए यह शादी जितनी ही खुशी का विषय थी उतनी ही उसके लिए यह जानना जरूरी था कि शादी के बाद भी वह अपने घर वालों की जिम्मेदारी निभा सकती है या नहीं ? और यह बात उसे अपने होने वाले जीवनसाथी राकेश से पूछना बहुत जरूरी था।


इसलिए पूर्णिमा ने अगले ही दिन अपनी तरफ से सामने से फोन करके राकेश को बुलाया था। और ऑफिस के सामने वाले कैफे में अपनी बात स्पष्ट रूप से उसके सामने रख दी थी।


हालांकि एक लड़की का इस तरह बिल्कुल आगे बढ़कर स्पष्ट रूप से अपनी बात रखना राकेश को थोड़ा अजीब लगा था । लेकिन अगले ही पल उसने खुद को संभाल लिया और पूर्णिमा की इस साफगोई की मन ही मन प्रशंसा की।


प्रकट रूप से राकेश इतना ही बोला,


"पूर्णिमा जी! आपकी बात बहुत सही है। और मैं आपके स्पष्टवादिता की तारीफ करता हूं। लेकिन एक बार इस बारे में मुझे अपने परिवार वालों से भी बात करनी पड़ेगी। ताकि शादी के बाद ना तो आपको इस बारे में कुछ ताने सुनना पड़े और ना मुझे ऐसा महसूस हो कि यह शादी करके हम दोनों ने एक दूसरे के प्रति न्याय नहीं किया है!"


और....उस दिन तो दोनों की मुलाकात वहीं खत्म हो गई। और पूर्णिमा ने मन ही मन समझ लिया क्या एक या दो दिन के अंदर राकेश की तरफ से इस रिश्ते के लिए ना का जवाब आ जाएगा।


....कोई नहीं....


वह इस बात के लिए अपने आप को मन ही मन तैयार कर चुकी थी। इसके पहले भी दो-तीन रिश्तो में उसने अपनी बात स्पष्ट की थी और लड़के वालों की तरफ से ना आ गया था। हां राकेश उसे कुछ ज्यादा सुलझा हुआ और समझदार लगा था।


लेकिन वह यह भी जानती थी राकेश के परिवार वाले इस बात के लिए शायद ना माने।


इसके छः दिन बाद...


रविवार दिन था। और पूर्णिमा अपने बाल सुखाने के लिए टेरस पर बैठी थी कि तभी उसने देखा गेट पर राकेश के परिवार वाले खड़े हैं। और साथ में राकेश के पिता एक टोकरी में शगुन का सामान लेकर भी आ रहे हैं। वह दौड़ कर अंदर आई। उसने पलांश में सोचा... अब तो कपड़े बदलने या बनाव श्रृंगार का भी समय नहीं और काफ्तान में ही जाकर उनसे मिलकर उन्हें घर के अंदर लेकर आई।


राकेश की मां आभा जी को पूर्णिमा की यह आदत बहुत अच्छी लगी कि बनाव श्रृंगार से परे उसने दौड़कर दरवाजे के पास आकर उनका स्वागत किया। और बिल्कुल सहज भाव से वह सब से मिल रही थी। उन्हें लगा कि उनके समझदार बेटे राकेश के लिए यह सुलझी हुई लड़की ही सही रहेगी। और साथ ही जो लड़की अपने घर अपनी माता और भाई बहनों के प्रति इतनी जिम्मेदारी महसूस कर रही है , वह जरूर एक जिम्मेदार इंसान है और एक जिम्मेदार बहू भी साबित होगी।


फलदान की रस्म के समय पूर्णिमा की छोटी बहन ने उसे बहुत ही सुंदर तरीके से सजा दिया था। गुलाबी साड़ी और छोटी सी मैरून कलर की बिंदी में एकदम से पूर्णिमा का रूप निखार आया था। राकेश ने अब तक दो बार पूर्णिमा को देखा था। लेकिन आज जब उससे उसकी राकेश की शादी तय हो रही थी तब वह उसे बड़ी ही अपनी सी लगी और बेहद प्यारी भी। एकदम से पूर्णिमा का रूप निखर आया था। शायद जिंदगी की धूप में तपकर जिम्मेदारी निभाते निभाते पूर्णिमा के अंदर जो एक प्यारी सी लावण्यमई स्त्री खो गई थी, वह राकेश के प्रेम भरे नजर पड़ते ही लजा गई थी।


आज पूर्णिमा के अंदर की स्त्री जाग उठी थी और उसके अंदर एक प्रेम की भावना उपज रही थी और आंखों में लाल डोरे उभर आए थे। गाल रतनारे हो रहे थे। और वह राकेश की आंखों में आंख डालकर नहीं देख पा रही थी। शायद दोनों एक प्यारे से बंधन में बंध रहे थे। बाद में राकेश की माताजी आभा जी ने पूर्णिमा को गले लगाया और कहा,


" राकेश ने ज़ब हमें तुम्हारे बारे में बताया तो हमें बहुत खुशी हुई कि तुम एक जिम्मेदार लड़की हो। और एक जिम्मेदार बेटी भी। हमें लगा जो लड़की अपनी सारी जिम्मेदारी समझती है वह इस पावन परिणय से संबंधित जिम्मेदारी भी अच्छी तरह समझेगी... कि... विवाह सिर्फ दो लोगों की के बीच का रिश्ता नहीं होता बल्कि दो परिवार के बीच का रिश्ता होता है। और मुझे लगा कि तुम दोनों परिवार के रिश्ते के बीच की कड़ी बनोगी। और इस रिश्ते को समझदारी से और बहुत ही जिम्मेदारी के साथ संभालकर आगे ले चलने में तुम्हारा बहुत महत्वपूर्ण योगदान होगा। इसलिए मैंने भी यही चाहा कि तुम हमारे राकेश की बहू बनकर हमारे घर आ जाओ!"


इतना कहकर आभा जी ने जब पूर्णिमा को कंगन पहनाया तो पूर्णिमा की मां की आंखों में आंसू थे ।और वह मन ही मन में भगवान को धन्यवाद कह रही थी। जिन्होंने उनकी निस्वार्थ बेटी की झोली में खुशियां और हमसफर का प्यार भर दिया था।

सच...कुछ बातें अगर शादी से पहले ही स्पष्ट कर दिए जाएं तो शादी के बाद जिंदगी में गलतफहमियां और परेशानी काफी हद तक कम हो जाती है। और जीवनसाथी को एक दूसरे को समझने में आसानी होती है। इतना ही नहीं ससुराल और मायके के बीच में भी एक बिल्कुल सुलझा हुआ रिश्ता पनप सकता है ,अगर शादी से पहले दूल्हा और दुल्हन अपनी बातें स्पष्ट रूप से सामने रखें और कुछ ना छुपाए।

, क्योंकि पूर्णिमा ने राकेश और उसके परिवार वालों से कुछ भी नहीं छुपाया था इसलिए शादी के बाद जब वह अपनी सैलरी का एक हिस्सा अपने मायके में देती थी तब उसके ससुराल वालों को नागवार नहीं गुजरता था बाद में जब भवन की नौकरी लग गई तब पूर्णिमा की पूरी सैलरी लगभग उसके अपने लिए ही रहने लगी थी। राकेश एक बहुत ही सुलझा हुआ और अच्छा जीवनसाथी साबित हुआ था। दोनों के बीच में रिश्ते की इमानदारी थी और साथ निभाने का जज्बा। तभी उनकी शादी एक अरेंज मैरिज होकर भी लव मैरिज की तरह लगती थी। क्योंकि दोनों ने अपने बीच में किसी भी शक की गुंजाइश ही नहीं रखी थी

शादी के बाद राकेश आगे बढ़कर पूर्णिमा की जिम्मेदारी में हाथ बंटाता और हमेशा कहता कि," एक और एक ग्यारह भी हो सकते हैं। मैं तुम्हारा दोस्त भी बनूंगा, पति भी बनूंगा और हर कदम पर तुम्हारा साथ दूंगा!"


यह सुनकर पूर्णिमा अभिभूत हो जाती और पति के प्यार से शरमाकर कहती,


" आप सही कहते हैं .... बहुत बार ऐसा भी होता है कि एक और एक ग्यारह भी होते हैं!"


प्रिय पाठकों,


जब पति पत्नी एक दूसरे का साथ देते हैं और एक दूसरे की जिम्मेदारी में कंधे से कंधा मिलाकर चलते हैं तो जिंदगी का सफर आसान हो जाता है और बेहद खूबसूरत भी।


(समाप्त)



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