हिप्नोटाइज - 6
हिप्नोटाइज - 6
" तो तुम हो दिव्या शर्मा।" - पंकज जडेजा ने अपने आलीशान बंगले में दिव्या का स्वागत करते हुए कहा -" सुना है तुम्हारे लिए कोई काम मुश्किल नहीं है।"
" गलत सुना है।" - दिव्या बैठते हुए बोली -" मुश्किल है , पर असंभव नहीं।"
" पर जिस काम के लिये तुम्हें यहाँ बुलाया गया है , वह लगभग असंभव ही है।"
" तभी तो मुझे आना पडा।" - मुसकराते हुए दिव्या बोली।
" यह कौन है ?" - मिस्टर जडेजा ने साकेत की ओर देखते हुए पूछा।
रवि ने बताया -" यह साकेत है। हमारे साथ ही है काॅलेज में।"
" तुम अमर के बारे में कुछ जानना चाहोगी ?" - मिस्टर जडेजा ने पूछा।
" अमर अभी कहाँ होगा ?"
" पता नहीं।" - मिस्टर जडेजा ने बताया -" सुबह घर से निकलता है और देर रात तक आता है।"
" अच्छा !"
" वैसे रात को करीब 8 बजे के बाद वह ' राॅयल कैसीनो ' जाता है।" - रवि ने बताया।
साकेत ने कहा -" दिव्या! तुम्हें अमर के अतीत के बारे में जान नहीं लेना चाहिए ?"
" जब मैं अमर से मिलूंगी,तब उसी से पूछ लूंगी।"
" वो कभी नहीं बतायेगा।" - मिस्टर जडेजा और रवि एक साथ बोले।
" बतायेगा।" - साकेत बोला -" दिव्या को वो सब कुछ बतायेगा।"
" कैसे ?"
" पता नहीं, पर बतायेगा जरुर।" - दिव्या ने कहा -" अच्छा अंकल! अब हमें चलना चाहिये।"
" ओके।"
" जिन्दा है लाशें मुर्दा जमीं है,
जीने के काबिल दुनिया नहीं है,
दुनिया को ठोकर क्यों ना लगा दूं
खुद अपनी हस्ती क्यों ना मिटा दूँ।"
" मतलबी है लोग यहाँ पर,
मतलबी जमाना..."
- किशोर कुमार का एक दर्दभरा अफसाना अंधेरी रात के सन्नाटे के तोडते हुए अपना साम्राज्य फैलाने को आतुर था। लडखडाते कदम, मंजिल की परवाह किये बगैर जिधर को नसों में समाया हुआ नशा ले जाये, उधर ही चले जा रहे थे।
गिरते - पडते किसी तरह वह साया एक घर में दाखिल हुआ।
" आ गये ?" - घर के दरवाजे पर ही खडे अपने जवान बेटे के इंतज़ार में रातों की नींद को नकारते चिंतातुर मिस्टर पंकज जडेजा ने पूछा।
अमर कुछ भी बोलने की हालत में न था। किसी तरह दो- चार कदम बढाकर उसने अपने बेडरूम में प्रवेश किया और खुद को बिस्तर के हवाले कर दिया।
अगले दिन ब्रेकफास्ट के समय अमर, पिताजी को समझाने की कोशिश कर रहा था -" पिताजी! आप दिनभर अपनी व्यावसायिक समस्याओं से जूझते रहते है और रात को मेरे इंतज़ार में दो - दो बजे तक जागते है। इस तरह से तो आप बीमार पड़ जायेंगे, आपको ऐसा नहीं करना चाहिये।"
" अच्छा ?" - मिस्टर जडेजा ने हल्के से मुसकराते हुए कहा -" और तुम जो सिगरेट - शराब पीते हो, उससे तुम बीमार नहीं पडोगे ?"
" मेरे बीमार होने से कोई फर्क नहीं पडता।" - अमर ने उपेक्षा से कहा -" वैसे भी, ' मैं जिन्दा हूँ ' , यही बडी बात है।"
" ऐसी जिन्दगी से क्या फायदा ?" - चिल्लाते हुए मिस्टर जडेजा खडे हो गये, लेकिन अगले ही पल खुद को संयमित करते हुए बोले -" बेटा! क्यों अपनी जिन्दगी बर्बाद कर रहे हो ?"
" बर्बाद हम क्या करते खुद को,
जब अपनों ने ही कसर न छोडी।" - अमर भी उठ खडा हुआ।
पिता - पुत्र में हर रोज इसी तरह बहस होती रहती थी।
इसके बाद मिस्टर जडेजा ऑफिस चले जाते और अमर अपनी ' फरारी ' को जयपुर की सड़कों पर दौड़ाता फिरता।