हैप्पी दिवाली
हैप्पी दिवाली
दिवाली का समय, हर कोई योजना बनाता है कि धनतेरस के दिन कुछ न कुछ नया खरीदा जाए तो जिंदगी में शुभ ही शुभ हो।
हमारा छोटा सा मोहल्ला कुछ चंद मकान थे मेरे पड़ोस में मेरा ही सहकर्मी शर्मा जी। हम दोनों ही निजी क्षेत्र से अवकाश प्राप्त कर्मचारी, पेंशन के नाम पर एक नगण्य राशि जिससे महीने भर की दवाई भी खरीदा न जा सके। ओ तो अच्छा था कि कुछ जमा पूंजी बचा कर फिक्स कर दिए थे जिसके ब्याज से जिंदगी गुजार ही लेते हैं। मेरी कोई औलाद नहीं, शर्मा जी का एक पुत्र वो भी सरकारी विभाग में कार्यरत था।
शर्माजी के पुत्र की शादी धूमधाम से अभी हाल ही में संपन्न हुई। शर्मा जी के घर का वातावरण संतोषप्रद तो नहीं था पर ठीक ही था वो भी इसलिए की शर्मा जी बहुत ही समझदार, व्यवहारिक व स्वाभिमानी थे और उनकी हमेशा एक ही कोशिश होती कि उनके चलते किसी को कोई तकलीफ़ न हो।
यूं तो हमने अपने जीवन में कई दिवाली देखें हैं पर ये दिवाली मेरे लिए कुछ खास मायने रखता है।
दिवाली की सुबह अचानक मेरी नज़र शर्मा जी के घर पर पड़ी तो देखा कि एक नई गाड़ी शायद स्कूटी रही होगी, खड़ी थी। फिर कुछ समय बाद शर्मा जी ने मुझे आवाज दी। मै बाहर आया तो वो बोला
"देख मेरे बेटे ने मेरे लिए ये नई गाड़ी दिवाली के मौके पर गिफ्ट की है"
मुझे बहुत खुशी हुई क्योंकि कुछ दिन पहले की ही बात है कि शर्माजी बता रहे थे कि यार मुझसे अब इस पुरानी गाड़ी का किक नहीं मारा जाता, पैर में ऐंठन होने लगता है
मैंने कहा कि अपने बेटे से बात कर और एक नई सेल्फ स्टार्ट वाली गाड़ी खरीदने बोल
वो बोला
"मेरा बेटा हम बुड्ढा बुड्ढी को अच्छी तरह से देख रेख कर रहा है और वो इस घर के लिए पहले ही लोन लेे चुका है और शायद और गुंजाइश न हो कि मेरे लिए नई गाड़ी खरीद सके"
"तू एक बार पूछ तो लेे"
नहीं दिला पाया तो उसे तकलीफ़ होगी और न सुन कर उससे ज्यादा मुझे तकलीफ़ होगी
मैं सोचा चलो अच्छा है कि बाप की तकलीफ देख बेटा खुद ही संज्ञान लिया और गाड़ी मोड़ दी
"अबे कहां खो गया"
मैं वापस विचारों से बाहर आया और बोला यार तू बहुत किस्मत वाला है कि आज के जमाने में इतना समझदार व दूरदर्शी बेटा तेरे पास है। वो कुछ नहीं बोला पर उसके चेहरे पर एक गर्व कि रेखा जरूर खिंच गई थी।
फिर मुंह मीठा कर वापस अपने घर आया और मैं सोचने लगा कि मैं भी उसी परिस्थिति से गुजर रहा हूं जिससे शर्माजी गुजर रहे थे मैं भी अपने लिए एक सेल्फ स्टार्ट वाली गाड़ी चाहता था पर इस उम्र में गाड़ी लेने के स्थिति में नहीं था और उम्मीद की तो दूर दूर तक कोई गुंजाइश ही नहीं थी। घरवाली ने कई बार कहा भी कि फिक्स डिपॉज़िट में से कुछ पैसा निकाल कर गाड़ी लेे लो पर मेरे पास दो ही विकल्प थे या तो नई गाड़ी लेे लूं और गुजारे में कुछ अरमानों की और बलि चढ़ा दूं हमेशा कि तरह। मैंने दूसरे विकल्प को अपनाया, सोचा चलो कुछ दिन और गाड़ी का किक तो मार ही सकता हूं।
शर्मा जी को तो फिर भी एक उम्मीद थी कि देर सबेर उनका बेटा उनके तकलीफ़ को समझ जाएगा।
पर यहां कोई उम्मीद करें तो किससे करें। ऐसी परिस्थिति में कहीं न कहीं दिल के किसी कोने से एक आवाज तो उठती है कि शायद अपनी भी औलाद होती पर उन हालातों को देख कर मन को समझा लिया करते कि शर्माजी की बात छोड़ो आज भी कई बुजुर्ग लोग औलाद के रहते हुए भी वृद्धाश्रमों में बहुत ही दयनीय हालत में जिंदगी गुजार रहे हैं, हम तो फिर भी उनसे अच्छी हालत में हैं।
इंसान समाज के उसी परिस्थिति से अपने आप की तुलना करता हैं जिससे उसके मन को संतुष्टि मिले, सुकून मिले। मैं भी शायद उसी तरह सोच कर दिल को मनाने लगा।