हैपनिंग वाला चाँदनी चौक…
हैपनिंग वाला चाँदनी चौक…
आज चाँदनी चौक जाना हुआ। चाँदनी चौक दिल्ली का एक व्यस्ततम मार्केट हैं… वहाँ क्या नहीं मिलता? सब कुछ तो मिलता हैं और एक एक गली में एक एक सामान… कपड़ों का एक कूचा, साड़ियों का कूचा, बल्लीमारान में चपलों की गली…चश्मों की गली और भी न जाने क्या क्या…
हर तरफ़ बस लेन देन ही लेन देन होता हुआ दिखाई देता हैं…हर गली…हर कटरा…हर चौराहा…
चाँदनी चौक के इस मार्केट में हर गली की अपनी पहचान हैं… हर गली के ग्राहक भी अलग होते हैं…लाखों के लेन देन करते हुए दिखते हैं…पैसों के लेन देन के अलावा यहाँ बहुत कुछ होता हैं… कुछ जगह तो फेमस हैं वहाँ के खाने के लिए…पुरानी दिल्ली का ऑथेंटिक ख़ान पान… चाहे वह पराठे वाली गली के पराठें हो…कचौड़ी हो…रबड़ी फ़ालूदा हो…हरियाली पनीर पराठा हो…छोले कुलचे…और भी बहुत कुछ मिलता हैं… बस आप का मूड, टाइम और पैसा हो… हर जगह हर गली की अपनी रौनक…
इस चाँदनी चौक में करेंसी की एक्सचेंज करने वाली दुकानें दिखायी देती हैं… और ग़ालिब की हवेली भी…फतेहपुरी मस्जिद तो घंटा घर का चर्च भी यहाँ दिखायी देता हैं। वे दोनों ही इस भीड़ में भी शांत और सहज रहते हुए लोगों की भागमभाग देखते रहते हैं…इतनी भीड़…इतना बिज़नेस… माल ढोने वाले दिहाड़ी मज़दूर…अरे बाबूजी…साइड दे दो साइड वाली आवाज़ के साथ रिक्शों की चहल पहल…
यह चाँदनी चौक कई मायनों में बेहद अलग हैं… दिल्ली के मॉल्स की चकाचौंध यहाँ बिल्कुल नज़र नहीं आती बल्कि जगह जगह लाइवलीनेस नज़र आता हैं… मुझे चाँदनी चौक हमेशा ही एक हैपनिंग सी जगह लगती हैं…
चाँदनी चौक में आज पता नहीं क्यों जरा ज़्यादा ही देर हो गयी थी… साड़ियों की शॉपिंग फिर ख़ाना पीना… और थोड़ी सी मटरगश्ती में हम को वक़्त का पता ही नहीं चला…काके दी हट्टी में टेस्टी हरियाली पनीर का खाना खाकर जब बाहर निकले तो दुकान बंद होने लगे थे।
मेट्रो के लिए तो हमे थोड़ा पैदल चलना था। चलते चलते टाउन हॉल से मेट्रो के लिए मुड़ने पर उसके आस पास बहुत से लोग बाहर ही सोते हुए दिखे। एकबारगी तो मेरा मन काँप उठा सोचकर की ये सब लोग ऐसे ही बाहर सो जाएँगे क्या?
अरे, यह क्या? अभी तक यह चाँदनी चौक लाइवली था…हैपनिंग था… अभी एकदम खामोश लगने लगा था…यही तो बाज़ार का सच हैं…. जो दिखता हैं वह बिकता हैं….और धंदे में तो सब चलता हैं…
ये दिन भर काम करते सामान ढोने वाले, रेहड़ी वालें, रिक्शा चलाने वालें उनका क्या? उनके लिएतो यही चाँदनी चौक हैं जो दिनभर काम के बाद उन्हें थोड़ी जगह देता हैं और चाँदनी रात के खुले आसमाँ में सुकून की नींद भी…हाँ, खुले आसमाँ में ही…
इन दिन भर की हाड़ तोड़ मेहनत के बाद चाँदनी चौक की कठोर निर्मम पटरी पर चादर बिछाकर सोने वाले रेहड़ी वाले, मज़दूरों और रिक्शा वालें लोगों की आँखों में उस समय दूर किसी गाँव में रहने वाले अपने परिवार से मिलने की चाहत भी तो एक चाँदनी की तरह तैर रही होती होगी न? हाड़तोड़ मेहनतकश करनेवाले इन लोगों को भी तो निद्रा देवी के आग़ोश में ख़्वाब देखने का हक़ हैं… बेशक ये हमारे देश के एन आर आई लोगों की तरह नहीं हैं जो पराए मुल्क से अपने लोगों को डॉलर भेजते हैं… ये मज़दूर भी तो आधापेट रहकर चाँदनी चौक के खुले आसमाँ में सोकर जो कुछ कमा लेते हैं वह गाँव में भेजकर वहाँ झोपड़ी में पसरा निर्धनता का अंधकार चाँदनी में बदलने की ख्वाहिश रखते हैं…
नज़दीक के ग़ालिब की हवेली से शायद उस फ़िज़ा में उसकी रूह की आवाज़ आती है …“ग़रीबी में भी ग़ालिब ये गुज़र जाती है,कभी किसी को हँसा कर, कभी ख़ुद हँस कर।”
कहीं चाँदनी चौक की सारी ऐतिहासिक इमारतें हैरत से उन मजदूरों को देखती नहीं होगी की उनके जैसा इतना बड़ा किला होने के बावजूद क्योंकर आज इन मजदूरों का आशियाना पटरियों पर है? क़िला शायद यह भी सोचता होगा की कभी यहाँ के मीना बाज़ार में भी मोहब्बत के इत्र और ज़ज़्बातों के गुलाल हवाओं में उड़ा करते थे…
लेकिन आज के इस चाँदनी चौक के मार्केट की चहल पहल और लेनदेन को देखते हुए उस चौक में सुबह होने से बहुत बहुत पहले ही सुबह हो जाती होगी…मज़दूर कल जल्द ही उठेंगे फिर से मशक्कत के लिए तैयार हो जायेंगे... हमारी तरह पटरी पर उन्हें बेड टी तो नहीं मिलेगी…
मेरे मंद पड़ते पाँव और मंद पड़ते जा रहे थे…मुझे लगा मानों एक बार फिर से ग़ालिब की रूह उन्हें इस तरह सोते देख कह रही है,“न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।”
वाह रे वक्त और वाह रे ज़िन्दगी ! जैसे लोग वैसे ज़िन्दगी… आज के दिन ही न जाने कितने लोगों ने लाखों रुपये तो खर्च किए होंगे…लेकिन… चलो, भई…रात ज़्यादा हो रही हैं…इस लाइवली, हैपनिंग और सुकून देने वाले चाँदनी चौक से मुझे निकलकर घर जाना होगा…
सही तो हैं चाँदनी चौक…हर लोगों का…अपना चाँदनी चौक… हैपनिंग वाला चाँदनी चौक…
