गरीब नायक
गरीब नायक
"कितनी देर कर दी, इतनी लेट आए हो, कबसे तुम्हारा इंतजार कर रही थी ?" राजवीर का थैला चंचल ने हाथ से छीनते हुए कहा। थैले को अंदर टटोला" ढाई सौ रुपए ?"
" हां आज पचास रू ज्यादा कमा लिए, सारा साग बिक गया।"
" आज मेरे साथ भी बहुत अच्छा हुआ है।"
" क्या ?" चंचल ने खिड़की पर लटके अपने थैले में से एक छोटा सा पर्स निकाला और कुछ खुले पड़े दस के नोट और दो चार डॉक्टर की पर्ची निकाल, एक छोटी सी बाली निकालकर, राजवीर का हाथ पकड़कर, उसे बल्ब की रोशनी के नीचे ले आई," देखो सोने की है ना ?" राजवीर ने चमकते हुए चंचल के चेहरे को देखकर बाली को अपने हाथ में ले लिया और गौर से देखते हुए कहा," हां लगती तो है, तुझे कहां मिली ?"
गर्व से बाली राजवीर के हाथ से छीनकर चंचल इतराई," तुम्हें भी कभी कोई चीज मिलती है। देखो! मुझे सोने की चीज मिली।अब इससे मैं अपनी मुनमुन के लिए दो छोटी लौंग बनाऊंगी।"
" हां बनवा लेना, कौन सा मना किया है पर ये बता तुझे मिली कहां से ?"
"आज ठेकेदार ने मुझे बदरपुर ढोने का काम दिया। मैं अपना कट्टा भर रही थी, बाली मेरे हाथ में चुभी। गंगा मैया की कृपा है, सुना है वहीं से आता है सारा बदरपुर। वहां तो देख ना पाई थी, कहीं सरोज की नजर पड़ जाती, तो ठेकेदार से कह देती। सुनो! एक काम करना सुबह ही सुनार को दिखाकर आना, असली है या नकली। फिर मैं और तुम दोनों मिलकर मुनमुन के कान छिदवा देंगे और उससे छोटी-छोटी लौंग बनवा लाएंगे। बचपन में काँन छिदें तो ज्यादा दर्द नहीं होता।" फोलडिंग पर लेटी हुई मुनमुन के सर पर हाथ फेरते हुए चंचल ने कहा।
राजवीर रेडी लगाने का काम करता है। आलू, टमाटर गोभी ये सब्जियां तो सभी लिए फिरते हैं लेकिन साग बहुत कम सब्जीवाले रखते हैं। सर्दियों में वो बस हरी सब्जी बेचता है। शाम होते-होते ज्यादातर साग खत्म हो ही जाता है। पहले नहीं बिक पाता था क्योंकि उसके पास मशीन नहीं थी, साग काटने वाली। शहरों में कहां किसी के पास इतना समय है कि बथुआ, मेथी, सरसों सब अपने हाथ से काटते फिरें। अब तो जिसके पास मशीन होती है लोग उसी से हरी सब्जी खरीदना पसंद करते हैं। रोज आधी सब्जी बचाकर लाता राजवीर परेशान हो चुका था। चंचल से उसका दुख और अपने सब्जी के लिए खत्म होते तेल को देखकर रहा ना गया," क्या हुआ कैसे परेशान हो ?"
" क्या बताऊं, साग कोई खरीदता ही नहीं है जिन लोगों के पास मशीन है,उनका तो पूरा रात तक बिक जाता है, पर मेरा चाहे मैं ₹2 कम दूं फिर भी ना बिकता।"
" कितने की आती है मशीन ?"
" बहुत महंगी आती है।"
" फिर भी ?"
" पूरे ढाई हजार की आती है।" चंचल चुपचाप राजवीर के पास से उठी, छरहरा बदन, गाती पहने हुए साड़ी, पूरी कमर को अपनी साड़ी से छुपाया है उसने। छोटी सी चोटी को रिबन्न बांधकर उसने बड़ा किया है और मांग में भरा मोटा संदूर उसके सुबह के श्रृंगार का हिस्सा है, सर धोने के बाद भी, वो जगह यूँ की यूँ ही बनी रहती है। उसने अपनी एक मात्र संदूक को खोलकर, उसकी गहरी परतों में रखे, अपने जमा किए हुए ₹ 2000 निकाले, जो उसने अपनी बेटी की लौंग बनवाने के लिए रखे थे। लौंग बनवाकर क्या करेगी; जब बेटी की भूखे मरने की नौबत आ जाएगी। चंचल भी काम पर जाती है, पर रोजंदारी रोज कहां लगती है ? डेढ़ सौ रुपए और पूरे घर का खर्चा।बारह सौ का साग जिसमें दो तीन सौ का मुनाफा हो, वह भी जब बचकर ना आए, वरना मुनाफे की जगह घाटा ही झेलना पड़ता है, जिसकी पूर्ति चंचल की दिहाड़ी से नहीं होती। बिना सोचे समझे, अपने छुपाकर जमा की हुई, एक साल की कमाई चंचल ने राजवीर के हाथ में रख दी। मन को मसोसता हुआ राजवीर मना भी ना कर सका, करता भी कैसे क्योंकि उन पैसों में उसे अपने घर का दो वक्त का खाना नजर आता था। जिस दिन से मशीन आई उस दिन से आज तक साग कभी लौटकर नहीं आया। दो ढाई सौ का मुनाफा रोज ही होता है। चंचल के ₹2000 कभी दोबारा जमा हो पाएंगे या नहीं पर अब भूखे पेट सोने की नौबत नहीं आएगी।
गंगा मैया की कृपा से आज उन्होंने मुनमुन की लौंग का इंतजाम खुद ही करा दिया। रात भर करवट बदलती चंचल बाली को हाथ में लिए मुनमुन की लौंग का डिजाइन सोचती रही, सो भी नहीं पाई थी। दोनों ने सुनार के पास जाने का फैसला रात को ही कर लिया था, फिर भी रेडी लगाकर निकलते राजवीर को, खाने का थैला देते वक्त याद दिला दिया," जल्दी आ जाना, शाम को।" चंचल की आंखों में कोने वाले जौहरी की दुकान पर चढ़ने की चमक थी। जहां दो चार सोने के बने जेवरों को देखने का मौका भी चंचल को फ्री में ही मिल जाएगा। क्या पता किसी चांदी के, हार में सोने का डिजाइन गढ़ने की कल्पना लिए वो दुकान से लौटे।धनी नहीं तो क्या मन तो उसने भी औरत का ही पाया है, जिसकी जान गहनों में बसती है।
मिसेज शर्मा और मिसेज आहूजा इवनिंग वॉक से लौट रही हैं। मिसेज शर्मा को ज्यादा दूर न चलना पड़े, सामने हरी सब्जी वाले को देखकर उनका जी स्वास्थ्य के प्रति सजग हो गया और हरी सब्जी ने उनका ध्यान केंद्रित किया। वो अपना मुंह दूसरी तरफ मोड़ भी लेती लेकिन साग के साथ रखी हुई मशीन तो जैसे सोने का सुहागा था।
" कैसा दिया है साग ?"
" बहन जी 20 का आधी किलो और अगर 1 किलो लेंगे तो ₹5 की मशीन के।"
" क्या मशीन के पैसे अलग से लोगे ?"
" रहने दो कोकिला आगे कोई और मिल जाएगा। मशीन के भी कोई पैसे लेता है ?"
" बहनजी काट के देने की तो सभी पैसे लेते हैं। ठीक है, तो आप ₹चार दे देना।"
"नहीं ऐसे कैसे ? ऐसे ही तुम रेट बढ़ा देते हो। 28 परसेंट पिज़्ज़ा पर जीएसटी देकर आई मिसेज शर्मा के अंदर अचानक किफायती ग्रहणी जाग गई।वो हरा साग खाने का मन छोड़, रात को खाने में दाल बनाने की सोचने लगीं; वैसे भी स्वास्थ्यवर्धक तो दाल भी होती है। राजवीर होती शाम के साथ अपने ₹चार के घाटे को बर्दाश्त कर सकता था। सुबह होती तो एक बार को जी कैडा करके ग्राहक को जाने देता," ले लीजिए" कहते हुए उसने मिसेज शर्मा के लिए एक किलो साफ करके साग काटकर दे दिया।
दरवाजे पर पलके बिछाए चंचल राजवीर के इंतजार में खड़ी थी। आज उसके चेहरे पर गहने पास से देखने और बाजार घूमने की अलग ही चमक थी। क्यों ना आज बाजार में ही गोलगप्पे खाए जाएं ? चंचल अपने हाथ में पकड़े दिहाडी के सौ रुपए जाने कितनी जगह खर्च करने के सपने देख चुकी थी। छह साल की मुनमुन भी अपने मन में यह सपने सजाए, कोई ना कोई खिलौना तो राजवीर, चंचल उसे भी दिलवाएंगे। बजाने वाली सिटी लेगी या आसमान में उड़ने वाला गुब्बारा रंग बिरंगा या गुब्बारे वाले की साइकिल पर टंगी वो प्लास्टिक की गुड़िया ? राजवीर के घर में घुसते ही, आज और दिनों से भी ज्यादा तेज गति के साथ चंचल ने उसका थैला उसके हाथ से छीन लिया; पर राजीव आज और दिनों से उदास दिखता है। चंचल इतनी खुश थी कि उसकी उदासी पढ़ ही नहीं पाई। सवापी और गिलास में पानी लिए बोली ,"जल्दी करो, फिर रात हो जाएगी।" राजवीर ने अपने थोड़े से झुके हुए चेहरे को, थोड़ा और झुका लिया। अब चंचल भाँप चुकी थी," क्या हुआ ?"
"साग अटक गया और मशीन का एक गडसा टूट गया।" और उसके साथ टूट गए चंचल और मुनमुन के आज के सपने। चंचल ने अपने ब्लाउज में रखे हुए छोटे से बटुए से बाली निकाल, राजवीर के हाथ में रख दी," कल बनवा लेना।" राजवीर का रूँधा हुआ गला हमेशा की तरह कुछ बोल ना सका। वहीं मुनमुन खामोशी की भाषा समझ चुकी थी कि आज वो बाजार नहीं जाएंगे। रात का पसरा हुआ सन्नाटा सुबह अपने काम पर लौटने के शोर के साथ खत्म हो गया।