गंगाम्भ
गंगाम्भ
“उफफफ! निस्तेज सा चेहरा, मुट्ठी भर कमर, पेट में दरारें ! बेटी, तुम्हारा ये हाल ? तुम्हारा जीवंत प्रवाह कैसे थम गया ! तुम कैसे प्राणहीन हो गयी?"
बेटी गंगा को देखते ही बाबा बोल पड़े।" आप तो सब जानते हैं बाबा, बहुत दुख और अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है - कभी मैं धरती पर स्वर्ग से लोक हित के लिए ही लायी गयी थी। देवाधिदेव महादेव ने मुझे अपने मस्तक पर सुशोभित कर मेरा मान बढ़ाया था। इतना ही नहीं, मेरी शुद्धता और पवित्रता के लिए कभी "अम्भ " शब्द का प्रयोग हुआ करता था। आज मैं "आप" बन के रह गयी हूँ। ओह ! अम्भ से आप तक का मेरा सफर ...! बाबा, आज मैं आचमन के लायक भी नहीं रह गयी। जिस भारत के आधे क्षेत्र को मैंने संचित और पोषित किया, मैं उन सभी जगहों से प्रताड़ित हूँ। मेरा जिस्म घायल हो चुका है, मैं मृतप्राय जीवन व्यतीत कर रही हूँ... हूं हूं हूं।"
" अरे , तुम रोती क्यों हो ? तुम पापहारिणी गंगा हो। अभी भी लोग पहले की तरह तुमसे प्यार और श्रद्धा करते हैं। तुम ही सभी प्राणी को स्वर्ग की ओर ले जाती हो। हाँ, तुम्हारी इस दशा का अपराधी सिर्फ मानव है। लोगों की लापरवाही और अंधाधुंध व्यवसायीकरण के चलते तुम्हारी ये दुर्दशा हुई है। तुम घबराओ नहीं, तुम्हारे ऊपर पिता का साया है। तुम्हारा, यह पिता.... हिमालय की तरह अडिग, तुम्हारे प्रवाह को लौटाने के लिए कृतसंकल्प है। देखो, मेरी भुजाओं को , जिसमें अभी भी अर्जुन और भीम की तरह कौरवों को परास्त करने की क्षमता है। ”
इतना कहते हुए बाबा... जी जान से गंगा के कायाकल्प में जुट गये। निस्तेज पड़ी गंगा ,पिता के स्पर्श से ...जीवंत होकर कल- कल करने लगी ।