घिन

घिन

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राजीव ने फोन पर कहा - " बस पहुँचने ही वाले हैं "

नजर दरवाजे पर गई तो रजनी तेज कदमों से आती दिखी -"बाबूजी का आधार कार्ड छूट गया था , वही ढूँढने लगी थी "....कहते हुए राजीव के बगल की सीट संभाल ली ।


कार रुकते ही संस्था का मैनेजर बड़े गर्मजोशी से मिला - " आइये सर दिखाते हैं आपको !"


हर कमरे साफ थे , खेल कूद से लेकर साहित्य अध्ययन और मनोरंजन के समस्त साधन उपलब्ध थे वहां। संतुष्ट होकर लौटते हुए रजनी की नजर , बरामदे में बैठी एक महिला पर पड़ी , हालांकि उसने पीछे से ही देखा लेकिन जाने क्यों उसके नजदीक चली गई । कंधे पर हाथ रखा और जैसे ही वह महिला पलटी उसका चेहरा देख रजनी का मुँह खुला रह गया - "माँ तुम यहाँ ?"


माँ के होंठो पर मरी हुई मुस्कुराहट आई - " राजीव ने बताया कि तुम्हें अपने ससुर के बार - बार कपड़े खराब कर देने से परेशानी है , घिन आती है तुम्हें । शुगर तो मेरा भी ऊपर नीचे होता रहता है , किसी दिन तुम्हारा भाई रमेश मुझे वृद्धाश्रम छोड़ने को कहे , उसके पहले ही चली आई "


रजनी ने राजीव की तरफ देखा फिर माँ से बोली - " लेकिन रमेश ने तो कभी मुझसे ऐसी बात नहीं कही ?"


-"अब कहेगा ना , आखिर उसे भी तो वही संस्कार मिले हैं जो तुमको दिए । तुम बड़ी हो तुममें पहले दिखने लगे , वो छोटा है उसमें बाद में दिखेंगे "


अपने कार्यालय में इंतजार कर रहा मैनेजर बाहर आया - " राजीव जी ! लाइये फॉर्म दीजिये , औपचारिकताएँ पूरी कर ली जाएं "


भीगी आँखों से रजनी ने हैंडबैग से फॉर्म निकाला और उसके चीथड़े कर दिए , माँ को उठाया और गले लगकर रोती रही , माफी मांगती रही , उसे खुद से घिन आ रही थी।


अब कार पहले रजनी के मायके जाएगी , वहाँ उसकी माँ को छोड़कर वापस अपने घर ।




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