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प्यादा

प्यादा

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नगीना जाने कब रिलीज हुई थी। जब मैंने देखा तो मेरी हल्की मूंछें आने लगी थीं। अच्छे - बुरे , पाप - पुण्य से परे इस फ़िल्म में मुझे सबसे अधिक अमरीश पुरी ने प्रभावित किया। कारण, उसे साँपों को काबू करना आता था। लोग बताते हैं कि माँ दमे की वजह से मेरे होश संभालने के पहले ही चल बसी। बापू सब कुछ थे, खूब प्यार लुटाते थे मुझ पर। एक दिन काम पर किसी जहरीले नाग ने डस लिया और दुनिया जिसे लावारिस कहती है वो ठप्पा मेरे ऊपर भी लग गया।

याद था मुझे कि मेरा ननिहाल चौबेपुर में है। एक बार बापू के साथ मामा की शादी में आया था। बापू की मौत के चार साल बाद चाचा - चाची के दुर्व्यवहार से क्षुब्ध हो एक दिन जो कपड़े थे उसे झोले में भरा और चला आया चौबेपुर। मामा - मामी ने वहाँ रहने की स्वीकृति इस हिदायत के साथ दी कि जल्द ही मैं अपना कोई बंदोबस्त कर लूँ। नगीना मैंने चौबेपुर में ही देखी, वी सी आर पर। वो फ़िल्म देखी और एक दिन मामी की नारंगी साड़ी को कुछ इस कदर पहना जिससे अमरीश पुरी जैसा लगूँ, त्रिपुंड और रुद्राक्ष की व्यवस्था भी हो गई। मुहल्ले में पूरे ताव से घूमा, बड़े - बूढ़े मुस्कुराए, कुछ ने प्रणाम भी किया। बच्चे तालियां बजाते पीछे हो लिए। कुछ आगे बढ़ा तो एक आवाज़ कानों से टकराई - " अम्मा जोगी आया है ! कुछ भिक्षा दे दो !"

पलट कर देखना ही पड़ा। चेहरे पर जो दृढ़ता बना रखी थी मैंने वो उस रूप के दर्शन मात्र से पिघलती सी लगी। मुझे देखा तो मुस्कुराई और भीतर चली गई। मैं भी आगे न बढ़ सका और वापस घर चला आया।


पता किया तो रागिनी से मेरी कुछ समानताएं नजर आईं। वो भी गुमसुम सी रहती थी, उसके पिता का भी हाल ही में स्वर्गवास हो चुका था। लेकिन असमानताएं कुछ ज्यादा ही थीं, उसकी अम्मा थीं जिन्हें मैं मामी कहता था, वो गजब की सुंदर थी, उसकी पढ़ाई जारी थी। लोग उसे प्रेम और सम्मान की दृष्टि से देखते थे, मुझ पर जो दृष्टि पड़ती उसमें प्रेम नहीं दया होती थी। मैं राह चलते अपने कदम तेजी से बढ़ा देता था ताकि कोई रोक कर मुझे खाने के लिए न कह दे। बिना माँ बाप के लड़के पर लोगों का यह स्नेह मेरे लिए जी का जंजाल बना हुआ था, भला एक दिन में कोई कितना खा पायेगा ? और घर पर अगर पेट भरे होने की बात कह खाने से मना कर दूँ तो मामी मेरा सिर ही फोड़ दें - " कमबख्त ! मुहल्ले में रो - रो कर खाना माँगता है, हमारी बेइज्जती करता है।"

वह पहला अवसर था जब रागिनी ने कुछ कहा था जिसका संबंध मुझ से था। मेरा नाम जोगी नहीं, लेकिन उसका दिया ये नाम मुझे भा गया। मामी के भाई एक दिन आये और मैने उनके खूब पैर दबाए, मामी की नजरों में कृतज्ञता का भाव देख मैंने कह दिया - " मामी ! आज से मुझे आप जोगी कह कर बुलाना , और मामा को भी समझा देना। "

मामी कम ही बात करती थीं लेकिन उस दिन भाई की सेवा से प्रसन्न थीं, सो हंसते हुए कटाक्ष किया - " खेत न बारी का करिहैं पटवारी, हल्दी लगनी नहीं है सो आज नहीं तो कल जोगी ही बनना है तुमको, अच्छा है अभी से नाम बदल लिया। "


इस दुनिया में साँपों को छोड़कर और किसी से भय अथवा घृणा का भाव यदि मेरे मन था तो वह थी 'बदनामी '। अंधकारपूर्ण भविष्य सामने होते हुए भी चरित्र की रक्षा मेरे लिए जीवन से भी प्रिय था। किशोरावस्था पार हो चुकी थी अतः प्रेम की अनुभूति का उपहार मुझे मिल चुका था, और जो इस अनुभूति का कारण बनी उसके पहले वाक्य ने मुझे अब बेचैन सा कर दिया था। मेरे लिए यही किसी नेमत से कम नहीं था कि उसकी जुबान मेरे लिए हिली है। बहाने ढूँढता था उसके घर जाने के लिए। एक दिन उधर से गुजरा तो रागिनी की अम्मा ने बुलाया - " बेटा ! साइकिल पर रखकर ये गेहूँ की बोरी चक्की तक पहुंचा सकता है क्या ?"

मुझे और क्या चाहिए था ? साइकिल की जरूरत न थी, बोरा सिर पर रखा और आधे घण्टे के भीतर आटा लिए वापस आ गया। मुझे चाय पिलाई गई थी उस दिन, रागिनी तो न दिखी लेकिन पार्वती मामी ने मुझसे ढेर सारी बातें की। अब तो आना - जाना लगा ही रहता था, कभी मामी की पेंशन निकलवाने के लिए साइकिल पर बिठा कर बैंक ले जाना, तो कभी बाजार से घर के सामान लाना। इस दौरान हसरत यही रहती कि रागिनी दिखे, कुछ बोले लेकिन यह हसरत पूरी न हो सकी।  


कई महीने गुजर चुके थे। एक दिन वो ओसारे में बैठी थी , मैं आ तो उसी के घर रहा था लेकिन उसे यकायक सामने पाकर मुँह दूसरी तरफ फेर लिया और कदम आगे बढ़ते रहे। फिर उसी विशिष्ट ध्वनि ने कानों को स्पर्श किया - " ओ जोगी ! जरा आना तो इधर "

जाने क्यों दिल की धड़कन तेज हो गई और पाँव काँपने से लगे थे। मुझे वही मिला था जिसकी मुझे कई महीनों से प्रतीक्षा थी, अभीष्ट की प्राप्ति पर यह दशा पता नहीं मेरे ही साथ हुई थी या और भी भुक्तभोगी हैं। बहरहाल सारी शक्ति जुटाकर गर्दन नीची किये मैं उसके सामने पहुँच गया। जाकर खड़ा ही हुआ कि फिर उसकी आवाज़ आई - " मुँह दूसरी तरफ करके खड़े हो जाओ।"

मैंने यंत्रवत आचरण किया। अबकी उसकी आवाज़ एकदम निकट से आई - " दोनों हाथ फैलाओ "

मैंने देर नहीं की। पीठ पर उसका स्पर्श मुझे शक्तिहीन कर रहा था। दया कर इस कठिन परिस्थिति से मुझे उबारते हुए बोली - " अब पलट जाओ ! अभी चार अंगुल और बुनना पड़ेगा ".....मैं पलटा तो वो कुर्सी पर बैठ स्वेटर बुनना आरम्भ कर चुकी थी। स्वेटर का रंग नारंगी था।  

उसने इशारों में ही बैठ जाने को कहा। मैं गुलामगर्दे पर ही बैठ गया, शायद वो स्टूल लाने के लिए उठ रही थी कि अंदर से एक पुरुष बाहर आया। मैंने इसे कई बार देखा था, ये रागिनी की बड़ी बहन संगीता का पति धीरज था। पीछे से पार्वती मामी भी बाहर आईं - " जीजा जी कह रहे हैं कि मास्टर न सही क्लर्क की नौकरी लगवा ही देंगे, क्यों नहीं हो आती एक बार इनके साथ ?"


-"दीदी का क्यों नहीं लगवा देते ? मैंने तो कहा भी है कि मुझे कोई आपत्ति नहीं। बाबूजी की संतान दीदी भी हैं , फिर चाहे मृतक आश्रित के रूप वो नौकरी करें या मैं, बात एक ही है "....रागिनी ने स्वेटर से नजरें नहीं हटाईं थीं।

धीरज गुस्से में था - " देख रही हैं अम्मा ! वहाँ मैंने सब सेटिंग कर रखी है, फॉर्म इसका भराया गया है और यह नाटक कर रही है। संगीता को क्या जरूरत है नौकरी की भला ? "

रागिनी उठी और भीतर जाती हुई बोली - " इनसे कहो अम्मा कि मैं नाटक नहीं कर रही, अब जरूरत से ज्यादा बोलने को मजबूर करेंगे तो हो सकता है कि कल से आप इनका यहां आना - जाना बंद करा दें। "

इसके बाद धीरज और मामी में बहुत कुछ बातें होती रहीं, और कुछ देर बाद वो अपनी मोटरसाइकिल लेकर चला गया। पार्वती मामी ने मेरे हाथ पर दो का सिक्का रखा - " बेटा ! बनिये की दुकान से दो पुड़िया ठंडा तेल लाना जरा, माथा फटा जा रहा है।"

मैं तेल लेकर लौटा तो भीतर बहस जारी थी, पार्वती मामी के शब्दों में दबाव की उग्रता थी, रागिनी का प्रतिकार मर्यादित था। मैं कभी घर के अंदर नहीं घुसा था, लेकिन बहुत देर तक जब पार्वती मामी बाहर नहीं आईं तो हिम्मत करके मैं खुद ही भीतर चला गया। मुझे देख रागिनी ने पूछा - " चाय पियेगा जोगी ?"


अभी गर्मागर्म बहस के उपरांत जहां पार्वती मामी का मुख बेचैनी और पीड़ा से आक्रांत दिख रहा था वहीं रागिनी सामान्य नजर आ रही थी। मेरे जवाब की प्रतीक्षा किये बगैर वो रसोई में चली गई। मैंने तेल की पुड़िया फाड़ दी और पार्वती मामी के सिर पर चम्पी करने लगा। एक दो बार पहले भी पार्वती मामी के सिर पर तेल रख चुका था मैं। अधकपारी से पीड़ित इस महिला के अधिकांश बाल झड़ चुके थे और बालविहीन चिकने सिर पर उंगलियां फिराना मुझे आनन्दित करता था।  

रागिनी चाय लेकर आई तो पार्वती मामी ने घूरते हुए पूछा - " तब पक्का है कि तू नौकरी नहीं करेगी ? "

-''क्यों ? नौकरी क्यों नहीं करूंगी ? हाँ ये वाली नौकरी नहीं करूँगी, दीदी को इसकी ज्यादा जरूरत है। "

उस दिन के बाद फिर कई दिनों तक रागिनी के दर्शन न हुए। मेरे मन में जाने क्यों ऐसा लगता कि धीरज अच्छा आदमी नहीं है। रागिनी का उसके जीजा से यूँ पेश आना मेरे मन में कई शंकाओं को जन्म दे रहा था। किन्तु मामी की बातों से वो भला मालूम होता।


उस दिन पूष की पहली वर्षा के आसार लग रहे थे। मामी सपरिवार मायके गई थीं, अपने भतीजे के शादी में। यद्यपि ईश्वर ने मुझे माता - पिता के संरक्षण से महरूम ही रखा था लेकिन एक जबरदस्ती की ओढ़ी हुई व्यवस्था से कुछ पलों के लिए बाहर निकल अपने मर्जी के मुताबिक कुछ करने की स्वतंत्रता का अवसर मेरे लिए उल्लासपूर्ण था। अतीव आनन्द, खेत से लौटा तो नहाते वक्त साबुन दो बार लगाए , हालांकि दाँत किटकिटाने लगे थे। मामी फेयर एंड लवली का जो पाउच फेंक गई थीं, उसमें इतनी क्रीम अवश्य थी जिसके इस्तेमाल के बाद आईने में निहारते हुए मैं संतुष्ट था। मामा के कपड़े मुझे फिट आते थे , कुछ देर बाद जब मैं फिर से आईने के सामने आया तो मन में आया कि काश इस वक्त बगल में रागिनी खड़ी होती। उसका कंधा मेरे सिर पर होता और मेरे हाथ उसके मखमली गालों पर। हम दोनों एक दूसरे को आईने में निहारते रहते, कोई मौखिक वार्ता नहीं होती, बस निहारते रहते ....निहारते रहते।


फिर दिल में यह भी आया कि ऐसा सोचना पाप है, पाप न भी हो तो बेवकूफी कहने में कोई दो राय नहीं। मैं निरक्षर था लेकिन बेवकूफ़ तो कत्तई नहीं। मैं भले गुमसुम रहता था लेकिन मेरे मस्तिष्क में गुण - दोष , अच्छा - बुरा आदि को लेकर भीषण द्वंद चलता रहता था। मैं स्वभावतः भावुक व्यक्ति हूँ, लेकिन अन्य भावुक व्यक्तियों की तरह उपहास का पात्र बनना मुझे नामंजूर है। रागिनी न सिर्फ सुंदर थी अपितु उसके चेहरे पर जो आत्मविश्वास था वो उसे और विशिष्ट बनाता था। उसका मुझसे बोलना, चाय के लिए पूछना, स्वेटर बुनना आदि ऐसा आचरण था जो एक मातृ - पितृ सुख से वंचित बालक के ननिहाल वाले ज्यादातर लोगों में मैने पाई थी। अतः इस आधार पर रागिनी के प्रेम की कामना बेवकूफी ही है , ऐसा जब मेरे मस्तिष्क ने पुष्ट कर दिया तो दिल ने उसी समय मुझसे दुश्मनी सी ठान ली। अजीब स्थिति हो गई थी मेरी। अब आईने में मैं नहीं अपितु अट्टहास करती हुई रागिनी नजर आ रही थी, जिसके चेहरे की हँसी अगले ही पल घृणा में बदल गई और वो कुछ कहती इसके पहले ही मैं वहाँ से हट गया।  


बाहर आया। साथ के लड़कों ने उपमाएं देनी प्रारम्भ की, कुछ लड़कियाँ जो मुझे अब तक बहुत ही सामान्य भाव से देखती थीं उनमें से कुछ मेरी वेश-भूषा देखकर असहज नजर आईं। मैं नहीं कहता कि मैं एकदम से अभिनेता बन गया था, लेकिन हाँ अबसे पहले वाला जोगी और आज का जोगी अलग था। साफ - सुथरा , सुंदर वस्त्रों से सज्जित। लड़कों ने हँसी - मजाक कुछ ज्यादा ही करना शुरू कर दिया तो मैं वहाँ से चलता बना। निरुद्देश्य जा रहा था, राह में रागिनी का घर पड़ा। पिछले कुछ महीनों में यह पहला अवसर था जब उस राह से गुजरते हुए उस घर की तरफ नहीं देखा, हालांकि मस्तिष्क अपनी अंतिम मुहर लगा चुका था लेकिन दिल ने पूरे होश हवास पर रागिनी की ही छाया अंकित कर रखी थी। कितना अजीब है न ? सामने रागिनी चिल्ला रही थी और उसी के विचारों में मग्न मैं तब चेतना में आया जब उसने मेरे कंधे पकड़ कर मुझे झिंझोड़ दिया - " बहरे हो गये हो क्या जोगी ?"

मैंने चौक कर पूछा - " क्या हुआ ?"


-" कबसे आवाज़ दे रही हूँ ? भीतर अम्मा के कमरे में सांप निकल आया है, वो अंदर फँसी हुई हैं "....जब रागिनी यह कह रही थी तो उसकी आंसुओं से भरी आँखें देखकर मुझे 12 साल के जोगी की याद आ गई। बापू को जब सांप ने काटा तो कुछ मज़दूर आकर मुझे वहाँ लिवा ले गए। माँ का मरना याद नहीं लेकिन मरने वाला दोबारा नहीं आता, इसका अनुभव हो चुका था। वहाँ लोग बात कर रहे थे "चौमुखिया वाला ओझा रहता तो ज़रूर बच जाता, अब तो ये गया बेचारा ! घोड़ करैत का मंतर भी जानता है वह, शाम ढलने से पहले भी आ जाता तो काम बन जाता "

मैं तड़प रहे बापू के पास न जाकर उस आदमी के पास गया जिसकी बात सुनी थी, उसका हाथ पकड़ कर पूछा - " कहाँ है चौमुखिया ?"

उसे नहीं पता था मैं कौन हूँ - " छोड़ो भी बेटा ! यहाँ से तीन कोस पश्चिम में है, काटते ही किसी आदमी को दौड़ाया होता तो निश्चित ही बच जाता लेकिन अब तो बहुत देर हो चुकी है।"


मैंने दौड़ लगा दी। ये दौड़ मेरे और बापू के मौत के बीच ठनी थी। यह मेरे लिए किसी भी कीमत पर स्वीकार्य नहीं था कि बापू की मौत हो। मेरे शरीर के रक्त की एक - एक बूंद ने मेरे उद्देश्य के प्रति निष्ठा दिखाई और मेरे साथ दौड़ पड़ी। नंगे पैर में काँटे चुभे या नहीं, ठेस लगी या नहीं, गिरा या नहीं, नथुने फूटे या नहीं ? इसका ध्यान न था, ध्यान था अस्त होते सूर्य पर। या तो सूर्य ने अपनी गति कम कर दी थी अथवा मैं उससे बहुत तेज दौड़ा था, चौमुखिया पहुँच कर जब उस ओझा के सामने अपनी विपत्ति सुनाते - सुनाते बेहोश होकर गिरा तो सूर्य आसमान में अभी भी उसी ऊँचाई पर था जितना मेरे गाँव से निकलते वक्त था। होश आया तो खुद को मोटरसाइकिल के बीच में बैठा पाया। एक आदमी मोटरसाइकिल चला रहा था और मुझे पकड़ कर वो ओझा पीछे बैठा हुआ था। बापू की सांसें अभी भी चल रही थीं, भीड़ पहले से ज्यादा लग चुकी थी। ओझा ने नब्ज देखकर एक बार मुझे दिखा। उसका चेहरा कांतिहीन हो चला था। शायद उसे अनुमान हो गया था कि बापू नहीं बचेंगे, फिर भी उसने उपाय करना प्रारम्भ कर दिया। घण्टे भर बाद वाह - वाही का शोर मचा, बापू ने आँखें खोल दी

थीं, मुझे इशारे से बुलाया, माथे पर हाथ फेरा, उनके चेहरे पर एक मुस्कान आई और फिर सदा के लिए विदा हो गई।


माँ को साँप से बचाने के लिए वही समर्पण वही विनती मुझे रागिनी की आँखों में भी नजर आई। मैं बिजली की गति से घर में दाखिल हुआ, मेरे पीछे रागिनी के अलावा मुहल्ले के अन्य लोग भी थे। रागिनी ने पार्वती मामी को अचेत देखा तो चिल्ला पड़ी, साँप उनके कमरे के दरवाज़े पर फुँफकार रहा था। मुझे साँपों की अच्छी पहचान थी, रागिनी को समझाया - " ये जहरीला साँप नहीं है, मामी डर कर बेहोश हुई होंगी "

साँपों से बैर था मुझे, जन्मेजय की तरह सर्प यज्ञ तो नहीं किया लेकिन अब तक न जाने कितने जहरीले सांप मारे थे मैंने ? रागिनी से झूठ कहा था कि ये जहरीला साँप नहीं है। हाँ काटा नहीं था ये बात सही थी। कुछ मिनट लगे थे उसे काबू करने में, चूँकि रागिनी ने विनती की थी इसलिए उस साँप की जान बच गई। गाँव के बाहर छोड़ दिया था मैंने।


मानव स्वभाव कितना विचित्र है ? जिस घर में अभी शोक का वातावरण था, वहाँ अभी उत्सव सदृश माहौल हो गया था। माँ - बेटी गले लगकर अभी भी रो रहे थे लेकिन यह खुशी के आँसू थे। कोई नई उपलब्धि नहीं किन्तु आसन्न संकट का टलना भी हमें ख़ुशियाँ दे जाता है। रागिनी अब माँ के पास से उठी तो मुझे यूँ देखा जैसे इस धरा पर उसका मुझसे बड़ा उपकारी कोई दूसरा नहीं। आँखें अभी भी आँसुओं से तर थीं लेकिन होंठो पर एक पवित्र सी मुस्कान भी थी। वो बाहें फैलाये मेरी तरफ बढ़ी आ रही थी, मेरा दिल मेरे दिमाग पर हँस रहा था, कदम पीछे हटना चाहते थे लेकिन उस प्रयास को कमरे की दीवार ने विफल कर दिया। पहले उसने मेरा कंधा पकड़ कर अपनी तरफ खींचा, शायद वो जानती थी कि दीवार आलिंगन में बाधक होगी। अगले पल दीवार से मेरी पीठ नहीं अपितु रागिनी की बाँहें सटी हुई थीं। उसे मालूम तो हो ही गया होगा कि मेरे दिल के धड़कनों की गति क्या थी। उसकी गति मुझे मालूम नहीं हो सकी। उसने मुझे भींच लिया था। मेरा प्रयास था कि मैं आगे बढूं क्योंकि दीवारों की रगड़ से रागिनी की बाहें छिल सकती थीं, लेकिन वो थी जो मुझे बलपूर्वक दीवार की ओर धकेल जा रही थी। अब मेरी नजर पार्वती मामी पर थी, वो वृद्धा आह्लादित थी और उसकी आँखें भी कृतज्ञता के भाव से भर आईं थीं, आँचल के कोने की गांठ खोलते हुए बोलीं - " इधर आना बेटा !"


रागिनी मुझे छोड़ दुपट्टे से अपनी आँखें पोंछने लगी, मैं पार्वती मामी के पास गया तो उन्होंने मेरा माथा चूम लिया और मेरा हाथ पकड़ कर उस पर कुछ तुड़े - मुड़े नोट रख दिये - " इसकी मिठाई खा लेना बेटा "

-"बाहर क्यों खायेगा मिठाई ? वैसे भी जोखन चाचा ( मेरे मामा) और चाची घर पर नहीं हैं, आज खाना यहीं खाना है जोगी !"....यह कहने के साथ रागिनी मुस्कुराई। थोड़ी देर बाद वही नारंगी रंग वाला स्वेटर हाथ में लिए आई , तैयार हो चुका था। मेरी तरफ बढ़ा कर बोली - " जरा पहनो तो इसे "

मैंने पार्वती मामी की तरफ देखा, वो भी यही चाहती थीं। पहन लिया तो आईना लिए आई - " देखो तो जरा कैसा जंच रहा है तुम पर ?"

उस नारंगी स्वेटर पर बाईं तरफ लाल ऊन से दिल की आकृति उकेरी गई थी। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा हो चुका था, धन्यवाद तक नहीं निकला मुँह से। मनुष्य परिस्थितियों का दास है, यह कथन इस वक्त मेरे साथ चरितार्थ हो रहा था। जितना भी ज्ञान, जितना भी अनुभव था, इस वक्त बोरिया - बिस्तर लेकर पता नहीं कहाँ चल दिया, मैं दिल के हवाले था। पार्वती मामी के कमरे के एक कोने में स्टूल पर बैठा उनके साँपों से जुड़े सच्चे - झूठे अनुभवों को सुनकर हूँ हाँ कर ही रहा था कि बाहर जो मोटरसाइकिल रुकी उसकी आवाज़ जानी पहचानी सी लगी।

अगले पल हाथों में एक झोला लिए धीरज, मामी के कमरे में आया। मुझे देखते ही पहले उसके चेहरे पर प्रश्नवाचक चिन्ह बने फिर झोला मामी के बिस्तर पर रखते हुए बोला - " कौन है ये ?"


पार्वती मामी ने मेरा परिचय आज के घटनाक्रम का उल्लेख करते हुए दिया।  धीरज का चेहरा देख स्पष्ट था कि मैं इस वीरता के बाद भी कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता। तभी हाथों में चाय लिए रागिनी का प्रवेश हुआ। धीरज मुझे खा जाने वाली दृष्टि से देख रहा था जब रागिनी ने पहला कप मामी को देने के बाद दूसरा मेरी तरफ बढ़ा दिया। धीरज उसकी बहन का पति था लेकिन जाने क्यों मैं उसे अपना प्रतिद्वंदी समझने लगा था, वो जिस तरह पेश आ रहा था , निश्चित रूप से उसके मन में भी वही भाव होंगे। इस छोटी सी घटना ने मेरे आशिक हृदय को गर्व से भर दिया।

मैं आराम से चाय की चुस्कियां ले रहा था। धीरज झोला उठाये, रागिनी के पीछे चला गया। मेरा ध्यान पार्वती मामी की फिर से शुरू हो चुकी सर्पगाथा पर नहीं अपितु कमरे के बाहर रागिनी और धीरज के मध्य हो रही वार्ता पर केंद्रित था। अस्पष्ट आवाजें आ रही थीं और उसी बीच रागिनी की तेज आवाज़ सुनाई दी - " हाँ ! चल रहा है मेरा चक्कर इसके साथ, क्या कर लोगे ?"

हाथ में चाय का कप लिए मैं भी पार्वती मामी के पीछे हो लिया। देखा तो झोला नीचे फेंका हुआ था रागिनी ने क्रुद्ध दृष्टि से मामी की ओर देखा - " इनसे कहो कि जोगी मीट नहीं खाता, सो आज रसोई में यह नहीं बनेगा। "


मैं मांसाहार नहीं खाता इसके बारे में ज्यादातर लोग जानते हैं लेकिन यह बात रागिनी भी जानती है और उसका मान रख रही है, उस बेहद तनावपूर्ण माहौल में भी यह बात मेरे दिल में गुदगुदी उत्पन्न कर रही थी।

पार्वती मामी ने झोला संभाल लिया - " गुस्सा तेरे नाक पर ही रहता है, अभी तो मेरे लिए टेसुएँ बहा रही थी और अगले ही पल भूल गई कि धीरज बाबू इस घर के दामाद हैं। उनकी इज्जत मेरी इज्जत है, जोगी का खाना अलग पका देती ?"

जवाब में धीरज भड़क उठा - " रहने दीजिए ये ढकोसला अम्मा ! बुढ़ापे ने आपकी मति भ्रष्ट कर रखी है। आपको जरा भी इल्म है कि आपकी नाक के नीचे ये दोनों रंगरेलियां मना रहे हैं ? एक जवान लड़का हमेशा आपके घर में क्यों घुसा रहता है यह जानने की कोशिश की आपने ?"

पार्वती मामी से मैं नज़रें नहीं मिला रहा था। मेरे शारीरिक भाव देखकर वो कोई अंदाजा नहीं लगा पाईं शायद - " अरे यह यतीम बच्चा है बेटा ! राम - राम ऐसी ओछी बातें न करो ! इस पगली ने गुस्से में उल्टा - सीधा बका है "

- "आप या तो भोली हैं या भोली बनने का नाटक कर रही हैं। यतीम है तो इसका क्या मतलब ? दूसरों के घर में घुसा रहेगा ? साँप भी इसी ने छोड़ा होगा घर में "


चाय का कप हाथ से छूट गया, भय इस वक्त मेरे चेहरे पर कोई भी पढ़ सकता था। मुझे ताज्जुब हुआ कि धीरज को ये बात कैसे पता लगी ? दोपहर खेत से लौटते हुए मैंने एक साँप को देखा तो उसे पकड़ लिया। मोहब्बत और जंग में कुछ भी नाजायज नहीं होता, फिल्मों ने खूब सिखाया था मुझे। साँप का जहर निकाल रागिनी के घर के पीछे मैंने इस उद्देश्य से छोड़ा था कि इसी बहाने घर के भीतर जाने, रागिनी को देखने, उससे बात करने का मौका मिलेगा।  

इधर रागिनी अभी भी हमलावर थी - " शर्म आती है या नहीं आपको ? जो मन में आया बके जा रहे हैं। सबको अपनी ही तरह नीच समझ रखा है क्या ? प्रेम नाम सुना है कभी ? जोगी मुझसे सच्चा प्यार करता है "


पार्वती मामी सिर पकड़ कर बैठ गईं। इधर धीरज दाँत चबाता मेरी तरफ बढ़ा। शरीर में मुझसे बीस न था तिस पर चालीस पार कर चुका था और मैं एकदम नवयुवक। रागिनी ने उसके दावों को खारिज किया तो मैं भी भयमुक्त हो लोहा लेने को तैयार था। वो मेरी तरफ झपटता उसके पहले मेरे हाथ उसकी गर्दन पर थे। पाँव अंगद की तरह जमे हुए और आँखें गुस्से से लाल। धीरज अपनी समस्त शक्ति लगाकर भी न तो आगे बढ़ पा रहा था और न ही पीछे। जी में आया ऐसी पटकनी दूँ कि बच्चू को इनके पीर याद आ जाएं लेकिन पार्वती मामी के साथ - साथ रागिनी ने भी मिलकर उसे मेरे चंगुल से छुड़ा दिया। पार्वती मामी के आवाज़ में सख्ती थी - " जोगी तू बाहर जा !"

मैं ओसारे में पहुँच कर रुक गया। अब जब रागिनी लड़की होकर मुझसे अपने प्रेम को सार्वजनिक कर चुकी थी तो मेरा वहाँ से इस समय चले जाना उचित न था। अंदर से धीरज की धीर वाणी सुनाई दी - " अम्मा जी ! अब पानी सिर के ऊपर निकल चुका है, एक ऐसे लड़के से प्रेम जिसका न खाने का ठिकाना न रहने का ? पिछले दिनों ' गुलदेइया ' वाले रामनाथ जी मिले थे, कह रहे थे कि लड़के की सर्विस लगने वाली है "

पार्वती मामी की आवाज नहीं आई। धीरज का बोलना जारी रहा - " सोचता हूँ कि उनके लड़के से ही इसकी शादी की बात कर लूँ क्योंकि अगर इस लड़की के चलते कुछ ऊँच - नीच हुई तो मेरी बहुत बदनामी होगी। लोग तो यही कहेंगे न कि मेरे रहते यह सब कैसे हो गया ?"


मुझे इस प्रस्ताव पर पार्वती मामी नहीं अपितु रागिनी के जवाब की प्रतीक्षा थी लेकिन काफी देर तक कोई आवाज़ नहीं आई। कुछ समय बाद हाथ में लालटेन लिए रागिनी बाहर आई, मुझे देखकर मुस्कुराई - " अच्छा हुआ घर नहीं गए। वरना अंधेरे में तुम्हें बुलाने जाना पड़ता, आधे घण्टे में खाना तैयार हो जाएगा "

मैंने आवाज़ धीमी रखते हुए पूछा - " तुम्हारी शादी की बात चल रही थी अभी ?"


जवाब में वो मुस्कुराते हुए मेरे पास आई, मेरे कंधे के पास स्वेटर में से एक धागा लटक रहा था, सिलाई के बाद उसे काटना भूल गई होगी अतः अभी नजर गई तो उसे दाँतों से काटकर वैसे ही बेपरवाह मुस्कुराते हुए भीतर चली गई। शायद वो धीरज को हल्के में ले रही थी, अब मेरे लिए भी वो कोई तोप न था। दूसरे गाँव में आकर वो मेरा क्या बिगाड़ सकता था, वो भी तब जबकि रागिनी मेरे साथ थी ? उस नितांत सुनसान, ठंड भरे वातावरण में मेरे कानों में शादी की शहनाई बजने लगी। मन की पतंग, उमंग में उड़ी ही जा रही थी। मामी - मामी को शादी के लिए कैसे मनाऊंगा ? शादी के बाद गृहस्थी चलाने के लिए क्या करूँगा ? रागिनी को आगे पढ़ना भी है तो उसकी पढ़ाई के लिए अलग से पैसे का सोचना होगा, जब तक उसकी नौकरी नहीं लग जाती तब तक बच्चों के बारे में सोचूंगा भी नहीं। काम - धंधा पकड़ कर रुपये अभी से जोड़ने शुरू कर दूँ तो कुछ ही सालों में एक अदद पक्का मकान बनवा ही लूँगा। रागिनी को जो घर दूँगा वो मेरे पैसों का होगा, अपनी कमाई से वो जो करना चाहेगी उसके लिए आज़ाद रहेगी।  


"नहीं कल मुझे कॉलेज जाना है अम्मा "...यह रागिनी की आवाज थी, वो फिर बाहर आ रही थी। बाहर आकर मुझे देखते हुए बोली - " तुम्हारा खाना यही लगा दूँ ?"

शायद वो नहीं चाहती थी कि मैं और धीरज फिर आमने - सामने हों, मैंने सहमति प्रदान कर दी। कुछ देर में खाना मेरे सामने था। उसने मन से खिलाया। जाने लगा तो मेरे पीछे दुआर तक चली आई और मुझे रोककर बोली - " स्वेटर तुम्हें ठीक हो रहा है न ?"

मैं स्वेटर पर हाथ पर फेरते हुए कुछ कहने ही वाला था कि उसने मेरा हाथ पकड़ कर स्वेटर से हटा दिया - " क्या कर रहे हो ? तुम्हारे हाथ गीले हैं , गन्दा हो जाएगा "

"ठीक हो रहा है मुझे ".....मैंने कहा।


लालटेन की रोशनी में उसकी मुस्कुराहट मैं देख पा रहा था, बारिश तो नहीं हुई लेकिन ठंड बढ़ गई थी, उसे ठिठुरन महसूस हो रही थी - " जानते हो ! विनय मुझे बहुत चाहता था। जीजा जी ने एक बार मुझे उसके साथ देखा तो आसमान सिर पर उठा लिया। मेरे घर के साथ - साथ मेरे मामलों में भी उनकी दखल मुझे जरा भी नहीं भाती थी। विनय के पिता जी हमारे रिश्ते के लिए तैयार भी थे लेकिन इस आदमी ने जाकर साफ मना कर दिया। अम्मा भी इसी की सुनती हैं। मैंने भी ठान लिया कि करूँगी तो अपनी मर्जी की ही। धीरज को क्या - क्या नहीं कहा, कौन - कौन से इल्जाम नहीं लगाए ? लेकिन ये था कि मेरा घर छोड़ने को तैयार ही नहीं था। तुम्हारा आना अच्छा रहा। तुमसे इसकी जलन देखी तो और जलाया। मुझे सपने में भी यकीन नहीं था कि विनय के साथ मेरा रिश्ता तय हो पायेगा लेकिन आज तुम्हारी वजह से यह सम्भव हो गया। अम्मा और धीरज दोनों आज खुद इस बात पर राजी हुए कि जोगी के साथ भाग जाए , इससे बेहतर है विनय से ही शादी करा दो .....पागल कहीं के "....बात खत्म करते वक्त वो खिलखिला पड़ी।


ये सुनकर मेरी क्या दशा होनी चाहिए थी ? कुछ ही देर पहले सपनों के सागर में गोते लगाते दिल ने कैसा महसूस किया होगा ? वो जानती थी कि मैं उससे प्रेम करता हूँ फिर भी मेरे साथ ऐसा व्यवहार करके इतनी सामान्य कैसे खड़ी थी वो ? धीरज जो उस परिवार की निस्वार्थ भाव से चिंता करता था, हर वक्त उनके साथ खड़ा रहता था, जब उसके चरित्र को लांछित करने के अपने कृत्य को वो सामान्य मान रही थ , फिर मैं तो कुछ भी नहीं था। मोहब्बत और जंग में सब जारी है, यही सोच मैं घर की तरफ चल दिया। पीछे से रागिनी ने आवाज़ दी - " कल मैं विनय से कॉलेज में मिलने वाली हूँ, जीजा जी रामनाथ चाचा से बात करेंगे। हो सकता है परसों वो लोग मुझे देखने आएं "

मैं शुभकामनाएं देकर फिर बढ़ा उसकी फिर आवाज़ आई - " दरअसल ये स्वेटर मैंने विनय के लिए बुना था, तुम दोनों की कद काठी एक जैसी है न "

मैंने स्वेटर निकालकर उसे पकड़ा दिया, उसे तह करते हुए वो मुस्कुराई - " कल जब उसे दूँगी तो कहूँगी कि परसों मुझे देखने यही पहन कर आये, तुम भी आना। "

मैं बढ़ता रहा वो तेज कदमों से मेरे पीछे आई, मैं रुक गया, मेरे कान के पास मुँह लाकर धीरे से बोली - " तुम्हें साँप छोड़ते हुए मैंने देखा था ".....फिर हँसते हुए घर में दाखिल हो गई। बारिश शुरू हो चुकी थी।



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