Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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आशीष त्रिपाठी

Drama

3  

आशीष त्रिपाठी

Drama

दंश

दंश

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पान की वो गुमटी नई - नई लगी थी कॉलोनी में, सड़क के उस पार। मिसेज वर्मा हाथ में चाय का कप लेकर बालकनी में जब खड़ी होतीं हैं तो दूर तक फैली झुग्गी - झोपड़ियों के पार की हरियाली उन्हें सुकून देती है और हर घूँट के साथ उनका स्वतंत्र मन अपने वास्तविक जीवन के बाहर कल्पनाओं के आकाश में विचरण करता है। उन कल्पनाओं में अतीत की यादों को जोड़ते होते हुए, उनके क्रम व अपने कर्मों में अपनी मर्जी के मुताबिक छेड़छाड़ करना उनकी रोज की आदत बन चुकी है। ऐसा नहीं, अगर ऐसा हुआ होता तो कैसा सुंदर होता ? इन कल्पनाओं में इन्हें डूबता - उतराता देख इनका मस्तिष्क बड़ी जल्दी इन्हें वर्तमान में लाता है, और तब तक आधी से ज्यादा चाय ठंडी हो चुकी होती है। मन विषाद से भरा हुआ होता है सो मीठी चाय का घूँट भरना खुद की मनोदशा के साथ छलावा लगने लगता है, चाय वहीं छोड़ एक बार अपने आधुनिकता में नहाए बंगले के हर एक कोने का मुआयना करती हैं फिर बालकनी में आकर झुग्गी झोपड़ियों पर नजर डालती हैं। अब तक मन पुनः वर्तमान के साथ अभ्यस्त हो चुका होता है, आस - पास की गरीबी देखकर अपने निर्णय पर क्षोभ जाता रहता है।


किन्तु अब वो गुमटी इस दैनिक क्रिया कलाप में बाधक सिद्ध होने लगी है। मन होता है कि जाएं और उस दो कौड़ी के गुमटी वाले को गुमटी समेत फूंक दें। आस - पास खड़े ग्राहकों पर भी गुस्सा आता है। खाने - पीने का ठिकाना नहीं है लेकिन मुँह में गंदगी भरने और उसी गंदगी को फिर सार्वजनिक जगहों पर पसार देने के लिए इनके पास जाने कहाँ से पैसा आ जाता है ?


वर्मा जी नाश्ते पर आये तो मिसेज का रूखा चेहरा देख पूछ लिया - "बीपी की गोली ली ? वो फिजियो भी नहीं आई अब तक ?"

मिसेज भड़क गईं - "हमेशा गोलियाँ ही इलाज नहीं होतीं, कभी इसके बाहर भी निकल कर सोचिए "

वर्मा जी अपनी गोली निकालते निकालते रुक गए - "बात तो तुम ठीक कहती हो। इस संडे याद दिलाना, क्लब को डॉक्टर अरोड़ा भी जॉइन कर चुके हैं, मुनीम ने बताया था कि उनकी प्रिस्क्रिप्शन में गोलियां नाम मात्र की होती हैं, उनसे बात करते हैं "...कहकर अपनी बीपी की गोली ली और बैग उठाकर चलते बने।

मिसेज वर्मा का मन नहीं किया खाने को। खीझ से भर उठीं अपने पति की बेवकूफी पर। कितने जाहिल लोग हैं इस दुनिया में। यह आदमी बिजनेस कैसे कर पाता है ? सुना है कि इसमें बहुत दिमाग की जरूरत होती है, वो इसकी खोपड़ी में है ? आज पता नहीं क्यों कुछ आर - पार कर गुजरने का जी हो रहा था। 


हालाँकि सौंदर्य को किसी श्रृंगार की आवश्यकता कभी नहीं रही फिर भी शक्ल सूरत अच्छी हो तो सीमित साधनों में भी उसे और मारक बनाया जा सकता है। इसी सिद्धांत पर निष्ठा रखने वाली रोजी की खूबसूरती का कायल था डबलू  उसने नया - नया धंधा शुरू किया था, पान की दुकानों पर गुटखे और पान के पत्ते सप्लाई करने का। एक दिन जब उसने रोजी को पान की दुकान की तरफ आते देखा तो मुँहलगे पान वाले शेषनाथ उर्फ सिब्बन से कह डाला - " चचा ! वो देखो क्या ग़जब की लौंडिया चली आ रही है, कई दिनों से ताड़ रहा हूँ लेकिन भाव नहीं दे रही"


पान लगा रहे शिब्बन ने मुँह उठाकर एक बार नज़दीक आ चुकी लड़की की तरफ देखा और फिर आग उगलती नजरें डबलू पर डालीं। लड़की को कुछ पैसे दिए, उसके चले जाने के बाद बोला - "हाथ पैर तुड़वा कर सड़क पर भीख माँगने के काबिल बना दूँगा बेटा ! लड़की है वो मेरी"

डबलू क्या बोलता ? साइकिल आगे बढ़ाकर निकल जाने में ही भलाई महसूस हुई। मगर दिलो दिमाग में रोजी के हुस्न का जलवा तारी रहा। कुछ दूर आगे बढ़ने पर एक ठेले वाले के पास रोजी को सब्जी खरीदते देखा। साइकिल खड़ी की और आकर सब्जी वाले को डपट दिया - "भोली - भाली लड़की देखी नहीं और लगा ठगने ? चल रख और प्याज !!"


ठेले वाला सच में तौल में उस्तादी दिखा रहा था, डबलू के द्वारा टोके जाने पर दाँत दिखाते हुए कुछ और प्याज रख दिये, रोजी ने डबलू की तरफ देखा - " तुम बापू की दुकान पर भी थे न ?"

डबलू खुश था कि उसका व्यक्तित्व संज्ञान लेने योग्य है - "अजी तभी तो इस हरामी से आपको ठगे जाते देखा नहीं गया"

रोजी प्रभावित दिखी - " सेल्समैन का काम कब से कर रहे हो ?"...रोजी ने झोला लिए आगे बढ़ते हुए पूछा।

डबलू को बहाना मिला साथ चलने का - " ये पूछिये कि कब तक करूँगा, बहुत जल्द परमोसन होने वाला है, इसके बाद कई लौंडे अपने नीचे काम करेंगे"

रोजी मुस्कुराई और घर की ओर मुड़ते हुए बोली - " मुहल्ले में कई लड़के मेरे पीछे पागल हुए बैठे हैं, पीछा करने से बाज आओ वरना किसी के हाथों पीट जाओगे "


डबलू ने देखा कि सच में एक लड़का कमीज की बाँह मोड़ता उसकी तरफ चले आ रहा है, साइकिल खड़ा करके बोला - "क्यों उस्ताद गुटखा चाहिए क्या ? ले लो, कम्पनी का ऑफर है ...एक पर दो फ्री "

लड़के ने देखा रोजी आगे बढ़ चुकी है। सौदा अच्छा लगा, उसने दो खरीदी और दो मुफ्त लेकर शान से आगे बढ़ गया। 


 मुहल्ले की रौनक थी रोजी। कई लड़कों ने उस पर डोरे डालने चाहे थे लेकिन उसका दिल पहली बार अगर किसी की तरफ आकर्षित हुआ तो वह डबलू था। जहाँ मुहल्ले के लड़के औसत कद काठी वाले और ज्यादातर आवारा ही थे वहीं डबलू ठीक ठाक दिखने वाला कमाता धमाता आशिक था। मिलना जुलना बढ़ा, कसमें खाईं गईं। जिसे प्रेम कहते हैं उसकी धमक धीरे - धीरे मुहल्ले को चर्चा का मसाला उपलब्ध करा चुकी थी।


रात को दुकान बंद करने के बाद शिब्बन अपने घर की तरफ चला तो अंधेरे में पैर किसी व्यक्ति से टकराये। मुँह के बल गिरा और गालियाँ देते हुआ चिल्लाया - " साले पीकर किसी नाली में क्यों नहीं मरता ? बीच सड़क पर पैर फैलाये सोया है जैसे इसके बाप ने सड़क बनवाई हो "


कहकर चलने लगा तो पीछे से आवाज़ आई - " मुझे बहुत चोट लगी है, मेरी मदद कर सकते हो ?"

शिब्बन चलता रहा, फिर आवाज़ आई - " मुफ्त में करने को नहीं बोल रहा ! मेरी मोटरसाइकिल अपने घर पर रख लो और मुझे किसी डॉक्टर के पास पहुँचा दो, हजार रुपये दूँगा "

शिब्बन के लिए हजार रुपये बड़ी बात थी, वापस आया - "कैसे लगी चोट ? कहाँ घर है तुम्हारा ?"

-"बाद में पूछना चाचा ! पहले मुझे किसी डॉक्टर के पास ले चलो ! "....कहकर उस आदमी ने सौ - सौ के कुछ नोट शिब्बन की तरफ बढ़ा दिए।

शिब्बन ने रुपये जेब के हवाले किये और इधर - उधर देखकर बोला - "इतनी रात गए डॉक्टर नहीं मिलेगा, चोट मामूली ही दिखती है, घर चलो हल्दी गर्म करके लगा देता हूँ , ठीक हो जाएगा "

रोजी गर्मी की वजह से छत पर सोई थी। शिब्बन ने आवाज़ दी तो ऊपर से ही बोली - " दरवाज़ा अंदर से बन्द नहीं है, धक्का दो खुल जायेगा "


शिब्बन ने मोटरसाइकिल बाहर खड़ा किया। रात गए रोजी को गैर आदमी के सामने लाना उचित नहीं लगा। खुद ही हल्दी गर्म किया और लगाया। खाने के लिए पूछा तो उसने मना कर दिया। अगली सुबह वह आदमी शिब्बन और रोजी के जगने से पहले ही उठ कर चला गया, उसने ज्यादा फिक्र भी नहीं की। रुपये की गर्मी से शिब्बन का दिल कुछ बड़ा हो चुका था, रोजी को उसने पाँच सौ रुपये देते हुए कहा - " ले !! बहुत दिन से तेरी ज़िद थी ना नई बालियों की, जाकर खरीद ले "


 यह एक ठीक - ठाक ज्वेलरी की दुकान थी। रोजी ऐसे समय से चली थी कि रास्ते में डबलू से उसकी मुलाकात हो गई, उसे साथ लेकर दुकान पर पहुँची। जो बाली पसन्द आई वो बारह सौ की थी, बाकी के पैसे डबलू ने आस पास दोस्तों से उधार लेकर दिए थे। वापस लौटते समय रोजी के मन में लड्डू फूट रहे थे। प्रसन्नता का कारण बालियां तो थीं ही, दुकान के मैनेजर ने जो दिखने में बहुत ही पढ़ा लिखा और सुंदर था, रोजी से पूछा था - " किस कॉलेज में पढ़ती हैं आप ?"

नौवीं फेल रोजी के लिए यह गर्व का विषय था। सुंदरता को लेकर तो आश्वस्त थी ही, एक पढ़ा लिखा व्यक्ति उसे पढ़ी लिखी भी समझ रहा था। उसकी खुशी में डबलू भी खुश था।


उस दिन रोजी ने चट से पहचान लिया उस आदमी को। शिब्बन अपने कमरे में आवाज़ नीची रखते हुए जिस आदमी के साथ गरमागरम बहस किये जा रहा था, वो उस ज्वेलरी की दुकान का मैनेजर था। खिड़की के पास कान लगाकर दोनों की बातें सुनने लगी। शिब्बन ने सख्त लहजे में कहा - " मुझे तो उसी रात शक हो गया था कि तुम जरूर कोई गलत आदमी हो, मैं तुम्हारा चोरी का माल अपने पास नहीं रख सकता, मुझे माफ़ करो मोहन !!"

मोहन ने उसे समझाने की कोशिश की - " देखिए चाचा ये कोई चोरी का सामान नहीं है, और उस रात ज्यादा पी लेने की वजह से मेरी वो हालत हुई थी"

-"चोरी का नहीं है तो अपने घर ले जाकर रखो, मेरे यहाँ क्यों रख रहे हो ?"


रोजी ने देखा कि मेज पर सोने के करीब बीसों बिस्किट रखे हुए थे। उसे नहीं लगा कि इस आदमी ने चोरी की होगी। कमरे में चली आई -" बापू ! ये तो मैनेजर हैं सोने की दुकान के, ये चोर नहीं हो सकते "


मोहन ने रोजी की तरफ देखा - "आपने बिलकुल सही कहा, दरअसल मेरी दुकान पर कभी भी टैक्स डिपार्टमेंट का छापा पड़ सकता है, इसलिए मालिक ने अपने सभी विश्वासपात्र कर्मचारियों को थोड़ा - थोड़ा सोना कहीं छिपा देने के लिए कहा है। अब इसे हम अपने घर में रखें और कहीं वहाँ भी छापा पड़ जाए तो क्या फायदा होगा ? और यह काम मैं कोई मुफ्त में करने के लिए नहीं कह रहा, मालिक ने बाकायदा इसके लिए पाँच हजार रुपये दिए हैं "


शिब्बन को अभी भी मोहन पर यकीन नहीं हो रहा था लेकिन जाने क्यों रोजी को मोहन की नज़रों में खुद को समझदार साबित करने का भूत सवार था - " आपको इतनी सी बात समझ नहीं आ रही बापू ! बिजनेस में कुछ माल सरकार से छिपा कर रखना पड़ता है, वरना सारी कमाई टैक्स में ही चली जायेगी "


मोहन अभीभूत, शिब्बन लगभग संतुष्ट और इन दोनों को देख रोजी गदगद थी। सोना रख लिया गया था, उस दिन दोपहर में रोजी को डबलू से मिलने जाना था। पहुँची तो काफी खुश थी। कुछ इधर उधर की बातों के बाद डबलू से बोली - " वो जीन्स आठ सौ की, मोबाइल चौबीस सौ का और बाली में सात सौ लगे। कुल उनतालीस सौ तुमने मेरे लिए खर्च किये हैं न डबलू ?"


डबलू ने आँखों में देखा - " मतलब ?"

- "ऐसे ही यार, कुछ छूट रहा हो तो बताओ ?"

-"मेरी कीमत तुमने जोड़ी ही नहीं, ये जिंदगी भी तो तुम्हीं पर निसार कर दी है जानेमन "

रोजी ने बनावटी गुस्सा दिखाया - " देखो मज़ाक मत करो ! उनतालीस ही हुए ना ?"

डबलू कुछ झुंझलाया -"मुझे याद नहीं यार ! और इसकी जरूरत ही क्या है ? साला मेरे बस में होता तो अम्बानी से तुम्हारी ड्राइवरी कराता, ये उनतालीस सौ की क्या बिसात ? "

रोजी की आँखें चमकीं - " ड्राइवर कोई भी हो डबलू , पर मैं चलूँगी कार से ही ये पक्का है "

डबलू खुश हुआ - " बिलकुल ! अब मेरी सेल्स मैनेजरी पक्की ही समझो !"

रोजी कुछ न बोली ।


 अब मोहन का आना - जाना लगा रहता था। जब भी आता तो दो एक बिस्किट लेकर जाता और कुछ रुपये भी शिब्बन सेठ को पकड़ा जाता था। एक दिन दोपहर में मोहन, शिब्बन के घर पहुँचा तो रोजी अकेली थी। उसने दो बिस्किट माँगे तो रोजी ने एक अखबार उसके सामने रख दिया। मोहन का चेहरा फक्क था। रोजी ने कुटिल मुस्कान बिखेरी - " मोहन साहब ! यहाँ भी पढ़े लिखे लोग रहते हैं, अखबार हमारे यहाँ भी आता है। दुकान से केवल इतने ही सिक्के तो गायब नहीं किये होंगे आपने ?"


मोहन चुप रहा तो फिर बोली - " घबराइए नहीं, अब तक किसी को नहीं बताया तो आगे भी नहीं बताऊंगी, लेकिन आपको सच्चाई बतानी पड़ेगी "


मोहन घबराया हुआ था, धीरे से बोला - " अखबार में जिस चोरी की बात लिखी है उसमें मेरा बिलकुल भी हाथ नहीं है। हाँ उस चोरी का फायदा मैंने जरूर उठाया है। दुकान मैं ही खोलता हूँ, चोरी के बाद वाली सुबह को दुकान पर पहुँचा तो ताला टूटा हुआ था। साथ के दो अन्य कर्मचारी हड़बड़ाये और भाग कर मालिक के घर गए, मैंने शटर उठा कर दुकान का जायजा लिया तो देखा कैमरा तोड़ डाला गया है, सेफ लगभग साफ था लेकिन हड़बड़ी में बिस्किटों का एक डब्बा उनसे छूट कर नीचे गिर गया था। उस डिब्बे को मैंने तुरन्त अपने बैग में रख लिया था। बस यही मेरी गलती है, बहती गंगा में थोड़ा हाथ मैंने भी धो लिया "


-" छि अपने मालिक के साथ ऐसी बेईमानी ? जिसका सब कुछ लुट गया , उसका नमक खाने के बावजूद मौका लगने पर आप भी उसे नोचने से बाज नहीं आये "

मोहन की नजरें नीचे झुक गईं। रोजी की खिलखिलाहट गूँजी - " अरे महाराज ! आपकी जगह मैं होती तो मैं भी यही काम करती, डरिये नहीं, मैं किसी से नहीं कहने वाली ?"

मोहन के चेहरे से डर का आतंक जाता रहा। अब भी चुप ही रहा लेकिन रोजी के पास तमाम सवाल थे - "अब आगे का क्या इरादा है ? "

-"मालिक टूट चुके हैं, कुछ दिनों बाद मैं कुछ छोटा - मोटा धंधा करूँगा ?"

-"आपके इस राज को राज रखने का मुझे क्या फायदा मिलेगा ?"

-"मैं कुछ रुपये और दे दूँगा "....मोहन ने तपाक से कहा ।

रोजी ने उपेक्षा के भाव से देखा -"कुछ रुपये नहीं चाहिए मोहन सर ! मैं जानती हूँ कि इससे बहुत रुपया बनाएंगे अब आप। मुझे भी हिस्सेदारी चाहिए इन रुपयों में । "


मोहन की आँखें फटी रह गईं। जुबान को लकवा मार गया। मालिक से गद्दारी का पाप तो सिर पर है ही , अब आधा माल भी जाता दिख रहा है। रोजी ने शान्ति तोड़ी - " अब ऐसे मुँह मत बनाइये ! शादी हो गई है आपकी ?"

मोहन ना में गर्दन हिलाया।

-"मुझसे शादी करेंगे ?"

मोहन ने आश्चर्य से देखा।

-"क्यों अच्छा नहीं लगा प्रस्ताव ?"

मोहन हड़बड़ाहट में बोला - "नहीं नहीं ऐसी बात नहीं ह । ये तो बहुत अच्छी बात होगी कि आप जैसी सुंदर लड़की से मेरी शादी हो "

-"केवल सुंदर ? समझदार नहीं ?"

मोहन भी मुस्कुराया - " बहुत समझदार "


अगले ही दिन डबलू को साफ - साफ अपना फैसला कह सुनाया रोजी ने। डबलू आश्चर्य से उसका मुँह देख रहा था। अपनी बात कहते वक्त रोजी के चेहरे पर जरा भी भी दुःख या पछतावा नहीं था डबलू ने उसका हाथ पकड़ लिया - " अरे रोजी ! हम पूरा मेहनत कर रहे हैं यार ! इस महीने हमारा परमोशन हो जाये उसके बाद देखना कैसे रुपयों का ढेर लगा कर रख देते हैं । "


जवाब में रोजी ने उनतालीस सौ रुपये उसकी कमीज़ के पॉकेट में डाले - " इसे रखो डबलू ! और मेरी बात समझो। जब हम तुमसे प्यार किये थे उस वक्त तुम हमको सबसे बेस्ट लगे थे। अभी का मामला थोड़ा अलग है। अभी तुम ही बताओ हमारे जैसी ब्यूटीफुल लड़की की जोड़ी तुम्हारे साथ अच्छी जमेगी या मोहन के साथ ?"

- " यार शक्ल - सूरत देख के प्यार थोड़े ही न होता है "

रोजी हँसी - " फिल्मिया गए न ? अच्छा बताओ क्या देखकर लपके थे हमारी ओर ? न कभी बात हुई, न मुलाकात हुई, न ही हमने एक दूसरे का कभी कोई नफा नुकसान किया। कैसे प्यार हुआ बताओ ?"

डबलू की दशा खराब थी - " अब हमको नहीं पता रोजी कि कैसे तुमसे प्यार हुआ। तुमसे भी सुंदर - सुंदर लड़कियाँ देख चुका हूँ लेकिन उन्हें देखकर दिल का वो हाल नहीं हुआ जो तुम्हें देखकर हुआ "

रोजी ने दो टूक कहा - "दरअसल उन्होंने तुम्हें घास नहीं डाला होगा प्यारे ! अब तुम्हारी तुम जानो। हमारा इरादा पक्का है कि हम मोहन के साथ शादी करने जा रहे हैं। "

डबलू गिड़गिड़ाया - "हम घर में तुम्हारे बारे में बता चुके हैं, दोस्तों को भी पता है। बड़ी बेज्जती होगी रोजी, मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि मैं मोहन की तरह अच्छा दिखने की कोशिश करूँगा, जिम जाऊँगा, पैसे भी उससे ज्यादा कमा कर दिखा सकता हूँ "


सुनता कौन है ? रोजी जा चुकी थी। जाते हुए डबलू का उसके लिए गिड़गिड़ाना उसे खुशी दे रहा था। वो मान रही थी कि यह उसके व्यक्तित्व का असर है जो लोगों को इस तरह बेहाल कर सकता है। खुद के निर्णय पर इठलाई भी, कहाँ इस दो कौड़ी वाले के चक्कर में पड़ी थी ? उसके लिए तो सुख समृद्धि की अनन्त संभावनाओं का आकाश बाहें फैलाये खड़ा है।


शिब्बन ने सुना तो भड़क गया, उसे मोहन का चरित्र शुरू से संदेहास्पद लगा था, नहीं चाहता था कि रोजी उसके पल्ले पड़े। रोजी कुछ देर तक तो शांत होकर सुनती रही फिर दृढ़ स्वर में बोली - "बापू ! आपको अपनी औकात पता है फिर भी तुर्रम खान बनने से बाज नहीं आ रहे। मुझे भी किसी पनेड़ी के साथ बांध देने की ही सोच रहे होंगे न आप ? आज अगर मैं हैसियत से ऊपर उठने की जुगत लगा रही हूँ तो आपको दिक्कत क्या है ? वैसे भी शादी का फैसला मैंने आपको बताया है, इसमें आपकी राय नहीं माँगी। आपकी मर्जी होगी तो घर में रीति रिवाज से ब्याह करूँगी वरना कोर्ट में कम खर्चे में निपटा लूँगी " 


मोहन के सामने अपनी ही बेटी के इस बर्ताव ने बूढ़े शिब्बन के कलेजे को बींध कर रख दिया , गुस्से में शरीर काँपने लगा - " तो जा साली ! कोर्ट में ही होगा तेरा ब्याह अब, जा निकल "


वर्षों बाद मन हुआ कि एक बार बाप को देख आएं। पति - पत्नी कार में आये तो पड़ोसियों से पता चला कि जिस दिन वो घर से गई उसी दिन से शिब्बन घर से बाहर नहीं निकला। घर से जब दुर्गन्ध उठने लगी तो पुलिस को बुलाकर ताला तुड़वाया गया। पता नहीं कितने दिनों से मरा पड़ा था वो। क्रिया कर्म पड़ोसियों की मदद से पुलिस ने करवाया। रोजी को यह जानकर कुछ दुःख जरूर हुआ होगा, लेकिन यह घर जो अब वीरान पड़ा था उसे निबटा लेना ज्यादा जरूरी लगा। उसी दिन एक पड़ोसी से एडवांस लिया और अगले दिन मकान बेच दिया । 


 अब दूसरे शहर में मोहन को सेठ मोहन वर्मा के नाम से पुकारा जाता है और रोजी मिसेज वर्मा कहलाती है। मिस्टर वर्मा ने गुटखे की फैक्ट्री खोली और चल निकली, शहर के बाहर एक बड़ा सा प्लाट लेकर उस पर एक खूबसूरत बिल्डिंग बनवा ली गई है। शुरू में पति - पत्नी में सब ठीक रहा। रोजी को बढ़ती आमदनी अच्छी लग रही थी, जबकि मोहन के लिए हर सफलता उसे और बेहतर करने हेतु पागलपन के स्तर तक लिए जा रही थी। रोजी भी उसे प्रोत्साहित करती। लेकिन जब फैक्ट्री दर फैक्ट्री संख्या बढ़ती गई तो मिस्टर वर्मा केवल अपने बिजनेस के होकर रह गए। सारा समय इसकी देख रेख में ही निकलने लगा। सभी तरह से समृद्ध जीवन में मिसेज वर्मा को अब प्रेम की कमी महसूस हुई, जिसकी सीमा उनके लिए दैहिक ही थी। अतः वह प्रेम मिस्टर वर्मा से न मिलने की सूरत में बाहर ढूंढना शुरू किया। 


खूब प्रेम कमाया उन्होंने, खूब आनंद भी मिला। लेकिन जैसे - जैसे जीवन की गाड़ी अपने हरित स्टेशनों को छोड़ मरुभूमि की तरफ बढ़ रही थी, मिसेज वर्मा को इस बाह्य प्रेम से चिढ़ होने लगी। हालाँकि सब कुछ जानते हुए भी उदार हृदय मिस्टर वर्मा ने कभी भी इनके इस प्रेम कमाई का विरोध नहीं किया था। बच्चे विदेशों में शिक्षित हो रहे थे। बड़ी लड़की वहीं शादी करके सैटल हो गई। पता तब चला जब उसने स्विट्जरलैंड में अपने हनीमून की तस्वीरें फेसबुक पर साझा कीं। पिछले दिनों छोटे बेटे ने भी अपना स्टेटस अपडेट किया था " इन ए रिलेशनशिप विथ जेनेलिया।" 


मिसेज वर्मा इस जीवन के साथ तारतम्यता स्थापित करने के असफल प्रयास कर ही रही थीं कि एक दिन मॉर्निंग वॉक के समय साइकिल पर पीछे एक औरत को बिठाए डबलू दिख गया। मिसेज वर्मा ने देखा कि साइकिल पर सवार दोनों बड़े ही खुशी में एक दूसरे से बातें करते और मुस्कुराते हुए चले जा रहे हैं। डबलू ने उन पर ध्यान नहीं दिया था। उसकी गरीबी मिसेज वर्मा को अपने निर्णय पर गर्व करने का अवसर दे रही थी,लेकिन उन पति - पत्नी की मुस्कान ने मन को दुःखी किय । अब लगभग रोज ही उनसे इसी समय मुलाकात होती और कमबख्त रोज ऐसे ही हँसते - मुस्कुराते मिलते। कई बार तो डबलू से उनकी आँखें भी मिलीं लेकिन उसने ऐसे प्रदर्शित किया जैसे पहचानता ही न हो। अंततः मिसेज वर्मा ने समय बदल दिया, अब एक घण्टा पहले सैर पर निकलने लगीं, गनीमत थी कि अब डबलू से मुलाकात नही होती थी। मगर यह सुख भी ज्यादा दिन नहीं रहा। एक दिन बालकनी से गौर किया कि सड़क के उस पार जो गुमटी है, उसमें डबलू बैठा है। तस्दीक के लिए बंगले के गेट तक आईं, वही था।


 आज जैसे ही मिस्टर वर्मा गए, मिसेज वर्मा दनदनाती हुई गेट से बाहर आईं। उस गुमटी पर कोई ग्राहक नहीं था। तेज आवाज़ में पूछा - " ये क्या तरीका है तुम्हारा ? मेरा पीछा करते यहाँ तक आ गए ?"


- "मैं भला तुम्हारा पीछा क्यों करूँगा ? साइकिल से कार का पीछा हो पाया है कभी ? बापू बीमार हुए तो संदेशा भेजा और मैं नौकरी छोड़ कर अपने घर आ गया, वहाँ पीछे मेरा ही घर है। अब यहाँ हूँ तो उनकी सेवा भी हो जा रही है और यह दुकान डाल कर कुछ कमाई भी कर ले रहा हूँ "

मिसेज वर्मा को ध्यान आया कि कभी डबलू ने बताया था कि उसका घर इसी शहर में है, व्यंग्य करते हुए पूछा - " सेल्स मैनेजर साहब सीधे गुमटी पर आ गए ?"


डबलू ने ठंडी साँस भरी - "नौकरी से गुजारा अच्छा हो जा रहा था, पत्नी - बच्चे खुश थे, छुट्टियों में अम्मा बाबूजी को भी देख जाता था। आज उनको मेरी जरूरत है तो उनके साथ खड़ा भी हूँ। रही बात सेल्स मैनेजर न बन पाने की तो उसकी ख़्वाहिश उसी दिन छोड़ दी जब तुम्हारे बापू की लाश सड़ने की खबर मिली। पैसों के पीछे इतना भी क्या भागना कि अपने लोग ही पीछे छूट जाएं ?''


मिसेज वर्मा उल्टे कदम वापस चली आईं। अब बालकनी में नहीं जातीं, चैन अपने कमरे में भी नहीं पड़ता है। अपने निर्णयों के साँप उन्हें हर जगह फन फैलाये खड़े दिखते हैं ।


      


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