घाट बनारस
घाट बनारस


“विभू... विभू...” अपने 4 साल के बेटे वैभव को आवाज़ लगाता हुआ मैं छ्त पर जा पहुँचा। रात के 8 बजे थे। मौसम में हल्की सी ठंड और आसमान में अंधेरा दोनों बढ़ चुके थे पर इन जनाब को छत से नीचे उतरने का ज़रा भी मन नहीं था।
ये आजकल के बच्चे भी ना... एक नहीं सुनते। एक हमारा वक़्त था कि बाबूजी की एक आवाज़ के साथ दौड़ के चले आते थे और एक ये साहबजादे हैं। इतनी देर से आवाज़ लगा रहा हूँ पर कोई फ़र्क नहीं।
“यहाँ क्या कर रहे हो बेटा?”
“दादी को ढूढ़ रहा हूँ पापा।” आसमान की तरफ ताकते हुए बड़े भोलेपन से उसने जवाब दिया।
कुछ दिनों पहले मेरी माँ नहीं रही। दादी के लाड़ले विभू को ये समझाना बहुत मुश्किल हो गया था कि उसकी दादी भगवान के घर गई तो लौटकर क्यों नहीं आई? आज सुबह उसे बहलाने के लिये मैंने कह दिया कि दादी तारा बन गई हैं। अब अपनी दादी को तारों की भीड़ में ढूंढ रहा है।
“वो देखो... वो रही तुम्हारी दादी, नीले रंग का छोटा वाला तारा वही तुम्हारी दादी है।” तारे की तरफ इशारा करते हुए मैंने कहा।
“दादी...हाई...” तारे की तरफ हाथ हिलाते हुए विभू ने कहा।
“पापा... पापा... देखो दादी ने भी शाइन करके मुझे हाई बोला।” खुशी से उछलते हुए विभू ने कहा।
कितना खूबसूरत होता है ये बचपन। ना जाने कितनी ही छोटी छोटी उन बातों में भी खुशियाँ ढूंढ लेता है जहाँ हम जैसे समझदार बड़ों का ध्यान ही नहीं जाता।
“पापा... दादाजी भी तारा बन गये हैं?”
“चलो अब… बहुत देर हो गई है।”
विभू की बात का कोई जवाब नहीं दिया मैंने। जवाब मेरे पास था ही नहीं। करीब 10 साल का था मैं जब पापा हमसे दूर चले गये। कोई कहता कि हमें छोड़कर चले गये पापा, तो कोई कहता कि खो गये, कोई कहता कि किसी ने जादूटोने से पापा को हमसे अलग कर दिया तो कोई कहता कि जब वो बनारस से लौट कर हमारे पास आ रहे थे तो रास्ते में ही... और अब वो इस दुनियाँ में...
खैर माँ ने इन सब बातों पर कभी भरोसा नहीं किया। उन्हें विश्वास था कि पापा एक दिन ज़रूर लौट आयेंगे।
“कल सुबह आ कर अपनी माताजी के नाम का शांति पाठ और करवा लीजिए। उनकी आत्मा को शांति मिलेगी।” कहते हुए पंडितजी ने अपनी दक्षिणा और सामान समेटा और चलते बने।
पिछले दो दिनों से बनारस में हूँ। माँ के लिये पूजा करवाने आया था। यूँ तो पूरा बनारस शहर ही बहुत खूबसूरत है पर दो चीज़ें मुझे बहुत खास लगीं। एक तो यहाँ का सुकून और दूसरे घाट वाले मौनी बाबा। बड़े ही अजीब बाबा हैं ना किसी से बोलते हैं ना किसी की सुनते हैं सुबह अपना बस्ता उठाये आते हैं और शाम ढलते चले जाते हैं। लोग कहते हैं कि बड़े पहुँचे हुए संत हैं उनके पास बैठने भर से ही बड़ी शांति मिलती है। सच कहते हैं। कुछ बोलते ज़रूर नहीं हैं पर सचम
ुच बड़ी शांति मिलती है उनके पास बैठ कर। सच कहूँ मुझे तो एक अपनापन सा महसूस होने लगा है उनसे। कल जाना है सोच रहा हूँ आखिरी बार मिल लूँ।
ओहो... ये क्या... जिससे मैं मिलने आया वही नहीं हैं।
“सुनिये... यहाँ जो बाबाजी बैठते हैं वो कहाँ गये?” पास से गुजरते एक पंडित जी से मैंने पूछा।
“जाते कहाँ? बीमार होंगे शायद... तभी नहीं आये।”
“बीमार... आप पता बता सकते हैं उनका?”
हाथ में उनका पता लिए मैं उन्हें ढूंढने निकल पड़ा। थोड़ी सी मशक्कत के बाद एक छोटी सी कोठरी के सामने पहुँच गया। किसी ने बताया कि यहीं रहते हैं मौनी बाबा।
दरवाज़ा खोलकर मैं अंदर चला गया। चारपाई पर लेटे थे। शायद सच में ही बीमार थे।
“बाबाजी...” मेरी आवाज़ सुन कर उन्होंने आँखें खोल के मुझे देखा और हल्के से मुस्कुरा दिये।
मैंने माथे पर हाथ रख के देखा। तेज़ बुखार था। बिना देर किये अस्पताल ले गया। अजनबियों की मदद करने से पुण्य मिलता है, माँ कहती थी। एक बात मुझे बड़ी ही अजीब लगी, बाबाजी का बस्ता। बीमारी की हालात में भी बस्ता नहीं छोड़ रहे थे। यूँ तो ऐसी हरकतें करना अच्छी बात नहीं पर मेरा मन नहीं मान रहा था। बार बार एक ही सवाल दिमाग में घूम रहा था कि आखिर ऐसा क्या है इसमें? आखिरकार मन जीत गया। मैं कौन सा उनका सामान चुरा रहा था।
बाबाजी सो रहे थे। मैं उनके सिरहाने बैठा था। मैंने धीरे से उनके हाथ से बस्ता खींचा और खोल के देखने लगा।
कुछ पैसे, एक गमछा, एक माला और मुझे मिली एक पुरानी सी तस्वीर।
तस्वीर... इसमे तो मैं हूँ। ये मेरे बचपन की तस्वीर है। इसका मतलब ये पापा...
ये तो... ये तो मेरे पापा हैं। ये तस्वीर मेरे बचपन की है मैं, माँ और पापा तीनों हैं इस तस्वीर में। इससे मिलती जुलती कई तस्वीरें मैंने माँ के पास देखीं थीं।
“पापा मिल गये माँ...” धीरे से कहते हुए मैंने उनका हाथ पकड़ लिया।
“विभू... आराम से बेटा चोट लग जायेगी।” विभू को अपने दादाजी की माला हवा में घुमाते देख मैंने कहा। पापा के आने से सबसे ज्यादा खुश विभू ही है। पूरा दिन अपने दादाजी से बातें करता रहता है और वो सुनते रहते हैं। क्योंकि वो बोल नहीं सकते। उस एक्सीडेंट में उनके बोलने की शक्ति चली गई। कुछ वक़्त कोमा में रहे। हम तो निराश हो ही गये थे हमने गाँव भी छोड़ दिया था। इसी के चलते वो भी हमें नहीं ढूंढ पाये।
“हाई दादी…” छत पर बैठे विभू ने उस तारे को देख कर हाथ हिलाया। आज विभू के साथ उसके दादा दादी दोनों थे।
“दादी को हाई बोलिये दादाजी...” कहते हुए विभू ने अपने दादाजी का हाथ पकड़ कर आसमान की तरफ लहरा दिया।
इस बार तारे ने दो बार चमक बिखेरी। एक विभू के लिये और एक उसके दादाजी के लिये...