एक था टाइगर
एक था टाइगर
अक्सर देखा जाता है, जो जीतता है, या जो विजेता होता है, उसके जयकारे पूरी दुनिया लगाती है, लेकिन नेपथ्य में उसकी जीत की कहानी लिखने वाले जांबाजों को न इतिहास में जगह मिलती है, वो गुमनामी में जीते हैं, और गुमनामी में ही मर जाते हैं।
1985 (सियालकोट का मियांवालां जेल)
जेल की एक कोठरी में एक युवक, गार्ड के आने का इंतजार कर रहा होता है, उसके हाथ में एक चिट्ठी होती है, जिसमें उसके जीवन के कुछ छुपे पन्ने दर्ज थे।
गार्ड पत्र लेकर चला जाता है, युवक कराहता हुआ, चुपचाप से लेट जाता है, उसे दमा और टीबी जैसी बीमारी ने घेर रखा रखा है, जेल प्रशासन उसका इलाज तक नहीं करवा रही, बल्कि उसके ऊपर बर्बरता पूर्ण व्यवहार किया जाता, उसके मुंह से राज खुलवाने के लिए उसे बुरी तरह प्रताड़ित किया जाता था।
लेकिन उसने अपने होंठों को सिल लिया था। और चुपचाप अपने शरीर के बंधनों से आजाद करने वाली मृत्यु का इंतजार करता रहा ।
श्रीगंगानगर, राजस्थान
रविन्द्र की मां, रविन्द्र का खत आया है_रविंद्र के पिता ने रविंद्र की मां को पुकारते हुए कहा।(रविंद्र युवक का नाम )
"आती हूं, महीनों से उसकी कोई हाल खबर नहीं मिली, न ही वो मिलने आया। पढ़िए क्या लिखा है उसने?" _रविन्द्र की मां, रसोईघर से आती हुई बोली।
रविंद्र का खत जैसे जैसे वे पढ़ते गए, उनकी आंखें दुख विषाद और आश्चर्य से फैलती चली गईं।
इतना बड़ा सच उसने हमसे, इतने सालों से छुपाया था_रविंद्र के पिता धम्म से कुर्सी पर बैठ गए।
अब क्या होगा? रविंद्र की मां बदहवास हो बोली।
चलो दिल्ली चलते हैं, शायद कुछ बात बन जाए।
दोनों रविंद्र का खत लिए उस दिल्ली के उस ऑफिस में गए, जिस आर्गेनाइजेशन के लिए रविंद्र काम करता था।
वहां उसकी तस्वीर देख कर वहां के अधिकारी उसे पहचानने से इंकार कर देते हैं, उनके अनुसार इस नाम का कोई व्यक्ति यहां काम नहीं करता।
दोनों बुजुर्ग दंपत्ति अवाक रह जाते हैं, वे बार बार जोर देते हैं, कि उनके बेटे ने यहीं का कर्मचारी होने की बात बताई थी। जब कोई सहानुभूति, मदद नहीं मिली तो दुखी मन से वे वापस गंगानगर लौट आए ।
दोनों के जाने के बाद अधिकारियों ने गृह मंत्रालय से बात की, लेकिन गृह मंत्रालय ने इस प्रकरण में संज्ञान लेने से इंकार कर दिया।
(जेल में रविंद्र अपने पुराने सुनहरे दिनों को याद करता है।)
मां मैं जा रहा हूं सुनील के साथ थियेटर में आज एक नाटक का मंचन है_रविंद्र ने जाते हुए मां को कहा।
अरे कुछ खा तो ले, दिन भर अभिनय का भूत इसके सर पर सवार रहता है, न खाने की सुध न सोने की_ मां बड़बड़ाती रह गई और रविंद्र हंसते हुए निकल गया।
बचपन से ही रविंद्र को अभिनय के कीड़े ने काट लिया था।
उसे खुद को नए नए किरदारों में ढालना बहुत अच्छा लगता था।
अभिनय का शौक उसे श्रीगंगानगर से लखनऊ तक ले आया।
लखनऊ का थियेटर दर्शकों से खचाखच भरा था, उस दर्शक दीर्घा में कोई ऐसा शख्स भी बैठा था, जो रविंद्र की जिंदगी सदा के लिए बदलने वाला था।
रविन्द्र का सशक्त अभिनय देख लोग तालियां बजा रहे थे।
नाटक खत्म होते रविंद्र अपने मेकअप रूम में आ गया, तभी एक छोटा बच्चा, एक कार्ड लेकर आया, और रविंद्र को देते हुए कहा, कोई अंकल आपसे मिलना चाहते हैं।
रविंद्र उस व्यक्ति से मिला, और उस व्यक्ति ने रविंद्र से सीधे सीधे पूछा _क्या तुम हमारे साथ काम करोगे।
उस व्यक्ति ने अपना परिचय, और नौकरी के बारे तमाम जानकारियां और शर्तें रविंद्र को बताई।
रविंद्र ने हामी भर ली।
दिल्ली में स्थित द रिसर्च एंड एनालिसिस विंग, (आपको बिल्डिंग में कहीं भी इसका नाम लिखा नहीं मिलेगा, जबकि आस पास महत्वपूर्ण डिपार्टमेंट के ऑफिस बड़े बड़े अक्षरों में लिखे मिलेंगे।)रविंद्र उस व्यक्ति के साथ वहां गया।देशभक्ति का जज्बा उफान पर था।
रविंद्र को पाकिस्तान में जाकर रहने और खुफिया जानकारी जुटाने के लिए तैयार किया जा रहा था।
रविंद्र में सीखने की क्षमता तीव्र थी। उसने अपनी ट्रेनिंग के दौरान कुरान पढ़ी, धर्म को अच्छी तरह जाना, उर्दू की बाकायदा शिक्षा ली, संदेशों को भेजने की कूट भाषा सीखी।
अंत में मुसलमान बनने की जरूरी अहर्ता, उसका खतना भी हुआ उसे एक नया नाम दिया गया नबी अहमद शाकिर।
वो पूरी तरह तैयार था ।रंगमंच पर अनेकों भूमिकाएं निभा, अब उसे जासूस की भूमिका में अपना 100% देना था, यहां कोई रीटेक नहीं था, जरा सी लापरवाही उसकी जान ले सकता था।
उसने घर पर बताया था कि दुबई में उसकी नौकरी लग गई है, वो हर महीने तनख्वाह भेजता रहेगा, उसका आना कम ही हो पाएगा।घर वाले खुश थे।
आखिर वो दिन आ गया, सन 1975, महज 23 साल का था रविंद्र, उसे पाकिस्तान की सीमा में नकली दस्तावेजों के जरिए भेज दिया गया।
रविंद्र ने बहुत जल्दी वहां के रहन सहन अपना लिए।उसने लाहौर के एक बड़े कॉलेज में दाखिला लिया और एलएलबी की डिग्री हासिल की।
एक दिन उसने सेना में भर्ती का विज्ञापन देखा, और आवेदन किया।
उसका चयन पाकिस्तानी सेना में हो गया।1971की हार के बाद, पाकिस्तानी सेना भारत के खिलाफ नित नई नई चालें, और योजना तैयार कर रही थी, और उन योजना का पता रविन्द्र द्वारा भारतीय सेना को लग जाती, जिससे पाकिस्तानी सेना के मंसूबों पर पानी फिर जाता। दोनों ओर ही उसने अपनी चतुराई और सूचना से अपने झंडे बुलंद कर दिए।
भारत में उसकी भेजी सूचनाओं से बहुत से पाकिस्तानी सीमा पर किए हमले विफल हुए। भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री ने उसे ब्लैक टाइगर की उपाधि से नवाजा।
उधर पाकिस्तानी अधिकारियों का दिल जीत, नबी अहमद सेना के मेजर रैंक तक पहुंच गया। उसका निकाह सेना के अधिकारी की बेटी से हुआ, उन दोनों का एक बेटा भी हुआ।
बुरा समय कब किस रूप में आ जाए किसी को नहीं पता।भारत सरकार ने उसकी मदद के लिए एक अनट्रेंड रॉ जासूस को भेजा, जबकि रविंद्र ने मना किया था, उसने कहा था वह अपने काम को बखूबी कर रहा, उसे किसी की आवश्यकता नहीं है, लेकिन इनायत मसीह को वहां भेज दिया गया, जिसे पाकिस्तानी सेना ने पकड़ लिया।
थोड़ी ही यातना के बाद उसने तोते की तरह रविंद्र का नाम बता दिया।
रविंद्र पकड़ा गया, मुकदमा चला, सजा ए मौत की सजा मुकर्रर हुई, जो बाद में उम्रकैद में तबदील कर दी गई।
उसके साथ जेल में अमानवीय व्यवहार किया जाता, तरह तरह की प्रताड़ना की जाती, लेकिन रविंद्र से कोई भी राज उगलवाने में असफल रही पाकिस्तानी सेना।जेल में एक दिन उसकी पत्नी मिलने आई उसने सिर्फ एक सवाल पूछा_ क्यों तुमने मुझे धोखा दिया?
रविंद्र ने कहा_देश के लिए।
उसके बाद वो कभी भी मिलने नहीं आई, इतना तक की उसका शव भी लेने।
नवंबर 2001
तबियत बहुत खराब हो गई थी, अब तो खांसते समय खून आने लगा। शायद आज इस शरीर के भार को ढोती मेरी आत्मा को मुक्ति मिल जाएगी और थोड़ी देर में रविंद्र का शरीर शांत हो गया।
एक देशभक्त की ऐसी मौत जिसे अपनी मातृभूमि की मिट्टी भी नसीब नहीं हुई।
(इसी किरदार से प्रेरित हो बॉलीवुड की फिल्म एक था टाइगर बनाई गई थी।)
सत्य घटना पर आधारित(कहानी में नाटकीयता का सहारा लिया गया है)
