एक प्यार ऐसा भी
एक प्यार ऐसा भी
जी हां पाठकों आज मैं आपको ऐसी ही प्रेम कहानी बता रहीं हूँ कि जिसे पढ़ने के बाद आप यह सोचने को बाध्य ज़रूर होंगे कि प्रेम किसी भी उम्र में हो सकता है, भले ही सार्थक रूप देने में वक्त की नज़ाकत बदल सकती है और प्रेम एक अहसास मात्र है, किसी भी तरह का बंधन नहीं, किसी का भी मोहताज नहीं, यह तो प्रेमियों के दिलों में सदैव बसता है, जिसे जीवन में अवसर मिले तो अवश्य ही पूरा कर सकते हैं।
"बहुत ही सहज स्वभाव के थे एक सज्जन" , नाम था जिनका रामकिशन जी, मैं बाज़ार गयी, तो सहज ही उनसे मुलाकात हो गई " हमारे पुराने परिचित हैं"। सामान्य बातें होते-होते, आखिर मुझसे रहा नहीं गया, मैंने पूछ ही लिया भाभी जी कैसी हैं?? उन्होंने थोड़ा सहमते हुए, वे तो स्वर्ग सिधार गयीं ... और... फिर मैंने कुछ रूक कर पूछा ....क्या हुआ भाई साहब??
फिर उन्होंने बताया कि घर के हालात कुछ इस तरह के हो गए कि "उन्हें सहारे के लिए दोबारा शादी रचानी पड़ी"। इतना सुनना था कि मैंने कहा, घर चलिए हमारे, जहां पतिदेव भी होंगे ही, फिर विस्तार से सुनाईएगा "आपकी जिंदगी की दास्तां" ।
उन्होंने बताना शुरू किया, वे जब विश्वविद्यालय की पढ़ाई पूरी कर रहे थे, " उस दौरान उन्हें माया से प्यार हो गया था", जो अपनी पढ़ाई पूरी करने में लगी थी। अत्यंत ही सरल स्वभाव की लड़की थी माया, दोनों ही के परिवार वाले बराबरी के स्तर पर थे और तो और अच्छी खासी जान-पहचान भी।
धीरे-धीरे दोनों ही तरफ से प्यार की बोछारें होने लगी थी, और उस पर भी "सोने पे सुहागा हो गया" जो रामकिशन और माया को एक ही कंपनी में नौकरी भी मिल गयी। फिर क्या था जनाब, दोनों ने ही एक पल के लिए सोचा," अपने तो वारे न्यारे हो गए"।
अब तो रोज़ ही शाम को मिलना होता, साथ में रेस्टोरेंट में खाना-पीना भी होता। दोनों ही तरफ से मोहब्बतें इज़हार होने लगा, नौबत यहां तक आ गयी कि अब एहसास होने लगा कि एक दूसरे के बगैर रह नहीं सकते हैं । दोनों ही ने योजना बनाई कि अपने माता-पिता से अपने रिश्ते की बात करेंगे।
पर साहब, वो कहते हैं न कि कभी-कभी किस्मत में पास होते हुए भी दूर चली जाती है, उसमें ज़रा भी देर नहीं लगती, पलक झपकते ही कहानी बदल जाती है, कुछ ऐसा ही दौर आया इनके साथ भी। रामकिशन जी अपने माता-पिता के साथ माया के घर जैसे ही रिश्ते की बात करने पहुंचे तो पता चला माया के पिताजी ने उसका रिश्ता कहीं अच्छी जगह पहले से ही तय कर दिया था। " सुनकर मानो पैरों तले ज़मीन खिसकती दिखाई देने लगी, रामकिशन और माया को"। अपने प्रेम को विवाह रूप नहीं दे पाए और वही हुआ जो हमारे समाज में होता है।
रामकिशन और माया ने अपने माता-पिता की इच्छा से विवाह रचा लिया। फिर अपने प्रेम-प्रसंग का त्याग करते हुए फिर नये रिश्ते को सत्य निष्ठा के साथ निभाते हुए जिंदगी बसर करने लगे।
रामकिशन जी की पत्नी का नाम था, ज्योति और माया के पति का नाम था रोशन। जैसा नाम वैसा ही गुण दोनों ही जोड़ों में शामिल था। अपने बुजुर्गो से प्राप्त संस्कारों के आधार पर जिंदगी जीने लगे और अपने प्रेम की आहुति देते हुए मन में ही उसके आवेगों को दबा दिया।
एक ही कंपनी में काम करने वाले रामकिशन और माया अब बहुत अच्छे दोस्त बन चुके थे, चलो पति-पत्नी के रूप में ना सही, हम अच्छे दोस्त तो बन ही सकते हैं। इस तरह से जिंदगी का नया मोड़ शुरू हो गया।
धीरे-धीरे ज़िंदगी के इस कांरवा में रामकिशन जी के दो बेटे हुए, फिर उनकी जीवन साथी ज्योति बच्चों की परवरिश, सास ससुर जी की देखभाल और घर के कामों में ही व्यस्त रहतीं। रामकिशन जी कंपनी के काम से दौरे पर भी जाते थे। और इसी दरम्यान बच्चे बाहर पढ़ाई करते हुए, उन्हें नौकरी भी बाहर ही लगी। बस फिर क्या था, बच्चे अवकाश पर घर आते और चले जाते। इसी बीच एकाएकी ज्योति का ह्रदय की गति थमने से निधन हो गया और रामकिशन जी की परेशानी दिन पर दिन पहले से बढ़ती ही जा रही थी कि वे नौकरी करें कि माता-पिता की सेवा करें क्योंकि दोनों ही बच्चे बाहर नौकरी करते थे।
उधर माया के पति रोशन का भी उनके विवाह के तीन साल बाद ही एक सड़क दुर्घटना में आकस्मिक निधन हो चुका था। बेचारी माया मानो अकेली ही संघर्ष कर रही थी। माता-पिता भी भगवान को प्यारे हो गए। इकलौती और प्यारी बेटी जो थी," अपने माता-पिता की"। किसी तरह नौकरी करते हुए अपने जीवन के पड़ावों को पार कर रही थी। कोई संतान भी नहीं हुई कि उसके साथ गुजारा कर सके।
हम सिर्फ यह कहकर रह जाते हैं" भगवान को जो मंज़ूर"।
जी हां पाठकों वास्तविक जीवन कुछ है ही ऐसा कि हम जो पाना चाहते हैं, वो या तो मिलता ही नहीं है और हमें समायोजन ही करना पड़ता है और या तो मिलता है तो बहुत कठिन परिश्रम और मिन्नतों के पश्चात....।
कुछ ऐसा ही हुआ रामकिशन जी के साथ भी.... जिंदगी ने दोबारा ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था कि परिस्थितियों को बयान ही नहीं कर सकते हैं। इधर घर में पिताजी चल बसे, उधर माताजी की तबियत बिगड़ी हुई, चल-फिर नहीं सकतीं... और खुद भी तबियत के चलते अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती... । तो इस परिस्थिति में वही दोस्त माया काम आयी, इस घनघोर दुःख के समय में और माता जी की देखभाल की उसने।
फिर रामकिशन जी को भी चिकित्सक द्वारा परामर्श दिया गया कि इस उम्र में अपनी सेहत का विशेष ध्यान रखें ताकि ह्रदय पर ज्यादा प्रेशर ना पड़ने पाए। अब आप सोच सकते हैं कि इस परिस्थिति में वे अपना ध्यान रखें कि अपनी माता जी की देखभाल और वो भी व्हील चेयर पर।
माया रोज़ की तरह माता जी की सेवा करते हुए अपनी नौकरी भी कर रही थी। फिर उनकी माता जी ने आखिरकार ज़िंदगी में अहम भूमिका निभाते हुए अपने बेटे रामकिशन से कहा" बेटा चल पूरे कर ले अपने अरमान, किस्मत में पहले ना हो पाए पूरे तो कोई बात नहीं है, अब सही"। तुझे सहारा भी हो जाएगा और बरसों का प्यार तुझे वापस मिल जाएगा।
रामकिशन जी ने बहुत ही सहमते हुए माया के सामने प्रस्ताव रखा "शादी करने का" कहा कि कोई जबरदस्ती नहीं है, फैसला तुम्हारे हाथ में है।
फिर क्या था" नेकी और पूछ-पूछ" माया को जैसे इस जीवन में कोई हुई ख़ुशियाँ वापस मिल गयी हो।
रामकिशन और माया ने अधिक उम्र में भी अपने प्यार के लिए और सहारे के लिए दोबारा शादी कर ली जनाब... और दोनों बहुत खुश हैं... ।
कभी-कभी ज़िंदगी ऐसे ही मोड़ पर लाकर खड़ा कर देती है, जबकि संपत्ति की भी कोई बात नहीं थी, बच्चों की भी परेशानी," नवीनतम एवं आजकल के तकनीकी रूप में व्यस्तता से भरी नौकरी, अवकाश नहीं मिलना इत्यादि समस्याओं से जूझना" फिर माता जी के स्वास्थ्य को देखें या स्वयं को। ऐसी दुविधाओं को झेलते हुए, यदि रामकिशन जी ने माया के साथ दूसरा विवाह "प्रेम विवाह" रचाया वो भी अधिक उम्र में तो अच्छा ही किया न???? आज वे कुशलतापूर्वक अपनी जिंदगी जी रहे हैं, यह कहानी बताते हुए वे रो पड़े... क्यों कि दूसरे लोग सिर्फ मज़ाक उड़ाया करते हैं। हम दोनों ने उन्हें कहा..आप लोगों के मज़ाक कर ध्यान ना दें। फिर वो अपनी माया के पास घर चले गए ... एक नवीनतम युग में जिंदगी जीने....?