Aarti Ayachit

Inspirational

3.5  

Aarti Ayachit

Inspirational

"साथियों संग नवजीवन की शुरुआत"

"साथियों संग नवजीवन की शुरुआत"

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आज भी रेवा ने दौड़ते-भागते मिनी बस पकड़ी और वह खड़े-खड़े थक गई थी। इतने में अगले स्‍टॉप माता मंदिर पर दो सीट खाली हुई, उसे बैठने को जगह मिली और दीपाली भी वहीं से चढ़कर रेवा के पड़ोस में बैठ गई। रोज़-रोज़ की बस में भीड़ और ऐसे धक्‍का-मुक्‍की में चढ़ना उसे पसंद नहीं था। दीपाली बोली आप यहाँ की नहीं लगतीं, कहीं बाहर से आई हो क्‍या? आपका शुभ नाम जान सकती हूँ? "फिर रेवा ने अपना नाम बताया और पहचान हो गई दोनों में।"

रेवा ने बताया वह केरल से यहाँ पर माँ की इच्‍छानुसार बी.ए. कोर्स की परीक्षा पूर्ण करने आई थी और हॉस्‍टल में ही रह रही थी। पाँच भाई-बहनों में बीच की थी रेवा, एक भाई और बहन जो उससे बड़े थे और दो छोटी बहने जो पढ़ रहीं थी। उसकी माँ घर पर ही ट्यूशन पढ़ाती, पिताजी का तो पहले ही स्‍वर्गवास हो गया था। वह चाहती थी कि उसके सभी बच्‍चे पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़े रहे और पाँचों भाई-बहनों में मुझे ही आगे पढ़ने की ललक थी।


आपस में बातें करते-करते पता ही नहीं चला कब ऑफ़िस आ गया और दोनों साथ ही में उतरी। रेवा ने कहा दीपाली! तुम्‍हें भी मेरे ही ऑफीस में जाना था? मैं तो अपने बारे में बताती रही। दीपाली बोली कोई बात नहीं, अब तो पता चल गया न? मुझे यहाँ अवर श्रेणी लिपिक पद पर नियुक्ति के लिये प्रस्‍ताव-पत्र आया है, उसी के लिये उपस्थिति दर्ज कराने आई थी। मेरी एक छोटी बहन है, जो पढ़ रही है और पिताजी शासकीय कार्यालय में सहायक के पद पर कार्यरत हैं, पर अब उनकी सेवानिवृत्ति का समय नज़दीक आ रहा है। "मुझे यह नौकरी मिली रेवा जी! सभी खुश तो हैं घर में पर सबसे ज्‍यादा मुझे खुशी इस बात की हुई कि चलो ‍किसी तरह मेरा प्रयास सफल हुआ और इसी के लिये प्रयासरत थी, नहीं तो आजकल शासकीय नौकरी मिलती कहाँ है?"


रेवा को तो अस्‍थायी रूप से नियुक्‍त किया गया था, थोड़ी असहजता से बताने लगी कि हॉस्‍टल के साथ कॉलेज की पढ़ाई का खर्च और घर से बाहर रहते हुए अन्‍य खर्च अधिक होने के कारण हॉस्‍टल के पास ही एक भैया ने यहाँ का पता बताया। मैं यहाँ पूछताछ करने आई तो मेरी योग्‍यतानुसार फिलहाल अस्‍थायी अवर श्रेणी लिपिक के पद पर सिर्फ़ तीन माह के लिए नियुक्‍त किया और इस अवधि में मेरे कार्य को वरिष्‍ठ अधिकारियों द्वारा आंकलन किया जाएगा। "तत्‍पश्‍चात ही स्‍थायी करने पर विचार किया जाएगा, फिर मैने निर्णय लिया कि मैं अपनी बी.ए. की पढ़ाई इस नौकरी के साथ भी तो पूर्ण कर सकती हूँ।"


दीपाली का पहला दिन था तो वह टिफिन तो लाई, पर उसका नए-नए माहौल में खाने का बिल्‍कुल मन नहीं कर रहा था। रेवा के ऑफिस में एक और स्‍टेनों थी नीलु, दोनों ने दीपाली को पास बुलाया और कहा, ऑफिस में हमेशा सिर्फ़ काम-काम और काम ऐसा ही माहौल रहेगा, तुम तो फटाफट आओ अपना टिफ़िन लेकर हम साथ ही लंच कर लेते हैं। फिर क्‍या था, रेवा, नीलु और दीपाली में धीरे-धीरे आपसी दोस्‍ती गहरी होती गई। नीलु तो अपनी स्‍कूटी से आती थी, पर रेवा और दीपाली रोज़ाना बस में साथ आना-जाना, पाँच दिन ऑफिस के पश्‍चात योजना बनाकर मार्केट में कुछ खरीदी करने जाना, बैंक सम्बंधी कार्य करना और साथ में खाना-पीना होने लगा। अब हॉस्‍टल लाइफ से ऊबने वाली रेवा को दीपाली के साथ अच्‍छा भी लगने लगा।


रोज़ाना की ही तरह दीपाली और रेवा ऑफिस में सौंपा गया कार्य कर रहीं थी तो सहायक आयुक्‍त ने रेवा को अपने कैबिन में बुलाकर कहा कि तुम्‍हारी अवर श्रेणी लिपिक पद के लिये नियुक्ति अब स्‍थायी रूप से निश्चित हो गई है। "रेवा ने तुरंत ही माँ को फ़ोन पर खुशखबर सुनाई और उस दिन स्‍वयं भी बहुत ही खुश थी यह सोचकर कि अब तो मैं ग्रेजुएशन मन लगाकर पूरा कर सकूँगी।"


यूँ ही दिन गुज़र रहे थे कि ऑफिस में एक सहायक जो पूर्व से ही कार्यरत थे, उन्‍होंने सहायक आयुक्‍त और उपायुक्‍त से चर्चा करके कार्य को गतिशीलता देने के लिये शनिवार-रविवार को भी बुलाना शुरू कर दिया। अब तो सबकी आफ़त होती कि आख़िर अवकाश के दिन घर के भी तमाम कार्यों को पूर्ण करना होता है, पर विरोध कोई भी कदापि नहीं कर पाते। खासतौर पर महिलाओं को तो छूट मिलना चाहिए, अधिकांश जगहों पर ऐसा ही होता है, परंतु रेवा और दीपाली के लिए तो असमंजस की स्थिति! परीविक्षा अवधि में आदेशों का विरोध कैसे करें?


"खैर इतनी तो मेहरबानी हुई कि थोड़ा देरी से आ सकते हैं और हर हफ्ते आना ज़रूरी नहीं है, वह कार्य की अधिकता के अनुसार तय होगा।" ऑफिस में लगभग सभी अनुभागों में रिक्‍त पदों को भरा जा चुका था और कुल मिलाकर ऑफिस का वातावरण काफी सुखद और शांत-सा था। सभी अपने-अपने कार्य में व्‍यस्‍त रहते और अपनी ड्यूटी बखूबी निभाते।

एक दिन लंच में अचानक ही दीपाली ने रेवा से कहा मैं कुछ व्‍यक्तिगत ज़िंदगी के बारे में पूछूँगी तो आप बुरा तो नहीं मानेगी न? अरे नहीं बड़े ही सहजता से रेवा ने जवाब दिया। पूछो न? तुम्‍हें तो पूरा हक हैं पूछने का। दीपाली ने पूछा अब तो आपकी नौकरी भी स्‍थायी हो गई है और काफी दिन भी हो गए आपको इधर आए तो आपके घरवालों को याद नहीं आती आपकी? मान लिया आपकी मजबूरी थी लेकिन वे तो आ सकते थे न मिलने के लिए? बहुत ही रूआँसे मन से रेवा ने कहा माँ और बहनों को ही चिंता रहती मेरी, कहते-कहते अश्रु छलक उठे उसके, भाई ने तो माँ को यह तक कह दिया कि मैं किसी भी बहन की शादी नहीं करने वाला, तुम्‍हीं करना सबकी शादी। मेरी बड़ी बहन जो कॉलेज में प्रोफेसर है, वही माँ के साथ रहकर उसकी देखभाल भी कर रही है। इसीलिए माँ को उसकी शादी की चिंता ज्‍यादा है। छोटी बहने अपनी पढ़ाई छोड़कर नहीं आ सकती।


यह सब सुनते हुए दीपाली भी गुमसुम होकर अपने ही ख्यालों में खो गई। इतने में रेवा बोली अरे दीपाली! लंच टाईम खत्म हो चुका है। फिर दीपाली अपने काम में व्‍यस्‍त हो गई। शाम को बस में जाते समय रेवा ने कहा क्‍या हुआ दीपाली? सुबह से ही गुमसुम हो तुम। दीपाली बोली नहीं तो! आपके परिवार की अलग कहानी है और मेरे परिवार की अलग। पिताजी की सेवानिवृत्ति का समय नज़दीक आ रहा है, मैं बड़ी हूँ तो बस घर में दादी-बुआ सब पीछे ही पड़े हैं, मेरी शादी करने हेतु लड़का देखने के लिये, "मुझे अभी अपने कैरियर में और अच्‍छा करने की इच्‍छा है और अभी हाल ही में तो नौकरी की शुरूआत हुई है मेरी।"

इसी बीच ऑफिस में वर्कलोड बहुत ज्‍यादा होने से सभी को हर हफ्ते शनिवार और रविवार को कम से कम तीन घंटे के लिए उपस्थित होने हेतु मुख्‍यालय से आदेश आ जाता है। सब कर्मचारी इसी टेंशन में ही कार्य करते हैं, मन ही मन कोसते हुए कि कैसी दिनचर्या हो गई है? वित्‍त अनुभाग में पुरूष वर्ग में भी विचार-विमर्श हो रहा था, हम लोगों का तो फिर भी ठीक है, किसी तरह प्रबंध कर ही लेते हैं। पर महिलाएँ जो रोज़ाना सुबह 9.00 बजे से शाम 6.00 बजे तक पाँच दिन लगातार कार्य के उपरांत उनसे भी उम्‍मीद की जा रही है कि वे अवकाश के दिन भी आकर कार्य करें! हम सभी की निजी ज़िंदगी भी है या नहीं?


उस दिन किसी को पता नहीं था, सहायक आयुक्‍तों द्वारा आकस्मिक निरीक्षण किया जाना था। इसी क्रम में लखनऊ से एक नए अधिकारी श्री प्रकाश शर्मा का आगमन हो गया और वे आते ही उन्‍होंने उपायुक्‍त के आदेशानुसार अपनी सेवाएँ देना शुरू कर दिया और आ गए विधिवत निरीक्षण करने। अब किसी को पता तो था नहीं, उन्‍होंने विचार-विमर्श सुन लिया था। फिर लगे सबसे पूछने कि आप सब भी अपने-अपने प्रस्‍ताव प्रस्‍तुत कर सकते हैं कि आखिर कार्यालयीन सेवा में हम सब एकत्रित होकर कार्य का निष्‍पादन करते हैं तो हम सब एक परिवार के सदस्‍य हुए। 30 लोगों का स्‍टाफ मिलकर हम एक परिवार ही तो हैं, फिर हमारी सुविधानुसार हम आपस में मिलजुलकर हल भी तो निकाल सकते हैं न?


वे अलग ही विचारों के थे, फिर आजकल चल रहे ट्रेंड पर चर्चा करते हुए उन्‍होंने केवल एक सुझाव दिया था कि सभी लोग ऑफिस में युवा हैं और अभी-अभी ही नौकरी जॉईन किये हुए हीं हैं। मैं जहाँ से आया हूँ, वहाँ के अधिकतर ऑफिसों में मैने देखा है कि साथ काम करने वालों की यदि आपसी सहमति से वे ऑफिस के कर्मचारियों के साथ ही विवाह रचा लेते हैं। यह तो खैर सबकी सोच पर निर्भर करता है, पर मैं आपको एक सुझाव देता हूँ ज़रूरी नहीं कि वह माना ही जाए। "जैसे रेवा जी हैं, वे हॉस्‍टल में रहकर नौकरी कर रही हैं और विशाल जी भी नौकरी की वजह से सहायक पद पर यहाँ पदस्‍थ हुए, जबकि उनका परिवार यहाँ नहीं रहता तो वे यदि आपस में राज़ी हों तो रेवा को भी अकेले हॉस्‍टल में नहीं रहना पड़ेगा और विशाल जी को भी सहारा हो जाएगा।" साथ ही ऑफिस का काम भी साथ मिलकर और ज्‍यादा अच्‍छे से कर सकते हैं। इस प्रकार से महिलाओं को अवकाश के दिन कम आना पड़ेगा और बहुत ही आवश्‍यक हो तो कम समय के लिये ही बुलाया जाएगा।


आखिर हम सब ऑफिस में एक परिवार हैं और परिवार में भी बड़े से बड़ा काम हो या विशेष तौर पर विवाह संपन्‍न होते हैं तो एक टीम वर्क के रूप में करने पर ही आसानी से और कम समय से कब पूरे हो जाते हैं, मालूम ही नहीं चलता। ऐसे ही हमारी संस्‍था छोटी है तो क्‍या हुआ? "लेकिन हम सब मिलकर टीम वर्क के साथ कार्य को अंतिम रूप देते हुए उन्‍नति की दिशा में ज़रूर ले जा सकते हैं।"

ऑफीस में बस इसी तरह से काम को लेकर मीटिंग्स आए दिन हो रही थीं कि एक दिन अचानक से रेवा की बहन का फ़ोन आता है कि उसकी माँ की तबियत नासाज़ है, तो उसको उपायुक्‍त से अनुमति लेकर जाना ज़रूरी हो जाता है।


दीपाली के साथ जाते हुए बहुत ही मायूस होकर रेवा अक्षम-सी बैठी और माँ की यादों में खोई हुई कि कम से कम उसके सामने एक बेटी की शादी तो हो जाती, भाई ने मना किया तो क्‍या हुआ! काश... मैं माँ की इच्‍छा पूरी कर पाती।


उस दिन ऑफिस में वैसे ही देर हो गई थी और अंधेरा हो चला था, इतने में उसी बस में विशाल जी भी चढ़े, वे वहीं किसी दोस्‍त से मिलने जो गए थे। फिर एकदम से देखा अरे रेवा और दीपाली! ...तुम दोनों इधर कहाँ? उनमें आपस में बातें होती हैं, लेकिन रेवा गंभीर रूप से शांत थी। विशाल ने पूरी बात समझने के बाद हल निकालते हुए कहा कि इस अवस्‍था में तुम अकेली नहीं जाओगी केरल, मैं और दीपाली साथ चलते हैं तुम्‍हारे।


केरल पहुँचते ही माँ की हालत देखकर रेवा के अश्रु छलक पड़े, जो नौकरी के कारण हिम्‍मत बांध रखी थी, वह टूटती नज़र आने लगी। ... पर ये तो नियति का खेल है साहब.........एक न एक दिन सभी को इस दुनियाँ से जाना ही है और बस देखते ही देखते सबकी आँखों के सामने माँ चल बसी। अब तो रेवा असहाय हो गई थी, भाई ने किसी तरह रिवाज़ों को तो निभाया, लेकिन वह अकेला अपनी दुनियाँ में खोया हुआ सा... शादी भी कर ली थी स्‍वयं की मर्जी से, पर वह पत्‍नी के साथ अलग रह रहा था। छोटी बहनों की पढ़ाई भी पूर्ण होने को थी और तो और अब तो रेवा का नौकरी करना बहुत ही ज़रूरी हो गया था, नहीं तो परिवार का पालन-पोषण कैसे हो पाता?


रेवा ने बहनों संग चर्चा करके फिर नौकरी पर वापस जाने का फैसला लिया, इधर उसकी शादी के लिए उम्र भी काफ़ी हो गई थी, पर वह भी करे तो क्‍या करे? कभी-कभी परिवार में ऐसी कठिनाईयों का सामना न चाहते हुए भी करना पड़ता है। "फिर दीपाली और विशाल भी साथ आए थे और ऑफिस पहुँचना भी उतना ही आवश्‍यक था, अत: शीघ्र वापस जाने हेतु प्रस्‍थान किया गया।"


ऑफिस में पहुँचते ही वही दिनचर्या फिर प्रारंभ हो गई, पर अब माँ के चले जाने से रेवा एकदम से अकेली रह गई... एक माँ ही तो थी, जो हमेशा उसकी हिम्मत बंधाती... फिर उदास मन से काम करने लगी। "उसका किसी में भी दिल नहीं लग रहा था, हालाकि दीपाली ने काफ़ी ध्‍यान बंटाने की कोशिश तो की, पर वह भी नाकामयाब रही।"


एक दिन ऑफिस में रेवा और दीपाली लंच कर रहीं थीं और यूँ ही बातें करते-करते रेवा के आँसू छलक पड़े... अब वह अंदर से टूट रही थी, "इतने में अचानक विशाल आया और देखा कि रेवा रो रही है तो और साथियों को भी बुलाते हुए थोड़ा व्‍यंगात्‍मक रूप में हँसी-मज़ाक का माहौल बनाया।"

अब ऑफिस में सभी हँसी-खुशी के माहौल के साथ कार्य को अंतिम रूप देने लेगे ताकि रेवा भी मायूस न रहे। उपायुक्‍त और अधिकारियों ने भी इस फर्क को महसूस किया कि हँसी-खुशी के साथ यदि काम किया जाए तो और भी अच्‍छे से पूर्ण कर सकते हैं और यह सिर्फ़ विशाल की वजह से ही हो सका।


फिर एक दिन सहमे हुए से विशाल ने श्री प्रकाश शर्मा, अधिकारी जी की बातों पर अमल करते हुए आखिर रेवा से कहा! शादी करोगी मुझसे? मैं तुमसे बेहद मोहब्‍बत करता हूँ। कोई ज़ोर-ज़बरदस्‍ती नहीं है कि हामी भरना ही है, सोच-विचार कर लो। रेवा जो स्वयं को काफ़ी तन्हा महसूस करने लगी थी, वह विचारों की दुनिया में खोई हुई... दीपाली आती है और रेवा जी से कहती है, इतना मत सोचिए अब परिवार की ज़िम्मेदारियों के लिए...वे तो आप विशाल जी को अपना जीवन-साथी बनाने के साथ भी तो पूर्ण कर सकतीं हैं और इस तरह से रेवा और विशाल के आपसी प्रेम से उनका विवाह संपन्न हुआ और उनके जीवन में ख़ुशियों की नई उमंगों संग नए उत्‍साह के साथ नवजीवन की शुरूआत हुई।



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