एक मजबूरी ऐसी भी...
एक मजबूरी ऐसी भी...
कहते है मृत्यु जीवन का परम सत्य है। इसे कोई स्वीकार तो नही करना चाहता ।लेकिन ये एक ऐसा सच है जिससे कोई भाग भी नही सकता। जिसने जन्म लिया है उसे मरना ही है।
और दुख की बात तो ये है कि कौन कब मरेगा पता नही किसी को भी। क्या पता वो अभी मर जाए, या कल, या फिर परसो। किसी को नही पता ये मौत कब ,कैसे, कहा आ जायेगी।
मैने भी एक छोटे से हसते खेलते परिवार को मौत के मुह में समाते देखा है। अंदर तक झकझोर के रख दिया इस घटना ने मुझे।
अभी कल ही तो देखा था मैंने उस माँ को । वो बच्चो के लिये उनके पसन्द का खाना बना रही थी। और पिता जी हाथ मे मोबाइल लिए बाहर बैठे दुनिया की खबर ले रहे थे। बच्चे भी आपस मे हसी खुशी खेल रहे थे। पढ़ाई की तो कोई चिंता ही नही थी उन्हें। क्योकि लॉक डाउन की वजह से पिछले एक साल से स्कूल जो बन्द थे।
आदेश था कि जब जरूरत हो तभी बाहर निकलिए । उसमे भी बड़ी सावधानी रखिये। मुँह पर मास्क लगा के रखिये। किसी भी चीज को बिना वजह मत छुइये। हाथो को साबुन और पानी से धोइये या फिर सनेटाइज़ करते रहिए। घर आते ही बच्चो को मत छुइये। पहले कपड़े बदलिए तब घर के अंदर जाइये वगैरह वगैरह.....।
सारी सावधानी तो बरती थी उस घर के मालिक ने। सिर्फ जरूरत का सामान जो कि राशन था और कुछ मसाले ,वही तो लेने गए थे। घर आकर भी हाथ धोया था और कपड़े भी बदले थे। कही कोई गलती नही रह गई थी । फिर ये बीमारी कैसे आ गई घर मे।
शाम होते होते हालात खराब होने लगी थी। अचानक से सब कुछ बदल गया था । घर का हर सदस्य बीमार था। कहा जाए?, किससे मदद ले ?, कौन बचाएगा?, कुछ समझ नही आ रहा था किसी को।
जब तक कुछ समझ पाते ,कुछ कर पाते मौत का सिलसिला शुरू हो गया । एक एक करके परिवार के सभी सदस्यों ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
सिर्फ बच गया तो वो 14 साल का लड़का। जो उस घर का चिराग था। अपने सामने अपनो को खोता देख टूट चुका था अंदर से। अभी तो उसे न ही दुनियादारी की समझ थी न ही जिम्मेदारीयो का पता था। और ऐसे में अचानक से सबका यू चले जाना एक सदमे से कम न था उसके लिए।
अकेले होने के कारण उसने रिस्तेदारो को फोन करके बुलाना चाहा। जिससे अंतिम संस्कार कर सके । आखिर एक लाश को अंतिम समय मे चार कंधे जो चाहिए थे। लेकिन कोई न आया। सबने कुछ न कुछ बहाना बना के आने से मना कर दिया। पर असल मे बात ये थी कि ये माहमारी छुआछूत की थी । इसीलिए कोई आना नही चाहता था।
आज पहली बार एहसास हुआ था कि ये रिस्ते नाते सब मतलब के होते है । अपनी जान से ज्यादा प्यारी कोई चीज नही है।
खैर अंतिम संस्कार तो करना ही था। तो उसने किसी तरह खुद ही अपने पिता को पहले कफन ओढाया। फिर रस्सियों से बांध कर अपने कन्धे पर उठाया और चल दिया उस ओर जहां इस शरीर को अग्नि द्वारा मिट्टी में मिला के दुनिया के सारे बंधनो से मुक्त कर देते है।
अभी वो कुछ ही दूर पहुँचा था की थक कर उसने लाश को नीचे जमीन पर रख दिया। शायद पिता का भार उसके कंधो पर ज्यादा था। कभी वो लाश को अपने कंधों पर उठा कर चलता तो कभी उसे रस्सियों के सहारे घसीटते हुए ले जाता।
उसे देख के एक ही बात दिमाग मे चल रही थी कि इस दुनिया मे कोई अपना नही होता। अपने भी अपना साथ छोड़ जाते है ।
मैं तो बस यही दुआ करुँगी की जो दिन उस लड़के ने देखे अपनी जिंदगी में अब कभी कोई न देखे।
उम्र बित जाती है जिन रिशतेदारों की खुशामद करने में,
आज वही रिश्ता तोड़ गए।
हम गैरो से शिकायत क्या करे,
हमे तो अपने ही तन्हा छोड़ गए।