एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
रोजाना की तरह बस में बैठते ही वीरा ने अपनी किताब निकाली और उसके पन्नों में गुम हो गयी। उसका ध्यान तब टूटा जब उसके कानों में किसी की आवाज़ पहुँची "कंडक्टर भैया, प्लीज कहीं बिठा दो वर्ना गिर जाऊँगा मैं।"
वीरा ने नज़र उठाकर देखा तो हाथ में फ़ाइल थामे बुरी तरह हाँफते हुए उस युवक से उसकी नज़रें सहसा टकरा गई। अपनी जगह से उठते हुए वीरा ने कहा "आप यहां बैठ जाइए, मुझे अब उतरना ही है।"
सीट पर बैठते ही युवक ने अपनी आँखें बंद कर ली। ना जाने उसके चेहरे में क्या था कि कुछ देर तक वीरा उसे ही देखती रही। सहसा उस युवक ने आँखें खोली और वीरा को अपनी ओर देखता हुआ पाया। उससे नज़रें मिलते ही वीरा दूसरी ओर देखने लगी।
कुछ देर में वीरा का स्टॉप आ गया। उसके उतरने के बाद उस युवक जिसका नाम 'समीर' था को अचानक ख्याल आया कि उसने वीरा को धन्यवाद भी नहीं कहा।
"क्या सोच रही होगी वो की मैं कितना अशिष्ट हूँ। अगर कभी वो मिली तो जरूर धन्यवाद कहूँगा।" समीर ने मन ही मन खुद से कहा।
आज नौकरी के लिए समीर को इंटरव्यू देने जाना था, लेकिन देर रात तक पढ़ाई करने की वजह से सुबह उसकी आँख देर से खुली। जिसका नतीजा था कि वो दौड़ता-भागता बस स्टॉप तक पहुँचा। तेज दौड़ने के कारण उसकी हालत खराब हो गयी थी। लेकिन अब थोड़ी देर बैठ लेने के बाद वो सहज महसूस कर रहा था और इंटरव्यू के लिए पूरी तरह तैयार भी।
उम्मीद के मुताबिक समीर का इंटरव्यू बहुत अच्छा हुआ और उसे थोड़ी देर इंतज़ार करने के लिए कहा गया।
उसने सोचा क्यों ना तब तक चाय पी ली जाए और वो कंपनी के कैंटीन की ओर बढ़ गया। वेटर को चाय के लिए बोलकर वो एक टेबल पर बैठ गया और वहां रखा अखबार पढ़ने लगा।
तभी रसोई का सामान लिए वीरा वहां पहुँची और समीर को बैठा देखा। वेटर जब समीर की चाय लेकर जाने लगा तो वीरा ने उससे चाय का कप ले लिया और खुद समीर के पास गई।
''आपकी चाय'' सहसा ये आवाज़ सुनकर समीर चौंका। उसे बस वाली बात याद आयी और उसने कहा "जी वो मैं आपसे...."
"धन्यवाद कहना चाहता था" आगे की बात वीरा ने पूरी की और हँसती हुई चली गयी।
समीर झेंप गया और जल्दी-जल्दी चाय खत्म करके वहां से चला गया।
आखिरकार इंतज़ार समाप्त हुआ और समीर को उसका जॉइनिंग लेटर मिल गया।
अगले दिन वक्त से कुछ पहले ही समीर दफ्तर पहुँच गया और चाय पीने के लिए कैंटीन में चला गया। वीरा काउंटर पर बैठी एक स्टाफ को सामान की सूची लिखवा रही थी।
आज हिम्मत करके समीर ने वीरा से पूछा "क्या आप यहां काम करती है ?"
"हाँ" वीरा ने जवाब दिया और समीर से उसके बारे में पूछा।
समीर ने भी अपनी नई नौकरी के बारे में बताया और चाय पीकर दफ्तर की ओर चला गया।
यूँ ही दिन गुजरते जा रहे थे। अब सुबह और शाम की चाय पर समीर और वीरा दोनों को एक-दूसरे के साथ कि आदत हो चुकी थी। ना जाने किस अनजानी डोर ने दोनों को बांध दिया था।
अपने माता-पिता के गुजरने के बाद वीरा इस दुनिया में अकेली थी। अपना खर्च चलाने के लिए वो इस कैंटीन का जो उसके चाचा का था, उसका काम देखती थी। और अनाथ समीर के पास भी अपना कहने के लिए कोई नहीं था। एक-दूसरे में दोनों को जैसे एक सहारा मिल गया था इस बड़ी सी दुनिया में।
जब वीरा को पता चला कि थोड़ी बचत की खातिर समीर दोपहर का खाना नहीं खाता तो उसने जबरन उसके लिए कैंटीन से थाली भेजना शुरू कर दिया। समीर ने मना करना चाहा तो वीरा ने कहा "ये अहसान नहीं एक दोस्त का हक है।"
फिर समीर कुछ नहीं कह सका।
यूँ तो समीर को अपनी असल जन्मतिथि नहीं मालूम थी लेकिन सर्टिफिकेट वाली उसकी जन्मतिथि दो दिनों के बाद आने वाली थी।
दफ्तर में एक बोर्ड पर मौजूदा महीने में पड़ने वाले सहकर्मियों की जन्मतिथि की सूचना लगी रहती थी। वीरा ने भी आते-जाते इस महीने की सूची में वहां समीर का नाम देखा और मन ही मन कुछ सोचकर मुस्कुरा उठी।
जन्मदिन की पूर्व संध्या पर जब शाम की चाय पीकर समीर अपने घर चला गया तब कुछ घंटों बाद वीरा ने घबराए हुए स्वर में उसे फोन किया "समीर, प्लीज जल्दी कैंटीन आ जाओ" और फोन रख दिया।
घबराया समीर तुरंत घर से निकल गया। कैंटीन खुला था पर चारों तरफ अंधेरा था।
उसने आवाज़ लगाई "वीरा...."
और तभी रोशनी आ गयी। कैंटीन की सजावट और टेबल पर बड़ा सा केक देखकर समीर एक पल के लिए हैरान रह गया और फिर अचानक ही गुस्से से भरकर कहा "मुझे ऐसा घटिया मज़ाक बिल्कुल पसंद नहीं। जा रहा हूँ मैं।"
तभी छुपी हुई वीरा सामने आ गयी और उसे रोकते हुए बोली "इसमें घटिया मज़ाक वाली क्या बात है ?"
"ये घटिया मज़ाक नहीं तो और क्या है ? तुम्हें पता है फोन पर तुम्हारी घबराई हुई आवाज़ सुनकर मेरे मन में कैसे-कैसे ख्याल आ रहे थे ? ऐसा लग रहा था जैसे आज रास्ता भी खत्म ही नहीं होगा और...." बोलते-बोलते समीर की आवाज़ भर्रा गयी।
"मुझे माफ़ कर दो प्लीज, मैं बस तुम्हें सरप्राइज देना चाहती थी। आज का गुस्सा फिर कभी निकाल लेना लेकिन आज मुझे मेरे सबसे अच्छे दोस्त का जन्मदिन मनाने दो।
देखो मैंने कान पकड़े। अब ऐसा नहीं करूंगी।" कहते हुए वीरा ने अपनी बजाय समीर के कान पकड़ लिए।
वीरा की इस हरकत पर समीर हँस पड़ा और उसके साथ वीरा भी।
"अब मेरे कान छोड़ो, तब तो मैं केक काटूंगा"
"अरे हाँ, ये तो मैं भूल ही गयी"
और फिर से दोनों हँस पड़े।
एक पैकेट समीर को देकर वीरा ने कहा "पहले कपड़े बदल लो। पुराने कपड़ो में जन्मदिन नहीं मनाते।"
"अब मैं कपड़े कहाँ जाकर बदलूँ ?"
"यहीं बदल लो, कहीं जाना क्यों है ?"
"तुम्हारे सामने ?"
"क्यों मेर सामने बदलने से क्या होगा ?" वीरा ने शरारत से कहा।
"नहीं, होगा तो कुछ नहीं" कहता हुआ समीर भी शरारत से मुस्कुराया और अपनी कमीज के बटन खोलने लगा।
"अरे रुको, तुम तो सीरियस हो गए। तुम कपड़े बदलो मैं बाहर इंतज़ार कर रही हूँ।"
वीरा के वापस आने पर समीर ने पूछा "तुम्हें कैसे पता चला नीला रंग मेरा पसंदीदा है ?"
"कुछ बातें पता चल जाती है समीर बाबू। आइए अब केक काटिये।" वीरा ने कहा और उसके हाथ में चाकू थमा दिया।
केक काटने के बाद वीरा ने एक टुकड़ा समीर को खिलाया और अचानक से केक की ढेर सारी क्रीम लेकर उसके चेहरे पर मल दी। जिसका बदला समीर ने भी इसी तरह लिया।
पूरा केक उन दोनों के इसी खेल में खत्म हो चुका था।
उनके सम्मिलित ठहाकों से कैंटीन गूंज रहा था।
थोड़ी देर बाद अपने-अपने चेहरे साफ करके दोनों चाय का कप लेकर बैठे।
"अच्छा मैं एक बात पूछूँ ?" वीरा ने कहा।
"बिल्कुल पूछो।"
"तुम मेरे फोन से इतना ज्यादा क्यों घबरा गए थे ?"
"क्योंकि मैं तुम्हें नहीं खो सकता वीरा।
अगली बार से कभी ऐसा मज़ाक मत करना। वरना मेरी धड़कन ही रुक जाएगी। बेपनाह मोहब्बत हो गयी है तुमसे" कहते हुए समीर ने उसका हाथ थामकर अपने सीने पर रख लिया।
वीरा एकदम से खामोश हो गयी।
"मुझे माफ़ कर दो शायद भावना में बहकर मैंने कुछ गलत कह दिया।"
नहीं, नहीं, खामोशी तोड़ते हुए वीरा बोली "मैं वो बस खुशी के मारे खामोश हो गयी थी।"
"फिर तो मुझे सारी जिंदगी तुम्हें खुश रखना होगा ताकि तुम ऐसे ही खामोश रहो वरना तुम्हारी बकबक से तो मैं सरदर्द का मरीज हो जाऊंगा।" समीर ने बीमार जैसा मुँह बनाते हुए कहा।
उसे यूँ देखकर वीरा हँस पड़ी।
"खुश तो तुम मुझे रखोगे ही जानती हूँ मैं।"
"लेकिन इस वक्त मेरी आर्थिक स्थिति जानती हो तुम" उदास लहजे में समीर ने कहा।
"तुम्हें किसने कहा कि दुनिया भर की दौलत और बड़े से महल में खुशी मिलती है ?
खुशी मिलती है प्यार से, अपनेपन से, सम्मान से, जो मैं जानती हूँ तुम मुझे दोगे।
और रही आर्थिक स्थिति को ठीक करने की बात तो उसके लिए हम दोनों मिलकर मेहनत करेंगे। तुम्हारी नौकरी और मेरा कैंटीन। अगर तुम्हारा मेल ईगो हर्ट ना हो तो।"
"तुमने क्या मुझे दकियानूसी सोच वाला समझा है जो अपनी पत्नी की काबिलियत को बर्दाश्त नहीं कर सकते ?"
"बिल्कुल नहीं, इसलिए तो मैं तुम्हें इतना पसंद करती हूँ, क्योंकि मुझे यकीन है तुम मुझे मेरी पहचान बनाने की ख्वाहिश पूरी करने से नहीं रोकोगे" समीर की आँखों में देखकर वीरा बोली।
यूँ ही बातें करते, अनगिनत सपने सजाते कब रात बीत गयी दोनों को पता नहीं चला।
"देखो तुम्हारी बकबक में पूरी रात बीत गयी। अब मुझे इतनी तेज नींद आ रही है। मैं दफ्तर कैसे जाऊं ?"
"तो छुट्टी ले लो ना, आज कौन मना करेगा। मैं भी चली आज छुट्टी लेकर नींद पूरी करने।"
"ठीक है, शाम को मिलते है" कहकर समीर चला गया।
शाम को पार्क में समीर के कंधे पर सर टिकाए वीरा बैठी थी। दोनों के बीच मौन पसरा था।
"आज से पहले कभी शाम इतनी हसीं नहीं लगी" मौन तोड़ते हुए समीर ने कहा।
हाँ, क्योंकि आज से पहले हमारी मोहब्बत जो नहीं थी।"
"मोहब्बत तो थी, तभी तो इस बड़ी सी दुनिया में हम अचानक ही मिले और एक-दूसरे के करीब आ गए, नहीं था तो बस इस मोहब्बत का अहसास।
जब पहली बार तुम्हें बस में देखा था तुम्हारी जगह पर बैठते हुए तब ही तुम्हारा चेहरा, तुम्हारी आवाज़ सब पता नहीं क्यों अपना सा लगा था, लेकिन इंटरव्यू के तनाव में मैं तुम्हें धन्यवाद तक कहना भूल गया।
उस पूरे दिन मैं बस यही गुनगुना रहा था
एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा...."
"अरे, तुम्हें तो गाना भी आता है। अब से जब भी मैं रूठूँ मुझे यही गाना गाकर मना लेना"
"वादा", कहते हुए समीर ने घास का एक तिनका तोड़कर वीरा की ऊँगली के इर्द-गिर्द लपेट दिया। "फिलहाल तो मैं बस तुम्हें यही दे सकता हूँ।"
"ये जो तुमने मुझे दिया है ये कोई मामूली चीज नहीं है। ये हमारे प्यार का वो खूबसूरत लम्हा है जो हमेशा-हमेशा के लिए मेरी ऊँगली से लिपट गया है। जिसकी खुशबु हमेशा हमारे रिश्ते को तरोताजा रखेगी। समझे बुद्धूराम।"
"हाँ समझा, अब चलो वरना कल भी छुट्टी करनी पड़ेगी" और दोनों उठ खड़े हुए।
यूँ ही हँसी-खुशी एक-दूसरे के साथ जीते हुए दोनों अपनी ज़िंदगी में आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे थे।
आज दफ्तर में प्रोमोशन की सूचना मिलने वाली थी। समीर को अपनी मेहनत पर पूरा भरोसा था लेकिन उसका ये भरोसा दफ्तर में मौजूद चाटुकारों के आगे हार गया।
शाम को निराश समीर चुपचाप कैंटीन में बैठा था।
"तुम्हें अपने बॉस से बात करनी चाहिए" चाय लाते हुए वीरा बोली।
"सच पूछो तो मैं जो मुकाम हासिल करना चाहता हूँ वो नौकरी से मुमकिन ही नहीं है। लेकिन इस वक्त व्यवसाय के लिए ना मुझमें आत्मविश्वास है ना पूंजी" समीर ने उदासी से कहा।
"आत्मविश्वास क्यों नहीं है भला ? मुझे जो इतना भरोसा है तुम पर, तुम्हारी काबिलियत पर तो इसी भरोसे पर भरोसा करके आगे बढ़ो और रही पूंजी की बात तो उसका भी कुछ ना कुछ रास्ता निकाल लेंगे" समीर का हाथ थामकर वीरा ने कहा।
"क्या रास्ता"
"मेरे पास एक छोटा सा घर है और माँ के कुछ जेवर, उनके बदले हम बैंक लोन ले सकते है और तुम अपना काम शुरू कर सकते हो"
"ये तुम क्या कह रही हो ? मैं ऐसा नहीं कर सकता। मान लो मैं असफल हो गया या तुम्हें धोखा देकर भाग गया तो ?"
"पहली बात तुम असफल नहीं होगे। तुम्हारी काबिलियत जानती हूँ वरना मैं अपने माँ-पापा की अमानत तुम्हें नहीं सौंपती और दूसरी बात मुझे लोगों की इतनी समझ तो जरूर है कि कौन भाग सकता है कौन नहीं" वीरा ने समीर की आँखों में देखकर कहा।
उसका यकीन देखकर समीर में हिम्मत आयी और उसने वीरा के साथ मिलकर अपने व्यवसाय की योजना बनानी शुरू कर दी।
छोटे स्तर से शुरू करके चंद वर्षों में ही अपनी मेहनत और लगन से समीर ने "समविरा मैन्युफैक्चर्स" को बच्चों के खिलौनों के बाजार में एक जाना-पहचाना नाम बना दिया और वीरा के गिरवी रखे घर और जेवर भी वापस ले आया।
आज वीरा और समीर की पहली मुलाकात की पांचवी सालगिरह थी।
दोनों उसी पार्क में बैठे थे जहां वो समीर के पहले जन्मदिन पर आए थे।
"याद है इसी जगह मैंने तुम्हारी ऊँगली में घास का तिनका लपेटा था।"
"बिल्कुल याद है और मोहब्बत का वो पहला तोहफा मैंने आज भी संभाल कर रखा है।"
समीर ने अपनी जेब से हीरे की एक खूबसूरत अंगूठी निकालकर वीरा की ऊँगली में पहनाते हुए कहा "और आज इसी जगह पर ये अंगूठी पहनाते हुए मैं तुमसे पूछना चाहता हूँ मुझसे शादी करोगी मेरी लकी चार्म ?"
"ये तो बहुत महँगी होगी" वीरा ने हैरानी से कहा।
"तुम्हारे प्यार और यकीन की बदौलत ही आज मैं इस लायक बन सका कि तुम्हें ये तोहफा दे पा रहा हूँ। मेरा जो कुछ भी है तुम्हारा ही तो है।
अब मेरे सवाल का जवाब दो।"
"अगर मैंने ना कह दिया तो" वीरा ने शरारत से कहा।
"तो क्या तुम्हें उठाकर ले जाऊंगा"
"तो फिर ले चलो"
"ठीक है शादी की सारी शॉपिंग करके अगले इतवार को तैयार रहना। बन्दा हाज़िर हो जाएगा अपनी ज़िंदगी को ले जाने"
और दोनों हँस पड़े।
आखिरकार वो घड़ी आ गयी थी जिसका उन्हें बेसब्री से इंतज़ार था। कल एक सादे समारोह में चंद दोस्तों की उपस्थिति में समीर और वीरा की शादी थी।
वीरा अंतिम बार अपनी शादी का जोड़ा पहन कर देख रही थी कि सब ठीक है या नहीं, तभी उसके फोन की घण्टी बजी।
"मैडम आप जल्दी आ जाइये, समीर सर को पता नहीं क्या हो गया है" समीर के फोन से किसी अजनबी ने कहा।
उसने जो पता दिया था वो शहर में बन रहे नए मॉल का था।
वीरा जब वहां पहुँची तो उस अजनबी ने उसे मॉल के एक रेस्टोरेंट का पता दिया। रेस्टोरेंट का दरवाजा खोलकर जब वो अंदर गयी तो चारों तरफ अंधेरा था। एक पल के लिए वीरा घबराई और फिर अपने फोन की रोशनी में देखने की कोशिश की तो उसे सामने टेबल पर एक केक रखा दिखा। वो तुरंत समीर की शरारत समझ गयी।
"समीर... बाहर आओ बदमाश" वीरा ने गुस्से से कहा।
बल्ब ऑन करके समीर वीरा के सामने हाज़िर हो गया।
इससे पहले की वीरा कुछ कहती समीर ने कहा "याद है उस दिन तुमने कहा था इस बात का गुस्सा फिर कभी निकाल लेना तो मैंने सोचा शादी के पहले का हिसाब शादी करने से पहले ही बराबर हो जाना चाहिए। वैसे भी बीवी के बेलन की मार बड़ी तगड़ी होती है सब कहते है।"
समीर की बात सुनकर वीरा गुस्सा भूलकर हँस पड़ी।
"आओ केक काटो अब" वीरा को चाकू देते हुए समीर ने कहा।
"पर ये केक किसलिए"
"पहले काटो तो"
वीरा के केक काटते ही समीर ने केक से उसका चेहरा रंग दिया और फिर उसके हाथ में एक पैकेट देते हुए कहा "मेरी जन्मों-जन्म की साथी के लिए एक छोटा सा तोहफा।"
वीरा ने पैकेट खोला तो उसमें इसी रेस्टोरेंट के कागजात थे जो वीरा के नाम पर थे। वो हैरानी से उन्हें देख रही थी।
अब तुम्हें कहीं और काम करने की जरूरत नहीं। आज से अभी से तुम अपनी मर्ज़ी की और इस रेस्टोरेंट की मालकिन हो। जैसे चाहो चलाओ और अपने नाम के साथ इसे आगे बढ़ाओ।
वीरा की आँखों से सहसा आँसू बह चले।
आँसू पोंछते हुए वीरा को बाँहों में थामे हुए समीर बोला "अरे मैडम हमें अभी ज़िन्दगी में बहुत आगे जाना है और आप है कि अभी ही आँसुओं की बाढ़ में हमें डूबा रही है।"
"बहुत बातें बनाना सीख गए हो"
"हाँ किसी की संगत का असर है"
"अच्छा जी, हम भी तो जाने कौन है वो"
"कल बताऊंगा"
और दोनों वहां से निकल गए।
अगले दिन शादी के मंडप में वीरा को दुल्हन के रूप में देखते ही समीर गुनगुना उठा "एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा..."
वीरा का चेहरा समीर के गाने से और भी खिल उठा।
वहां मौजूद तमाम लोगों के साथ-साथ ईश्वर भी उन दोनों की मुकम्मल मोहब्बत के साक्षी बन रहे थे।