Mukul Kumar Singh

Inspirational

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Mukul Kumar Singh

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एक भिखारिन का बेटा

एक भिखारिन का बेटा

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जी हां। एक भिखारिन का बेटा है। यही उसकी असलियत है और वह इसे छिपा भी नहीं सकता है। क्योंकि हमारा मानव समाज बड़ा हीं निर्मम है जहां दूसरों की दूर्बलता का उपहास कर स्वयं को श्रेष्ठ साबित करना चाहता है। उपर से आर्थिक रूप से मजबूत नहीं है तो मत पूछो लोगों ने उसे तिल - तिल कर भिखारिन के बेटे को आग में जलाया। किसी ने उस पर दया नहीं दिखाई और न हीं कोई सहानुभूति। जन्मदात्री, अन्यान्य रिश्तेदार, पत्नी, संतान एवं मित्रों ने सबके सब जिसे जब सुयोग मिला - रहने दें तुम क्या बोलोगे तुम्हारी तो मां भीख मांगती है और एक दिन तुम भी भीख मांग कर जीवन काटोगे। ऐसा नहीं कि वह भी भीख मांगता था वरन एक स्वाभिमानी, उच्च शिक्षित, एक प्रभावी वक्ता, देशप्रेम की भावना से ओत-प्रोत तथा न जाने कितने छात्रों को सैनिक, पुलिस में भर्ती के लिए प्रोत्साहित किया है। अनगिनत छात्रों को बिना फीस के ट्यूशन पढ़ाया। परन्तु उसके छात्रों ने भी उसके साथ अकृतज्ञता हीं उसकी झोली में भर दिया। उसका हृदय रोता रहा पर कभी भी किसी का अहित नहीं चाहा। हालांकि वह आलसी या काम चोर भी नहीं है। फिर भी ज्येष्ठ-आषाढ़ के आकाश की ओर कृषक काले -काले मेघों को देख कर हर्षित होता है कि आज तो बारिश होगी पर देखते - देखते आंखें पथरा जाती है और धरती प्यासी रह जाती है एवं किसान अगले दिन इन्द्र देव की आस लगाए रह जाता है पर बरसा की एक बूंद के दर्शन नहीं होते हैं। पता नहीं न जाने कितने इन्टरव्यू दिए हैं लेकिन कौन सी कमी रह गई जहां सरकारी - प्राइवेट नौकरी के दरवाजे बन्द हो जाया करता था। मित्रों के परामर्श पर बिजनेस में कदम रखा। शुरुआत तो बड़ी अच्छी होती है और छः महीने बीतते हीं गणेश उल्टा होने लगता है और देखते देखते सारी पूंजी समाप्त। बारिश नहीं हो रही है - नहीं हो रही तत्पश्चात इतनी बारिश होती है कि नदी में बाढ़ आ गई तथा गांव के गांव को एकदम मटियामेट कर दिया। दो बेला का भोजन भी उसे टाटा-टाटा-बाय-बाय कर दिया।

बस आत्मविश्वासी था और ट्यूशन पढ़ाना कभी छोड़ा नहीं था। अतः उदरपुर्ति के लिए कभी भी अपने हो या पराये के सामने हाथ नहीं फैलाया। जब उसने देखा कि आमदनी का मार्ग उसके लिए कभी भी नहीं खुलेगा तो अपनी जीवन रुपी नैया को नदी के जलधारा के उपर सौंप दिया और दृढ़ निश्चय कर लिया यदि जीवित रहना है तो अवश्य जीवित रहेगा एवं जीवित रहने के लिए संघर्ष करना है तो वह पीछे नहीं भागेगा। वह लड़ेगा पर हार नहीं स्वीकार करेगा। परन्तु यह उसकी व्यक्तिगत लड़ाई बन कर परिवार के सदस्यों के द्वारा ताने सुनने व अपमानित होने का सहज पथ प्रशस्त कर दिया तथा प्रत्येक सांस,खाने,शयन के पुर्व गरल पान करने के लिए अवसर प्रदान किया। वो लोग कहते हैं न जिसकी पत्नी जितना ज्यादा पति को खरी-खोटी सुनाती है वह उतना ही पति को पूजती है। ऐसे सम्भाषन पर उसे हंसी आती है क्योंकि ये नारियां यदि आप भूखे हो तो भोजन का निवाला गटकते - गटकते भूख की हत्या कर देती है, आंखों की नींद को भगा देती है। इस हठधर्मी ने एक दिन परिवार के सदस्यों के साथ भी ज्यादा बात चीत न करने का निर्णय ले लिया। इस पर भी किसी को शांति न मिली क्योंकि अब सुनने को मिली शायद बाहर वाले की तुलना में घर के लोग से घृणा करता है। प्रतिक्रिया स्वरूप पुरुष जाति के द्वारा नारियों को भोग की वस्तु एवं पुरुष चरित्र हीन होता है कि नई कविता सुनने को मिला साथ ही साथ एक रुपया कमा सकता नहीं है कमकोढ़िया कहीं का। एक दिन नारी अधिकार पर आयोजित एक समारोह में वक्ताओं के सूची में  आमंत्रित हुआ। बड़ा आश्चर्य हुआ उसे अपने आप पर कहीं उसका मूल्यांकन महाभारत काल भीष्म पितामह की तरह नहीं न होने लगी है। सारे योद्धा उसकी शक्तियों से परिचित थे फिर भी बार बार वह अपमानित हुआ और तो और वाणों की शय्या पर लेटे-लेटे शारीरिक यंत्रणाएं भुगतनी पड़ी तब जाकर जीवन से मुक्ति मिली। आखिर समारोह में उपस्थित हुए। सभागार में बैज एवं उतरिय पहना कर स्वागत किया गया तथा मंच पर उसे आसन प्रदान किया गया। पूर्व वक्ताओं  ने नारी एवं पुरुष की समानता व नारियों के अधिकारों पर लच्छेदार भाषण दिया सबने बड़े गर्मजोशी से तालियां बजाईं। सबसे अंत में जैसे एक उपेक्षित व्यक्ति हो। परन्तु उसने अपने आप को भीष्म पितामह के छाया से दूर रखा। मन ही मन सोचा कि मेरे लिए मान-सम्मान-अपमान व्यर्थ है क्योंकि एक भिखारिन के बेटे को तो मानव समाज यही देता आया है, आज कोई नई बात नहीं है और दर्शक दीर्घा से श्रोताओं ने विदा लेना भी आरंभ कर दिया था। उद्घोषक महोदय ने उसे वक्तव्य रखने के लिए आमंत्रित किया। मुस्कुराते हुए डायस पर पहुंचे तथा दर्शकों को अपनी हार्दिक शुभकामनाओं के साथ विचारों को व्यक्त किया - उपस्थित मातृशक्ति एवं नारी समाज के शुभानुध्यायी आज हमारे देश में अनगिनत समस्याओं पर बहसबाजी तो होती रहती है और उसके लिए नित नए नए कानून बनाए जा रहें हैं नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने के लिए परन्तु बहस एवं कानून का लाभ क्या होगा जहां जनता जनार्दन स्वयं ही सचेत नहीं होंगे। नारी एवं पुरुष दोनों ही प्रकृति प्रदत्त हैं ताकि आने वाली भविष्य का निर्माण हो सो एक छत के तले रहना आवश्यक है। अतः दोनों को हीं एक दूसरे के अधिकारों को समझना होगा। मात्र पुरुषों के द्वारा पीड़ित है, शोषित है नारियां ऐसा कहने मात्र से समाज को तोड़ने की प्रक्रिया अपनाकर कोई भी नारी क्रांतिकारी नहीं बन सकती है। उसी प्रकार से पुरुषों को ताने देना, माता पिता से अलग हो जाने को उकसाना, उसके चरित्र पर उंगली उठाना, उसके योग्यता और जीवनशैली की हंसी उड़ाना कतई उचित नहीं है। अब मैं उस प्राथमिक आवश्यकता पर आप सभी का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा एक नारी पुत्री के रूप में पालित हो रही होती है बाल्यकाल से हीं दादी-नानी, मां - मासी - जेठी या चाची उस बालिका के मन में घृणा का बीज बोने लगती है ऐसा करना सीख लें नहीं तो ससुराल वाले कहेंगे तुम किसी काम की नहीं हो और तुम्हे मारेंगे -पिटेंगे। कोई यह नहीं सोचा कि ऐसी बातें उस बालिका के हृदय में विक्षोभ को जन्म देगी। ससुराल वाले उसे प्रताड़ित करेंगे आखिर क्यों? तथा विद्यालय में, घर में पढ़ाया जा रहा है कि लड़का - लड़की में कोई भेद नहीं है परन्तु हम कहने को कह देते हैं लेकिन जैसे हीं एक लड़की किसी लड़के से बातें की लड़की के घर में नारी सदस्य हीं उसके चरित्र पर उंगली उठाना आरम्भ कर देते हैं। यह तो दोमुंहा बात हो गई ना। एक ओर आप कहते हो नारी पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर काम करेंगे तो देश की विकसित होने की गति में वृद्धि होगी। नागरिकों का जीवन स्तर मान ऊंचा होगा। अब जरा सोचो नारी एवं पुरुष की प्रकृति जब अग्नि व पेट्रोल की है तब ऐसे संपर्क पर समाज को मान्यता देनी होगी तथा उसे गंदी विचार धारा में प्रवाहित करेंगे तो परिणति बुरा आएगा। अतः हमारे समाज को इसे स्वीकार करना पड़ेगा। प्रत्येक परिवार में बेटियों पर विश्वास करें वो अपना अच्छा -बुरा समझती हैं। यदि उनके जीवन में आप बढ़ावा दे कर पीछे से उसका पैर पकड़कर खींचेंगे तब वह गिर पड़ेगी और अपनी योग्यता का उपयोग नहीं कर पाएंगी। सभागृह में तालियों की गड़गड़ाहट गुंज उठी। इसी बीच वह मंच से उतर कर बाहर निकल आया। बस बाहर निकलते समय एक बार सभागृह को देखा एक भी आसन खाली नहीं है। कई दिनों तक प्रशंसा करने वालों का तांता लगा रहा। श्रीमती जी अतिथियों का यथासाध्य स्वागत करती रही। परन्तु वह अन्दर से सशंकित था पता नहीं कब बिन बादल के बरसात होने लगेगी।

प्रातः काल की ट्यूशन से अभी निवृत्त नहीं हुआ था और श्रीमती अपने स्वभावनुसार हम सब कर सकते हैं ज्येष्ठ मास की ज्वाला लिए घर की चाल पर चढ़ गई तथा पके आमों के गाढ़े घोल को अमावट सूखाने के लिए सूपों एवं थालियों में फैला रही थी। अचानक चाल पर झुप -झाप की ध्वनि सुनाई देने लगी। वह समझ गया कि पके आम तोड़ रही है और पुत्री के लिए निर्देश आता है - ओ मां, क्या कर रही है? पुत्री भी एक दम चार सौ चालीस वोल्ट का झटका झेलती हुई - एं क्या हुआ, प्रत्युत्तर देती है।

थोड़ा टाली पर रखा हुआ 'लगा' तो देना।

ठीक है अभी देती हूं कहकर बाहर निकली। एक - दो पल की देर होती है। तब तक आठ -दस पके आम भूपति बन चुका था। पुत्री 'लगा' देकर गिरे हुए आमों को चुनने लगी। घर में पढ़ रहे बच्चे बाहर देखने लगे। उनके आम संग्रह करने वाली स्वभाव हिल्लोरे मारने लगी तथा विभिन्न बहाने बनाकर लगे आमों को चुनने लगे। यह देख ज्येष्ठ की पसीने से लथपथ काया में बाढ़ आ गई तथा नदी बांध तोड़ कर प्रवाहित होने लगी। और पुत्री को प्रायः तमतमाए टोन में ही बोली - तेरा बाबा क्या कर रहा है। उसको दिखाई नहीं दे रहा है यहां आम तोड़े जा रहें हैं और बच्चों को आम संग्रह करने के लिए छोड़ दिया है। इसके पास कामनसेन्स है ही नहीं। पुत्री सहम जाती है कि कहीं बाबा क्रोधित न हो जाएं। मां को धीरे से बोली - मां कूल - कूल। 

क्यों मैं क्या डरपोक हूं जो चूप रहूंगी। उसने कभी ध्यान दिया है घर पर, बस बैठ गया तो बैठ गया। पता नहीं कब इसका विवेक जागेगा।

मां। बाबा तो पढ़ा रहे हैं। उनके उपर क्यों बरसने लगी। पुत्री समझ रही थी कि बाबा यदि कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त करेंगे तो मां का ज्वालामुखी उद्गार होकर रहेगा। क्योंकि रायफल शूटिंग के स्थान पर मशीनगन बर्स्ट करती है।

अरे तू चुप रह। मैं क्या नहीं पढ़ाती हूं जो मुझे सिखा रही है। एक दम कोढ़िया है। मुझे तो एक साथ कई कार्य करने पड़ते हैं। इससे कुछ नहीं होने वाला है। एक छात्र को ट्यूशन के लिए बुला नहीं सकता है वो तो मैं हूं जो मेरे द्वारा क्लास फोर पास किये हुए छात्रों को दे देती हूं वरना ठन-ठन गोपाल। फिर भी मेरा नाम नहीं लेता है। दोनों मां-बेटे बेईमान है। इसी से तो बुढ़िया को भीख मांगना पड़ा था। लगातार आग की लपटें निकल रही थी तथा उसकी तपिश में वह झुलसे जा रहा था। आखिर कब तक सहता। उसके कानों में गर्म पिघला हुआ लावा प्रवेश कर रहा था। फिर भी अपने को नियंत्रित रखने का प्रयास किया। बड़े हल्के से कहा कि इन बातों में मेरी मरी हुई मां को क्यों घसीट रही हो।

क्यों नहीं घसीटूंगी। तेरी मां भिखारिन थी और तू उसी का बेटा है। और तब तक बोलती रहूंगी जब-जब मेरी आत्मा जलेगी। तुने परिवार के लिए एक भी रुपया कमा कर रखा है। हमारी पुत्री भी बड़ी हो गई है कभी उसके विवाह के बारे में सोचा है। तू यदि कमाता तो तेरी मां को क्यों भीख मांगनी पड़ी। 

उसके शरीर में में बिजली के झटके महसूस होने लगी। कपाल पर पसीने की बूंदें छलक आए। किसी तरह से अपने को नियंत्रित रखा। आम चूनने गये छात्र अपने स्थान पर लौट आए। उसने आंखें बंद कर ली और गर्दन जमीन की ओर झुक गई। वह नहीं चाहता था कि बच्चों को पता चले कि सर अपने आप को अपमानित अनुभव कर रहे हैं। और पांच मिनट बाद हीं सबको ट्यूशन से छुट्टी दे दी। बच्चों के जान के बाद आंखें छलछला उठी परन्तु बड़ी हीं चालाकी के साथ पोंछ लिया। परिवार में संग हीं संग ऐसे सम्भाषन से बच भी नहीं सकता है अतः सारे खरी-खोटी सुनना हीं होगा। भूख पर विराम लग चुकी थी परन्तु ऐसा करना उसे पसन्द नहीं है। यदि भूखा रहेगा तो भविष्य में अपमान झेलने की शक्ति नहीं रहेगी। सो आंधी आती - जाती रहेगी और वटवृक्ष बन धक्के खाने का अभ्यास होना चहिए। स्वल्पाहार के पश्चात सायकल को संगिनी बना बाहर निकल पड़ा। 

तभी कर्कश स्वर में फोरमैन की आवाज सुनाई देती है - जा कहां रहे हो सुनु तो जरा।

कुछ आवश्यक कार्य है।

मुझे भी पता है कौन सा कार्य है। किसी बंधु-बांधव से भेंट होगी और हंसी-मजाक में डूबे रहो। सच्ची बात कहने पर बूरा तो लगेगा हीं। घर की आवश्यकता पुरी कर दो कुछ नहीं कहूंगी परन्तु मेरे कष्ट जब-जब मुझे रुलाएगी मैं अपने मृत्यु काल तक तुझे भिखारिन का बेटा कहती रहूंगी।

पत्नी बड़-बड़ करती रही और वह तो दूर जा चुका था। कुछ देर सायकल चलाकर गया फिर हैण्डल एक हाथ में थामे पर भूले मुसाफिर की तरह मंजिल की तलाश में चला जा रहा था। रह-रहकर मस्तिष्क में बस एक हीं बात उमड़ - घुमड़ रही थी कि अरे मूरख पुरुष तेरा मोल एक कौड़ी भी नहीं है। यदि तुम किसी भी तरीके से रुपए कमाओ भले हीं चोरियां करो,डाके डालो, लोगों को ठगों कोई पाप नहीं है। यदि तेरे पास रुपए हैं तो तेरे सारे दूर्गुण ढंक जाएगी और मानव समाज में लोग तेरा सम्मान करेंगे। लानत है तुम पुरूषों पर केवल वंशवृद्धि के अलावा कोई मोल नहीं है। तू मुल्यहीन है। सायकल ठेलते - ठेलते कब निकट हीं रेलवे स्टेशन तक पहुंचा । वहां पहुंच कर एकाएक ख्याल आया वह यहां क्यों आया है! सायकल को गैरेज के हवाले कर प्लेटफार्म पर आ खड़ा हुआ और लोगों की भीड़ को निहारने लगा। लोकल ट्रेन में सवार होने वाले यात्रियों की आपाधापी, टिकट चेकरों के डर से विदाउट टिकट यात्रियों की चपलता देखने  लायक थी। फिर वहां से प्लेटफार्म के अंतिम छोर की ओर कदम घूमा दिया। प्लेटफार्म के मध्य में कई बड़े - बड़े छायादार पेड़ थे जिसके तले कई जोड़े भविष्य के सपनों पर विचार - विमर्श करते हुए दिखाई दिए। वे लोग अपने आप में इतने डूबे हुए हैं कि उन्हें आस-पास क्या हो रहा है शायद ज्ञान न हो। इन्हें देख उसे हंसी आई जैसे अपनी परछाईं देख ली। वाह रे मानव समाज एक छत के नीचे रहेंगे और नारियां अपनी महानता को स्थापित करने के लिए पुरूषों को गालियां देती रहेंगी और पुरुष भी न जाने क्यों इन प्रताड़नाओं को पत्नी का निःस्वार्थ प्रेम कहकर हजम करता है। प्लेटफार्म पर यह सब देख मन उचट गया और स्टेशन के पश्चिम नदी की ओर चल पड़ा। नदी में ज्वार थी धीरे धीरे जलस्तर तटों को डूबोता जा रहा था। स्नान करने एवं बैठ कर समय कटाने के लिए पक्की सीढ़ियां बनी थी। घाट पर अच्छी-खासी भीड़ थी। वह नदी के जिस रूप को देखना चाहता है वो यहां नहीं मिलेगा। इसलिए घाट के बायें हल्की-हल्की झोप झाड़ से भरी मैदान थी उस तरफ जाकर छायादार स्थान पर जा बैठा। नदी का ज्वारिय जल का तट से छलाक - छलाक कर टकराने की आवाज सुनाई दे रही थी। नदी का पाड़ काफी चौड़ा। नदी के वक्ष स्थल पर नौकाएं डगमगाती हुई ज्वार के प्रवाह की दिशा में बह रही है। ऐसी बात नहीं की मांझी नहीं है। वह बड़े प्यार से मछली पकड़ने वाली जालों से कचरे निकाल रहा है। सूर्य का प्रकाश जलराशि से परावर्तित होकर नदी के वक्षस्थल को आइना बना दिया है। ज्वारिय लहरें उठती हैं गिरती हैं पर प्रत्येक लहरें नदी के दोनों किनारों तक नहीं पहुंच पा रही है। नदी के वक्षस्थल को देख कर मन-मस्तिष्क को बड़ी शांति मिली तथा प्रातः काल की जिस अग्नि की ज्वाला में जल रहा था उसका प्रशमन हो गया और अपनी जीवन के बीते हुए पलों को याद करता है जहां ढेर सारे बच्चे एक साथ स्कूल में पढ़ते थे। कोई भेद नहीं थी शिक्षक ने एक समान शिक्षा दिया। परन्तु फिर भी परीक्षा में एक समान परीक्षाफल नहीं मिला। माध्यमिक के पश्चात कालेज में एक साथ पढ़ने वाले साथियों की संख्या कम हो गई। ग्रेजुएशन पुरी करते-करते और भी कुछ साथी कम हो गये कारण जीवन युद्ध की लड़ाई में खोते चले गए और कालेज से निकलने के बाद नदी की जलधाराएं डाक्टर, इंजीनियर, वकील, क्लर्क,छोटा व्यापारी -बड़ा व्यापारी, रेलवे,डाक विभाग, दलाली, एजेंसी, पुलिस तथा सेना में जवान या अधिकारी बन कर एक दूसरे से दूर होते गए। कुछ को कृषक, शिक्षक तो कुछ उसके ऐसे ट्यूटर बन दाने -दाने के लड़ रहे हैं। अर्थात परीक्षाओं में सफलता सबको नहीं मिलती है इसलिए जीने के लिए कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा। वह भी यही कर रहा है। अतः निराश नहीं होना चाहिए। अब यदि उसकी मां भिखारिन थी तो थी वह तो भिक्षावृत्ति नहीं करता है। दुनिया वाले उसे भिखारिन का बेटा कहते हैं, इसमें उनका क्या दोष है। यही सच्चाई है। धीरे धीरे धूपिया जा रहा था और उसकी स्वयं की छाया एकदम छोटी होती जा रही है और उस स्थान को त्यागते समय आकाश की ओर देख मुस्कुरा उठा।



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