Mukul Kumar Singh

Inspirational

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Mukul Kumar Singh

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नौकरी

नौकरी

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योगेन्द्र घोष एक अवसर प्राप्त अधिकारी है। नौकरी से अवसर हुए पांच वर्ष हो चुके हैं पर भूत एवं वर्तमान में इतना बदलाव आ गया है कि चेहरे से चमक गायब हो गई है। रिटायरमेंट के दिन तक उसके अहंकार एवं वैषम्य में कोई कमी नहीं आई थी। जिनके संग बचपन गुजरा, माध्यमिक तक पढ़ाई की और यौवन के सुखमय अनुभव कपाया सबके सब जैसे हीं नौकरी मिली वो सभी अपने तन मन से निकाल फेंका। परन्तु आज पैंसठ वर्ष की सीढ़ी पर चढ़ कर उसी गंदे, असभ्य और मूर्खों के साथ रहकर हृदय के बोझ को हल्का कर लेता है। हालांकि उसके साथियों ने कभी भी उसे अपने से अलग नहीं समझा। अब यदि कोई अपने को ऊंचे वेतन एवं अपनी शिक्षा पर नाक चढ़ा ले तो औरों को क्या आवश्यकता है जो उसके सामने सर झुकाए। यही तो सच्चाई है कि अवसर प्राप्ति के पश्चात सबकी स्थिति एक हो जाती है। बड़े मजे की बात है नौकरी से अवसर प्राप्ति तथा भविष्य की पीढ़ियों के द्वारा नौकरी पाने की लड़ाई एक हीं सिक्के के दो पहलू। उसके हृदय में एक हूक सी उठती है कि आज उसके जीवन की सारी सुख सुविधाएं उपलब्ध है । सुन्दर सजा सजाया दो मंजिला मकान,मुल्यवान गाड़ी तथा दो बेटे और दोनों हीं वेल सेटेल्ड। आखिर कौन सी शुन्यता रह गई है। जिसकी पूर्ति नहीं हो रही है। इस प्रश्न का उत्तर ढुंढते - ढुंढते पांच वर्ष बीत गए। घर का काम करने के लिए नौकर - चाकर। ज्यादा से ज्यादा कभी कभार बाजार जाया करता है और सब्जियां खरीद लाता है। प्रति दिन की दिनचर्या मार्निंग वॉक एवं धीरे-धीरे बाल सखाओं के साथ बैठकर गल्प - गुजब परन्तु उसमें भी किसी से सहज होकर पेश नहीं हो पाया। उसका अन्तर्मन जैसे उस पर हंस रहा है। विशेष कर धर्म पत्नी के द्वारा कहे गए शब्दों में तो आज भी कोई परिवर्तन नहीं आया है 'तुमसे कुछ नहीं होगा एक दम मूरख हो' पूजा पाठ में कोई रुचि पहले भी न थी और इस समय तो छोड़ हीं दिया। कभी-कभी अपने कर्मस्थली के साथ भेंट करने के लिए जाया करता है परन्तु अवाक होता है एक समय था उसके एक - दो मिनट पाने के लिए अधिनस्थ कर्मचारी एड़ियां बजाया करते थे लेकिन आज वही एड़ियां बजाने वाले मात्र मुस्कुरा देते हैं संग हीं संग उनके व्यवहार में एक साधारण व्यक्ति बन जाता है। जब वह वापस लौटने लगता है तब आफिस वाले कृत्रिम हंसी बिखेरते हुए कहते हैं 'सर जब भी मन बोर होने लगे तो चले आना। बन्दा आपकी खिदमत में हाजिर। होता क्या है कि मेढकों की टर्राहट वर्षा ऋतु में हीं अच्छी लगती है। सब कुछ है उसके पास फिर भी मन में बेचैनी छाई रहती है। नौकरी पाने के बाद से रिश्ते में दूरियां बढ़ गई है। घर में दो छोटे बच्चे हैं पर वे भी जैसे यंत्र मानव के समान कोई भावनात्मक लगाव नहीं है उनके अन्दर। जब वे अपने पैरेंट्स से हीं नपे तुले शब्दों भर हीं बातें करते हैं तो दादा - दादी को क्या खाक अपना बहुमूल्य समय देंगे। सारे सम्बंधी हैं लेकिन किसी में अपनत्व नहीं है अर्थात अकेलापन का अहसास सदैव घेरे रहता है। अपनी नौकरी के समय में न जाने कितने सरकारी नौकरी प्रत्याशी को असफल प्रमाणित किया है जिसकी कोई गिनती नहीं है। उस समय उसका मूल उद्देश्य रहता था प्रत्याशी को अयोग्य घोषित करना। इस स्थिति के लिए स्वयं को दोषी नहीं ठहराया क्योंकि बेकारों की संख्या सुरसा की मुंह की भांति फैलती जा रही है। केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों द्वारा रिटायर्ड पदों पर पुनर्नियुक्ती के कोई प्रयास नहीं देखने को मिल रही है। उपर से उन खाली पदों पर काम करने के लिए अन कान्ट्रेचुअल कम सैलरी पर कर्मचारी नियुक्त किया जा रहा है। और सरकार के इन नीतियों को लागू करने के लिए उसने स्वयं परामर्श एवं सहयोग देने में अहम भूमिका निभाई। ऐसी बात नहीं है कि योग्य प्रत्याशियों की कमी है। आज भी एक प्रत्याशी की लड़ाई उसके मन-मस्तिष्क को झकझोर कर रख दिया था एवं उसने डाक्युमेंट भेरिफिकेशन के समय चुनौती दी थी कि देखती हूं मेरा कैण्डिडेचर कैसे रद्द किया जाएगा। मेरिट लिस्ट में मेरा नाम भी आएगा तथा मुझे नौकरी भी मिलेगी। आवश्यक हुआ तो आप सबको मैं कोर्ट में घसिट कर लें जाउंगी और उसने मेरिट लिस्ट में अच्छी रैंकिंग प्राप्त कर नौकरी भी प्राप्त की। समय के खेल को देखा जाए तो कई वर्षों के पश्चात वह युवती उसका सीनियर पोस्ट पर प्रोमोशन लेकर ट्रांसफर हो कर आई। योगेन्द्र घोष नई अधिकारी को सामने देखकर भौंचक्का रह गया था तथा वह युवा अधिकारी मुस्कुराते हुए बोली थी 'डोन्ट माइन्ड घोष बाबू बेकारों की अन्तर्ज्वाला को समझना चाहिए था' योगेन्द्र घोष इसे अपना अपमान के रुप में लिया और किसी तरह युगत भिड़ाकर दूसरे शहर में अपना ट्रांसफर करवा लिया था। परन्तु उस घटना को अपनी संस्मृति से निकाल नहीं पाया। वह इतना प्रभावित हुआ था कि कालांतर में उसने अपने विचारों में परिवर्तन कर लिया तथा अनायास दूबारा किसी नौकरी के लिए आने वाले प्रत्याशी के साथ मजाक नहीं किया। उसके पाड़ा में हीं उसका एक और भी बाल्यबंधु है शिशिर भादुड़ी अवसर प्राप्त सरकारी कर्मचारी एकदम हरफनमौला है जो सदैव प्रसन्न रहता है। अवसर प्राप्ति के पूर्व से हीं कई सामाजिक संगठनों के साथ जुड़ा हुआ है। एक दिन मार्निंग वॉक के समय उससे कहा कि मैं भी तुम्हारी तरह अवसर प्राप्त हूं लेकिन मैं धीरे धीरे निराशा की गहराई में उतरता जा रहा हूं जबकि तुम सदैव प्रसन्न रहते। क्या करूं ताकि मैं भी तुम्हारी तरह सदैव तुम्हारे तरह खुश रहूं। शिशिर ने एक पल भी विलम्ब नहीं किया व तपाक से कह दिया कि अपने अनुभवों को बेकार युवा वर्ग में नौकरी प्राप्त करने में बांटो ताकि विभिन्न विभागों में नौकरी की परीक्षा में यथा सम्भव गाईडेन्स मिले। तत्पश्चात शिशिर अपने राह पर चल पड़ा। योगेन्द्र को आकाश में पक्षियों का झुण्ड दिखाई देता है जो तीर की आकृति में उड़ते हुए दिखाई देता है और उसे लगता है कि वह भी इन्हीं पक्षियों की तरह पंख लगा कर उड़ सकता है। शायद उसकी तरह कोई दूसरा योगेन्द्र घोष न तैयार हो। कम से कम घास पर निर्मित शिशिर कणों की तरह समाज तथा देश को एक नई दिशा तो दिखा हीं सकता और वास्तव में नीले आसमान में भुवन भास्कर प्रकाश के किरणों से आलोकित कर चुका था।

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