Mukul Kumar Singh

Inspirational

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Mukul Kumar Singh

Inspirational

अयोग्यता

अयोग्यता

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बड़ा विचित्र है मनुष्य की सामाजिक व्यवस्था जहां पुरुष को सदैव शैतान का स्वर्ण का पदक देकर सम्मानित किया जाता है। कहते कहते भावुकता में बह गया बासठ वर्षीय सतवीर। क्षण भर की निरवता छा गई और टेबल पर रखे हुए चाय के कप से भाप को उपर की ओर उठते देख रहा था तरसेम। कमरे की मौनता दोनों को शायद अपनी सहानुभूति एवं सांत्वना दे रहा था। तभी अरे! आप लोगों ने चाय को समाप्त नहीं किया है। नहीं पीनी थी तो पहले हीं कहा होता, क्या आवश्यकता थी चाय बनाने की…..

अरे तुम थोड़ा चुप भी रहा करो। सतवीर ने पत्नी को कहा। उसे ज्यादा बुरा लगा कि पता नहीं तरसेम अपने को अपमानित न समझ बैठे। परन्तु तरसेम ने सतवीर को टोका ‘ओय सत्तु बोलने दे भाभी को। इन्हें अपने मन की भड़ास निकालने दे। हम मर्दों को मर्दों ने हीं स्त्रीयों के सामने अत्याचारी बना कर दिखाया है’। सतवीरा की पत्नी एक सेकेण्ड के लिए झेंप जाती है लेकिन कैंची से कपड़े कटना जारी रहता है। मैं कोई गलत नहीं कह रही हूं। आप मर्दों ने हम नारियों को सदैव दबाये रखने का प्रयास किया है। हम जो सुबह से लेकर रात को जब तक सो नहीं जाती तब तक बैठने की फुर्सत कहां। इतना कहकर सालु कमरे से बाहर निकल जाती है। दोनों मित्र चाय का गर्म स्वादिष्ट सीप लेते हैं जिससे सुड़ुक-सुर्र- सुर्र-सुड़ुक की ध्वनि उत्पन्न होती है। दोनों मित्र सालु की इस जली-कटी वचनों को सुनने को आदि हो चुके थे। हालांकि सतवीर को ज्यादा पत्नी की बात चुभती है क्योंकि उसे लगता है सालु एक बार भी नहीं सोचती है जौ के साथ घुन नहीं पिसना चाहिए। धीरे-धीरे उसके मित्र मंडली में कुछ काल कवलित हो चुके थे और बाकी में तरसेम सहित दो-तीन हीं थे जो एक दूसरे के घर आते-जाते जिनसे मन को हल्का कर लिया करते थे। नहीं तो दिन भर पत्नी उसके उपर दोषारोपण करती की तुमने ए ग़लत किया, वो गलत किया। कभी कह दिया कि भोजन में स्वाद हीं नहीं है कि मधुमक्खी की तरह आक्रमण कर बैठी मैं क्या दिनभर बैठी रहती हूं। हर पल घर की चिंता में अपना ख्याल रखी नहीं। कभी रोजगार ठीक से किया है जो तेरा लोला से लार टपका रहा है। जितना भी करके दो कोई गुणगान नहीं। मेरे विषय में कभी सोच कर देखा है। हाड़-मांस जला कर रख दिया। हरामी पुरुष मैं बैठ कर नहीं खाती। दिनभर मेहनत करती हूं तब जाकर एक बेला का भोजन मिलती है। इस प्रकार की बातें सुनकर सतवीर के हृदय को चोट पहुंचती है और उसका जीभ सुखकर तालु से चिपक जाता है। इधर शाम क्रमशः रात्रि की ओर मुंह करके अपने मार्ग में बढ़ती जा रही थी। बाहर सड़क पर गाड़ियां हैडलाइट जलाये दोनों ओर के लाइटपोस्टों के भेपरों के चकाचौंध में सड़क रुपी काली चादर को रौंद रही थी। उसके साथ हीं कदम से कदम मिलाकर ध्वनि प्रदूषण प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए सारी शक्ति का प्रयोग कर रही थी। वो तो इसे सौभाग्य है कि सतवीर के पिताजी ने मेन रोड के किनारे बाड़ी बनाया था नहीं तो सतवीर के भाग्य में पैसा कमाने का योग हीं नहीं था और सारा जीवन अभाव की मोटी परत के उपर सर उठा नहीं पाया और पत्नी तथा परिस्थितियों ने सदैव उसकी हंसी उड़ाई। बात बात पर व्यंग्य की मशिनगन से गोलियों की बौछार होती है और वह घायल होता रहता था। शो-केस पर रखी इलेक्ट्रॉनिक घड़ी ने कर्ण प्रिय रात आठ बजे की संगीत की धुन छेड़ दी। तरसेम चेयर से उठ खड़ा हुआ एवं सतवीर से कहा चलूं यारा मेरी भी आरती उतारी जाएगी। 

हां यारा, अब पता नहीं अगले दिन हम दोनों एक दूसरे को देख सकेंगे या नहीं कौन जानता है? गूडनाइट…..

गुडनाईट।

तरसेम कमरे से बाहर निकलने को हीं था कि सालु से पुनः सामनासामनी हो गया और बोली

हो गई रामायण की परिचर्चा!

हां भाभी। तरसेम के जाने के बाद सतवीर के हृदय कि धड़कन बढ़ जाती है। पसीने की बूंदें ललाट पर छलक आई क्योंकि उसकी अतीत की यादें आंखों के सामने आ खड़ी होती है और पूछती है

क्यों सतवीरा पहचान रहा है मूझे!

नहीं। कौन हो? क्या चाहते हो मुझसे। मेरे पास किस लिए आए?

कौन हूं मैं! हंसता है वह, जानते हो हर कोई मुझे पहचानने से इन्कार कर देता है।

परन्तु मैं तुम मानवों की भांति बेईमान नहीं। एकदम शत् प्रतिशत सत्य हूं तुम्हारा। विश्वास नहीं हो रहा है न तो छू कर देखो मुझे। सतवीर के हाथ - पांव कांपने लगा तथा अपने अतीत को छूने के लिए हांथों को आगे बढ़ाया तभी उसका अतीत अट्टहास करता हुआ गायब। सालु कमरे में आ कर अपने स्वभाव के अनुरूप अपनी मधुर तानाशाही स्वरलहरी को छेड़ देती है - मेरे कपड़े कहां रख दिया है

मैं भला तुम्हारे कपड़े क्युं रखूंगा। मैंने तो तुम लोगों के कपड़े इधर उधर रखना छोड़ दिया ताकि मेरे कारण किसी को असुविधा न हो।

फिर टेढ़ा बोलना शुरू किया। अरे अब भी खुद को सुधारो। सारा जीवन जानवरों की तरह जीया है। तेरी चुड़ैल मां ने तुझे यही सिखाई। पीचाशिन का बच्चा पीचाश हीं होता है। सतवीरा चुप्पी साध ली अन्यथा बात का बतंगड़ बन जाता है। यह चुप्पी भी कभी कभी सामने वाले के लिए प्रताड़ित करने का अचुक अस्त्र बन दूसरे को आहत करता है। सालु उन स्त्रियों में से है जो कुरेद कुरेद कर घाव बनाया करती है।

अरे तुमने नहीं रखा तो और कौन है इस घर में जो घर के सामानों को यहां वहां रखा करता है। मैं जहां भी रखती हूं न तो अन्धेरे में भी खोज लूंगी पर मैं घर में एक एक चीज को बचाने का प्रयास करती हूं जबकि और लोग सारा जीवन में एक रुपए कमा न सका लेकिन यह तो सोचता भी नहीं है कि मैं नहीं होती तो बाड़ी भी बिक चुकी होती। अरे योग्यता रहती तब न!

बड़-बड़ करती हुई सालु बेटी के कमरे में चली गई। दो संतानों में बेटा एक प्राइवेट कंपनी में सुपरवाइजर है जिसने घर की माली हालत को देखते हुए हायर सेकेण्डरी पास करने के बाद ग्रेजुएशन करने का विचार छोड़ दिया एवं घर की आर्थिक स्थिति सम्हाल लिया। वहीं दूसरी संतान बिटिया एम् सि ए कर रही है। दोनों भाई बहन को अपने पिता पर क्रोध आता है क्योंकि ये सतवीर को औरों के अभिभावकों की तरह नोटों की गड्डी कमाते हुए नहीं देखा। ये लोग आधुनिक समय के युवा हैं जिनके आंखों में आकर्षक बिल्डिंग, गाड़ी, इधर उधर मौज मस्ती, सैर-सपाटा की स्वप्निल तरंगें प्रवाहित हो रही है। अतः जब उन्हें अवसर मिलता सतवीर के सामने हीं हृदय के आग्नेय उदगार का वमन करते थे। सतवीर के हृदय के आघातों पर मरहम पट्टी करनेवाला कोई नहीं था। आघातों की यंत्रणाओं ने एकतरफ जीवन से बेपरवाह बना दिया हीं था, उसके आंखों के आंसुओं को भी सोख लिया था। बचपन से किशोर उम्र आते - आते कभी भी किसी ने स्नेह भरी वचन या उत्साहित करने वाले शब्द नहीं दिया। बल्कि सबने दुत्कारा पाड़ा, स्कूल में शिक्षकों तक सबने अपमानित किया परन्तु कभी भी हार नहीं स्वीकार किया। जन्मदायिनी ने उसे दुखदेखनहार के रुप में दुर्व्यवहार किया तो जन्मदाता स्वयं हीं परस्त्रीगामी बन उसका कोई पुत्र है उसके भविष्य को संवारने के बारे में सोचा हीं नहीं। धीरे-धीरे अब एक सत्य को स्वीकार कर लिया कि कोई उसका नहीं है और जीवन युद्ध अकेले हीं लड़ना होगा। जय-पराजय को किसी से बांटना छोड़ दिया। इससे आत्मविश्वास बढ़ गया। स्कूली जीवन में गीत, भाषण से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता था जिससे उसके प्रशंसकों की संख्या भी कम नहीं थी। कालेज जीवन को पुरा करते - करते एक कथाकार, प्रबंध लेखक, आलोचक के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुका था। परन्तु आय करने के क्षेत्र में फिसड्डी। आखिर समय ने उसकी मां को पागल बना दिया एवं वह निरुद्देश्य हो गई तथा चरित्रहीन पिता एक दुर्घटना का शिकार हो परलोक सिधार गया। इस प्रकार वह सम्पूर्ण अकेला हो गया। बस किसी तरह से पिता का बनाया बाड़ी ने उसे आश्रय दिया लेकिन भोजन एवं अन्य व्यक्तिगत आवश्यकता कैसे पुरी होगी। अतः मित्रों से कुछ रुपए कर्ज लेकर छोटा-मोटा व्यवसाय करने लगा। शुरुआत में लाभ हुआ एवं ऋण को शोध कर दिया। परन्तु अचानक समय ने करवट ली और व्यवसाय डूबने लगा। काफी प्रयास किया व्यापार की नौका को किनारे लाकर नदी में डूबने से बचा लेगा। पर लक्ष्मी ने उसे अपने दरवाजे से धक्का देकर बीच सड़क पर ला खड़ा कर दिया जहां एक वक्त का भोजन मिलना भी मुश्किल हो गया। फिर क्या करना चाहिए, बहुतों से काम अर्थात मजदूरी चाहे आफिस हो या दिहाड़ी पर रखने का अनुरोध किया। किसी ने दुत्कारा तो कोई कोई अनमने ढंग से कम मजदूरी में काम करने के लिए हामी भरी। इससे भी घबड़ाया नहीं बल्कि लड़ने लगा। कलकत्ता शहर की दूरी मात्र अड़तीस कि मी होने के कारण मजदूरी मिलनी तो थमा नहीं। जिस शहर को कला संस्कृति का तीर्थ स्थल कहा जाता है उसका एक रुप को घिनौना तो नहीं कहा जा सकता परन्तु अकाट्य सत्य है साधारणतः जहां नौकरी करते हैं वहां स्त्री - पुरुष का कोई भेद नहीं है और साथ में मजदूरी करने वाले स्त्रियों के द्वारा पुरुषों का जिस्मानी शोषण एवं वेतन का एक बड़ा हिस्सा डकार जाना आम बात है जबकि वहीं पुरुष वर्ग तो इस विषय में बहुत आगे है, अर्थात बात वहीं तक जाकर नहीं रुकती बल्कि कारखाना या दफ्तर ग्राउंड फ्लोर पर और मालिकों की फैमिली फर्स्ट या सेकेण्ड फ्लोर मालिकों को के पास पत्नी, पुत्री, पुत्र का साथ देने के लिए समय नहीं था इसलिए मालकिन, पुत्री काम करने वाले पुरुष मजदूर को अपनी आवश्यकता पुर्ति हेतु शिकार बना लेती है। मालिक वर्ग इन बातों से अनजान नहीं परन्तु वो तो स्वयं मजदूर स्त्री को लेकर ऐयाशी करता है। ऐसा स्वाधीनता स्व -प्रतिष्ठित हो चुका है। किसी भी प्रकार कि आन्दोलन, रैली या भाषण की जरूरत नहीं पड़ी। ऐसी हीं फरमाइश पुरा करने के लिए सतवीर के ना ने उसे छ: माह के लिए सीधा जेल की खिचड़ी खिला दी। मालकिन ने पुलिस के हाथों जमकर कुटाई भी करवा दी। मतलब एक नारी को बस अवसर मिल जाए तो पुरुष को सात पूर्व पुरुष की याद दिला देने की क्षमता  रखती है। जब जेल से रिहा हो बाहर निकला तो किसी और कारखाने या दफ्तर में मजदूरी पाना कठिन हो गया। बाध्य हो गृह निर्माण कार्य में दिहाड़ी बन सर पर ईंट,सिमेन्ट, पत्थर ढोने लगा। वह मनुष्य से चौबीस घंटे चलने वाला यन्त्र बन गया। जिस दिन छुट्टी रहती पास - पड़ोस के लोग दरवाजा एवं खिड़कियां खुली देख झांकी मारते और कोई अन्दर आकर कुशल-क्षेम पुंछ लिया करते थे। परेशानी तो तब होती जब कोई जेठी,काकी, भाभी के सामने पड़ जाता तो सबके सामने झेंप जाता क्योंकि घर बसाने का परामर्श मुफ्त में उपलब्ध हो जाती तथा गारंटी मिलती की कुशल गृहिणी के रुप में लड़की है परन्तु वह टाल जाया करता था। पहली बात यह थी कि उसकी आमदनी कम थी और दूसरी की काम की निरंतरता नहीं थी। इसलिए वह नहीं चाहता था कि उसके कारण किसी नारी को अभाव में रहना पड़े उसे स्वीकार नहीं था। देखते देखते चौबीस की आयु पार कर गया। उसकी अब कोशिश रहती थी कि किसी जेठी,काकी या भाभियों के सामने न पड़े। लेकिन समय का कालचक्र एक समान गति नहीं रखता है। अचानक एक दिन पागल मां घर वापस आ गई और पुनः परेशानी शुरू हो गया। घर में राशन की सारी व्यवस्था करके रखा ताकि उसकी मां को भूखी न रहना पड़े। इधर पाड़ा के लोगों का दृष्टि मेन रोड पर पांच कट्ठे जमीन सहित बाड़ी पर लगी थी। प्रतिदिन प्रातः काल में लोकल ट्रेन में चमगादड़ की भांति झूलता मानव काया की पसीने की खुशबू सूंघता कलकत्ता में रोजगार स्थल पर पहुंच जाता एवं घर लौटते लौटते रात आठ बज जाती। घर आकर देखता दरवाजा खुला है और मां घर पर नहीं। पास-पड़ोस वाले बताते की बादल के घर में बैठी है तो कभी परकाश के दादी को अपनी राम कहानी सुना रही है। मां को बुला घर लाता फिर भोजन पकाता व खाने को देता उपर से मां के जीवन में कष्टों का कारण बनने का मधुर सम्भाषण भी सुनता। तेरा बाप चरित्रहीन, ऐयाश,तेरा जेठू-काकाडाकू,तेरा दादा जुआड़ी, हत्यारा है। इन बातों को सुनकर उसे बड़ा क्रोध आता। मां को समझाने का प्रयास करता उसे ये सब न सुनाये पर वो कहां समझने वाली रातभर टेपरिकॉर्डर बजता रहता। धीरे-धीरे पड़ोसी विरोध करने लगे कि अपनी मां को समझाने का प्रयास करें और सभी को कम से कम घरों में सोने का अवसर प्रदान करे। मां को काफी समझाया परन्तु वह भला कहां से समझे। जैसे हीं थोड़ा दबाव बनाया कि मां का पागलपन शुरू,सारा सामान इधर-उधर फेंकने लगती और यह प्रक्रिया कम से कम तीन-चार दिन तक चलती एवं उसके साथ सतवीर तथा उसके पूर्व पुरुषों को गालियां देना संग हीं संग पड़ोसियों को भी जौ एवं घुन की तरह एक कर देना। आये दिन कपड़े जला देना, बर्तन टूट जाने से अभाव में जीवन गाड़ी को खिंचना हो गया था। मां का उपद्रव भी बढ़ता जा रहा था। बचपन के बंधु-बांधव भी उसका मजाक उड़ाया करते हैं। कईयों ने दो-चार थप्पड़ से सम्मानित किया। यदि कोई उसकी मानसिक प्रताड़ना को समझता था तो वह तरसेम है जो सहानुभूति रखता था। लेकिन वह भी कब-तक!तरसेम को सरकारी नौकरी मिली तो उससे भी मिलना-जुलना कम हो गया। एक मात्र वही था जो उसकी मन की बात को जिसमें उसकी अक्खड़ता, निडरता, लड़ने का आत्मविश्वास, अपमान को पीने तथा अन्यान्य योग्यता पर संदेह नहीं करता था। 

इधर मां के द्वारा पागलपन में मानसिक यंत्रणाओं एवं प्रताड़ना नदी के तटवर्ती क्षेत्रों में बढ़ती जा रही थी और इससे मुक्ति पाने के लिए छटपटाने लगा। परन्तु पुत्र के रूप में मां से मुक्त हो पाना संभव नहीं था। बात बात में सतवीरको अयोग्य

कमकोढ़िया आलसी, अकारण भाषण व ज्ञान विसर्जन करने वाले के रूप में स्थापित करने लगी। सतवीर को इन सबसे कोई फर्क न पड़ता। शेषमशेष पड़ोसियों ने एक दिन कहा की - सतवीरा तू घर में एक बहुरिया ले आ। शायद बहु के द्वारा सेवा सत्कार करने से तुम्हारी मां का पागलपन पर नियंत्रण हो जाय।

वो तो मैं भी समझता हूं पर इसकी क्या गारंटी है कि पराई घर की बेटी सास को अपनी मां के रूप में देखेगी। जबकि मेरी मां का हीं किसी के साथ नहीं पटती है।

देख सतवीरा, तू यदि ठीक रहा न तो सास बहू में कभी भी खट-पट नहीं होगा और हम पास पड़ोस वालों को भी शांति मिलेगी।

आप लोगों के सुपरामर्श पर विचार करूंगा लेकिन मेरी कमाई इतनी कम है की कौन मुझसे विवाह करेगा। 

वो तुम हमारे उपर विश्वास रखो अच्छी भली सांसारिक एवं माध्यमिक पास लड़की है तथा स्वभाव से शांत है। 

तरसेम को भी इस बात की जानकारी होती है और खुशी भी। वह सतवीर से आकर मिलता है और दोनों मित्र बड़े गर्मजोशी के साथ मिलते हैं। तरसेम बार बार एक गीत गुनगुना रहा था

 ओय मेरा सत्तु बनेगा दुल्हा और लाएगा दुल्हनिया —-----

अबे इसके आगे क्या होगा वो तो बोल। तबसे स्साले, एक हीं पंक्ति —

क्या करूं यारा, तेरी तरह मैं कोई कहानीकार थोड़े हीं हूं।

तो चुप हो जा। कुछ होने जाने को है नहीं और दुल्हनिया देख रहा है। 

इसी बात पर दोनों मित्रों के बीच खुब हंसी -मजाक होता है। लगता है जैसे फगुआ की रंग उड़ रही है। आखिर में एक लड़की का पता लगा और देखा देखी हुई सतवीरा के स्थान पर तरसेम गया था देखने के लिए। वह आकर अपने अण्डरवियर फ्रेंड को कहा देख सत्तू, लड़की न तो विश्व छछूंदरी है और ना हीं अस्वीकार करने योग्य। स्वभाव में कैसी होगी यह तो भविष्य हीं बताएगा। वैसे उसके परिवार वालों ने कहा कि हमारी बच्ची को बाहरी चकाचौंध से कोई सरोकार नहीं है वह चाहती है उसका पति बस उसके सुख - दुःख को समझेगा तथा उसके भोजन वस्त्र का ख्याल रखेगा इसके अलावा और कुछ नहीं चाहिए।

ठीक है तरसेम तू मेरे बचपन का मित्र है। मेरी सफलता -असफलतआ, इच्छा अनिच्छा, अपमान सम्मान योग्यता अयोग्यता सबसे परिचित है। अतः तेरी सहमति हीं मेरी सहमति है एवं रह गई भविष्य की बात तो इसके लिए मैं तूझे दोषी करार नहीं दूंगा। 

तरसेम अपने खर्चे से हीं सतवीर के घर का रंग रोगन करवा देता है। एकदिन एकदम साधारण सा सामाजिक अनुष्ठान का आयोजन कर सालु दुल्हन के रूप में सतवीर के घर में कदम रखती है। सतवीर की दुनिया में धीरे-धीरे परिवर्तन होने लगी। एक आफिस में काम करने लगा जहां उसे दिहाड़ी मजदूर से कम वेतन मिलता है परन्तु स्थायित्व मिली। सबने कहा बहु के लक्षण अच्छे हैं। परन्तु मां के दूसरी नारी के प्रति ईर्ष्या भाव ने अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया। दैनिक बहु को कारण अकारण अश्लील भाषा में गालियां देना, पास पड़ोस में जाकर कहना बहु मुझे मेरे हीं घर में रहने नहीं देना चाहती है। पड़ोस वाले भी कम नहीं थे। सतवीर की मां को बहु को दबाकर रखने का परामर्श देते तथा बहु के सामने सास के बारे में नमक मिर्च लगाकर उसके पति अर्थात सतवीर को मुठ्ठी में रखने का सलाह देना। परिणाम सतवीर आफिस से लौटकर आने पर मां बहु की शिकायत का पिटारा खुल जाती। एकदिन हद हो गई रात का भोजन करने बैठा और अभी प्रथम कौर मुंह में डाला हीं था बगल वाले कमरे से मां आकर धमकी देने के अंदाज बम विस्फोट करते हुए बोलना शुरू कि देख सतवीरा बहु को समझा दे हमसे जरा ठीक व्यवहार करें हम उसकी सास हैं वो हमारी नहीं। जैसे उसको कहेंगे वैसा हीं करे नहीं तो इस घर में उसका वास करना असम्भव हो जायेगा।  हुआ क्या पहले बता,

अरे होगा क्या इसी हरामजादी से पुछ। तेरे काम पर निकल जाने के बाद यह मुझे घर पर रहने देना नहीं चाहती है। हर पल मुझे गालियां देती है मुझे दूत्कारती है। मेरे संग व्यवहार भी ठीक से नहीं करती है बल्कि पास पड़ोस में के लोगों से मेरी शिकायतें करती है, तेरी बूराईयां करती है……

क्यों वो क्या तेरी तरह पास-पड़ोस में  जाकर बैठी रहती है…..…इतना हीं बोल पाया सतवीर और मां के टेपरिकॉर्डर ने बजना शुरू कर दिया। शालु भी अपना आपा खो बैठी और क्रोध से फूंफकार  उठी, हरामी बुढ़िया मेरे उपर झूठा लांछन लगाती है सुबह से खुद गायब रहती है और मुझे कहती है मैं तेरे बेटे का शिकायत करती हूं। प्रतिदिन नाश्ता पड़ा रह जाता है और पड़ोसियों के पास जाकर बोलती है बहु स्वयं नाश्ता कर लेती है और मुझे पुछती तक नहीं। जिससे बोलती है वहीं भूखी हूं सहानुभूतियां बटोरती है तथा भरपेटा खा लेती है। दोपहर में पेट भरा रहता है भूख कहां से लगेगी। यह सब क्या है। मेरे घर का अनाज बर्बाद कर रही है और मैं तुझे गालियां देती हूं। दुष्ट औरत कभी कमाई कर एक रुपया भी लाई है जो रुपए का मोल का दर्द जानेगी।

अरे तुम लोग अपना अपना मुंह बंद रखो, मुझे भोजन करने दो। परन्तु वह अपने वाक्य को पूरा कर भी नहीं पाया था मां का परमाणु बम ब्लास्ट हुआ। शायद घर की दीवारें हिल रही थी,छत गिर पड़ी। पड़ोस के रहने वाले भी भूमिकम्प समझ अपने-अपने घरों से बाहर निकल आए। कहने लगे कि विवाह को अभी पन्द्रह दिन भी नहीं हुए हैं और पगली ने पागलपन शुरू कर दिया। ओय सतवीरा तूं अपने घर का चीख-पुकार बन्द कर अन्यथा हमलोग तुम्हें यहां रहने नहीं देंगे। बुढ़िया संग हीं संग गिरगिट की तरह रंग बदल दी एवं सतवीर तथा उसकी बहु कर दोषारोपण करते हुए कलपने लगी की बेटा-बहू दोनों मिलकर घर से चले जाने को कह रहे हैं।अब तुम्हीं लोग बताओ यह बाड़ी मेरे पति का है,हम क्यों जाएं। सतवीर हक्का बक्का हो गया और सालू आश्चर्यचकित हो बुढ़िया को खा जाने वाली दृष्टि से देखने लगी। पड़ोसियों में भी कुछ लोग सतवीर को एक भले मानुष के रूप में देखते थे, कहा यदि बुढ़िया का पति ने इस मकान को बनाया है तो सतवीर भी इसके पति का हीं बेटा अर्थात बाड़ी पर उसका भी उतना हीं अधिकार है। अतः मां - बेटे दोनों हीं इसी बाड़ी में रहेंगे। बस ऐसा व्यवस्था करें ताकि हमलोगों को असुविधा न हो। बुढ़िया दूसरे कमरे में चली गई और पड़ोस वाले भी एक एक करके अपने अपने घर की ओर। सालु के आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी जबकि सतवीर एकदम चुपचाप भोजन को उदरस्थ करने लगा जैसे कुछ हुआ हीं नहीं। यह देख सालु को सतवीर पर क्रोध होने लगा कि यह कैसा पुरुष है पड़ोस वाले आकर धमकियां देकर चला गया और बड़े इत्मीनान से निवाला निगल रहा है। जबकि सतवीर बचपन से हीं भूख से लड़ते-लड़ते भोजन से दोस्ती कर लिया था और मन हीं मन निर्णय कर लिया था कि भोजन जो मिले उस पर क्रोध नहीं करेगा क्योंकि यदि इंजन को ईंधन मिलती रहेगी तो दुखों से लड़ने की शक्ति मिलेगी भूखे रहने पर टूट जाएगा। सालु अपने सास के इस व्यवहार से हतप्रभ हो विक्षुब्ध हो गई और सतवीर को भला-बुरा सुनाने लगी। परन्तु पति की ओर से कोई प्रतिक्रिया न देखकर उसके नेत्र सजल हो गई। कितनी आशाएं लेकर आई थी कि पति की कम कमाई है तो क्या हुआ घर संसार में वह अकेली अभाव में भी पति के साथ आराम से गुजर बसर कर लेगी। एकमात्र सास है तो यथासाध्य उन्हें प्रसन्न रखने की कोशिश करेगी हालांकि उसके मानसपटल पर सास एक अत्याचार की मूरत के रूप में अंकित थी क्योंकि अपनी सहेलियों के ससुराल की आपबीती सुन सुन कर सास का नाम सुनने मात्र से तन मन में घृणा की लहरें उफान लेने लगती थी और आज की घटना ने राख को कुरेद कर रख दी। उधर सुबह सुबह बुढ़िया सतवीर से बोली, अरे बेटे तू काम पर चला जाएगा मुझे खाने के लिए कौन देगा?

क्यों हम दोनों में से किसी ने कहा है कि तुमको खाना नहीं मिलेगा!

क्या पता। तेरे सामने कुलक्षिणी कुछ नहीं बोलेगी पर तेरे काम पर जाने के बाद ऐसा व्यवहार करती है की हम किसी तरह से यहां से निकल जाएं तो तेरी बहुरिया के मन को शांति मिलेगी। 

सतवीर समझ गया मां मन हीं मन तैयारी कर चुकी है ताकि घर में शांति देवी को उसके स्थान से हटा कर हीं रहेगी। खैर कोशिश करेगा सास-बहू के मध्य सामंजस्य बना रहे। इसलिए मां को समझाता है सुन मां मेरे सिवा तेरा दूसरा कोई बेटा बहु नहीं न है। तुम्हे भोजन कपड़े कोई कमी न होगी। बस पास पड़ोस में जा मत और घर का शिकायत न हो। परन्तु मां को भला कौन समझाए वह क्रोधित हो गई लगी जली कटी सुनाने अरे मौग मेहरा कमकोढ़िया तू अपना देख। हरामी का बच्चा तू तो जनम हीं लिया मेरा दुःख देखने के लिए। हे भगवान! जिस तरह से इसने मुझे दुःख में ढकेला है वैसे हीं इसको भी दाने दाने के लिए तरसना पड़े। सालु कमरे के अन्दर से सास के द्वारा उसके पति को यूं अभिशाप देना सहन नहीं हुआ और बाहर निकल पति के सामने हीं सास पर भड़क उठी चुड़ैल बुढ़िया तू कैसी मां है जो मां होकर बेटे को श्राप देती है। याद रख ले डायन यदि मेरे संसार में आग लगी न मैं तुझे उसी आग में जिन्दा जला कर मार डालूंगी। बुढ़िया भला क्यों दबने लगी-

अरे नट्टिन,पतुरिया। हम और हमारा बेटा के बीच में तूं कौन होती है बोलने वाली। देख सतवीरा मना कर दे इस हरामजादी को नहीं तो अभी पाड़ा के लोगों को बुला कर कहूंगी कि मेरा बेटा के सामने मुझे आग में जला कर मार डालने की धमकी दे रही है। सतवीर के हृदय कि धड़कन बढ़ गई। अपनी मां से भलीभांति परिचित था परन्तु सालु के साथ अभी जीवन की गाड़ी स्टार्ट हुए हैं। यदि शोरूम से निकलने के बाद ब्रेक खराब हो जाए वह भी रास्ते में हीं तो ड्राइवर की परिस्थिति की कल्पना करने मात्र से हीं पसीने से सराबोर हो गया। फिर भी मां और पत्नी को समझाने का प्रयास करता है पर चुप्पी साधने को तैयार हीं नहीं। परिणाम वही चुपचाप स्नानादि से निवृत्त होने के लिए बाथरूम में घुस गया। सालु नाश्ता एवं पति के लिए टिफिन तैयार करने हेतु किचेन के कार्यो में व्यस्त हो गई तथा बुढ़िया अच्छा अवसर समझ कब बाड़ी से निकल गई सतवीर-सालु को पता हीं नहीं चला। सतवीर को ट्रेन पकड़नी थी सो वह सायकल पर सवार हो स्टेशन की तरफ जहां प्रतिदिन कसाई के पशुओं की तरह सींक में लटकना होगा जहां पता नहीं कब किसका हाथ छूट जाए और उसकी दैनिक रोजनामचे से मुक्ति मिल जाएगी। सायकल गैराज में रखकर घड़ी देखी ट्रेन आने में मात्र दो मिनट बचे हैं। आजकल तो रेल प्रशासन में थोड़ा अधिक हीं अनुशासन दिखाई दे रही है ट्रेनें निर्धारित समय पर आना एवं छूटने का पाठ यात्रियों को पढ़ा रही है। घर में सालु समय पर बुढ़िया का नाश्ता उसके कमरे में ढंक कर घर के कामों में व्यस्त हो गई। दोपहर हो आई लेकिन बुढ़िया अपने पूर्व निर्धारित समय पर वापस नहीं लौटी तो सालु पास पड़ोस में जा कर पुछ ताछ की बुढ़िया के किसी आत्मीय के पास चली गई है तथा सतवीर और सालु की झुड़ी भर शिकायत करने के बारे में जानकारी भी मिली। रात में सतवीर को बताई एवं बोलते समय क्रोधित हो सतवीर को भी भला-बुरा कह देती है। चुंकि सतवीर अपनी मां को बचपन से हीं देखता आया है इसलिए मां का बिना बताए चली जाना आश्चर्य नहीं लगता है पर शा आ गये घर में बेटे की किलकारियां गूंजने लगी और लगभग सात-आठ महीने की आयु रही होगी अचानक बुढ़िया का पदार्पण हुआ एवं आते हीं दोहा चौपाई सब शुरू। प्रथम दिन हीं दोपहर का भोजन शालु परोस कर दी तथा अपने बेटे को दादी के सामने रखती है। कुछ देर तक पोते को गोद में लेकर दुलार प्यार करती है आनन्द से बुढ़िया का चेहरा चमकने लगा। मन हीं मन खुश होती और ईश्वर को धन्यवाद देती है व सतवीर के बचपन का चेहरा याद कर सोचती है कि लगभग तीस साल के बाद इस घर में पुनः फिर कोई पुत्र संतान उसके गोद में आया। मन भर कर आशीर्वाद देती है अपने बाप-दादा का नाम रौशन करना लेकिन जैसे हीं उसके अपने पति की बात का स्मरण होता है कि अरे इसका दादा जुआड़ी, चरित्रहीन था पता नहीं सतवीरा भी वैसा हीं होगा तो फिर उसी बांसवाड़ा का यह बच्चा भी लम्पट,गंजेड़ी एवं छिनराहा हीं होगा बस बुढ़िया के चेहरे पर कठोरता एवं घृणा फैल गई। झटके से बच्चे अपने से अलग कर दी जिससे वह शिशु ओष्ठकों को बिदका कर रोने लगा। रोने की आवाज सुनकर सालु मेजे पर अपने बच्चे को रोते-बिलखते पाती है। मातृ सुलभ भावना के वशिभुत हो सास के व्यवहार का स्मरण हो‌ आया और हल्के सुर में हीं बोली कि आप उसकी दादी हो यही मान उसे आपके पास छोड़ गई थी पर पराये को गले लगाने वाली अपनों को कभी स्वीकार नहीं करती है। बस मुंह से फुसफुसाहट निकलने भर की देर थी और भूचाल की परत फट गई तथा मैग्मा व लावा आग्नेय उद्वृत ढलान में फैलती जा रही थी। बुढ़िया के मुंह ने अश्लील गालियों की बौछार करने लगी। यहां तक कि सालु को वेश्या तक कह डाली और सालु का पुत्र सतवीर का नहीं है जो सुनकर उसके तन बदन में आग लग गई। घर में हंसुआ पड़ा था हाथ में उठा ली और सास के उपर लपकी। बुढ़िया ने जब बहुरिया के हाथ में अस्त्र के साथ देखी तो मां काली साक्षात दर्शन हो गई एवं सारा पागलपन गायब। बाड़ी से एक हीं लपक में बाहर बाजू वाले पड़ोसी के घर जा छुपी। पड़ोसी भी उसके इस अस्वाभाविक व्यवहार से किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। आखिर हुआ क्या, पता करना चाहिए। जब वह सतवीर के घर आया तो देखा कि सालु बेटे को सिने से चिपकाए रो रही है और उसके बेटा भी जोर जोर से रो रहा था। मां बेटे के रोदन सुनकर तरसेम के माता-पिता एवं उसकी पत्नी व अन्य कई लोग बाड़ी में प्रवेश कर जो देखा आश्चर्यचकित रह गए। सभी अपने अपने ढंग से सतवीर के घर का आकलन करने लगे। तरसेम के माता-पिता सालु को साहस बंधाते हैं -ओय  पुत्री तू चिंता मत कर हमलोग हैं न, सतवीरा को समझा देंगे। अरे मेरे तरसेम का बंधु है वह बड़ा हीं नेक लड़का है। 

बुढ़िया काफी देर बाद पड़ोसी के घर से निकलती है पर वह विषवृक्ष का पौधा बो चुकी थी और उस विष से उसका जीवन भी प्रभावित होगी ऐसी कल्पना नहीं कर पाई। बुढ़िया के चलते पुरे पड़ोसियों में दो दल बन गए। एक वो लोग जो सतवीरा के मेन रोड पर स्थित बाड़ी को औने-पौने दाम मे खरीदने की इच्छा रखने वाले और दुसरे सतवीरा - सालु के मध्य सदैव शांति बनी रहे। लेकिन सतवीर के भाग्य में तो मां और पत्नी के बीच केवल मानसिक प्रताड़ना हीं बदा था। दोनों नारियों के अधिकारों की लड़ाई में उसे मात्र पिसना हीं था। प्रतिदिन मां से सुनने को मिलता जोरु का गुलाम, बहुरिया से डरने वाला, अयोग्य, कामचोर, छिनराहा का बेटा, मुझको भीख मंगवानेवाला तथा अपमानजनित ताने के साथ साथ अश्लील गालियों की सौगात जबकि सालु के मधुर वचनों में तुमसे कुछ नहीं होगा, मां के पीछे जब सारी कमाई खर्च करना था तो मूझे क्यों लाया, अपनी मां को समझाओ, तेरी मां डायन है, घर में आग लगाने वाली, मेरे बच्चों को खा जायेगी, चोरनी, घर फोड़नी, तुमने आज तक मूझे क्या दिया, आज तक एक सूता भी खरीद कर नहीं दिया, मैं तेरी कमाई पर नहीं जी रही जो तू मूझे दबा कर रखना चाहता है, तुम मां - बेटे ने हमें रोगी बनाया,हम इस घर के सुख के लिए अपना सुख-शांति सब कुछ त्याग दिया और बदले में मुझे तुने क्या दिया है केवल बदनामी वह भी पास-पड़ोस के लोगों के सामने मुझे वेश्या कहा। मैं भी एक मनुष्य हूं ऐसा कभी सोचा हीं नहीं, कभी मेरे मन को समझने का प्रयास नहीं किया,तुझसे मैं क्या चाहती हूं कभी जानना चाहा हीं नहीं। पागल का बेटा, हरामजादी का पिल्ला, अयोग्य, निकम्मा, तुझसे कुछ नहीं होने वाला, मेरी दया पर जीने वाले पुरुष, चुल्लू भर पानी में डूब जा, परिवार का खर्च भी नहीं जुटा पाता है। यह सब पिघले हुए शीशे की भांति कर्ण गह्वर में प्रवेश करता है। जब वह अपने कर्म स्थल पर रहता है अपने सहकर्मियों को अनुभव करने का अवसर नहीं देता है कि वह किसी मानसिक पीड़न से पीड़ित है कारण भी था यहां परिवार का कोई सदस्य नहीं है जो उसे उसकी आर्थिक स्थिति पर ताने नहीं देते हैं। उसके सहकर्मी उसके कार्य करने की क्षमता एवं किसी भी विषय के उपर बहस में तर्क संगत बात रखने की योग्यता को सम्मान देते हैं। वैसे भी सतवीर कार्य स्थल पर हंसते खिलखिलाते हुए वातावरण की सृष्टि कर सबका हृदय जीत लिया है। जबकि उसके मन रुपी सागर काफी अशांत रहता है। समय के पंख उड़ान भरते भरते बेटे को सरकारी स्कूल में भर्ती करवा दिया इस विषय पर सालु के साथ बहुत हीं गर्म वातावरण में तू तू मैं मैं होती है क्योंकि शालु की इच्छा उसके मायके के भाई बहन के संतानों की तरह किसी अच्छे स्कूल में भर्ती करवायेगी जो सतवीर के आमदनी के पक्ष में नहीं था। इसपे सालु के व्यंग्यात्मक वचनों ने एकांत में रुला दिया और उसकी मां ने पड़ोसियों के सामने नमक-मिर्च लगाकर सतवीरा के सम्मान में चार चांद लगा दी। सुबह जब ट्रेन पकड़ने के लिए घर से बाहर निकलता तो पड़ोसियों से नजरें चुराता। लगभग तीन चार महीने तक पति-पत्नी में किसी भी प्रकार संवाद न थी यदि कोई आवश्यकता पड़ती तो पत्नी जैसे शब्दों को ढेले की तरह फेंक कर बोला करती। घर से परेशान एवं सालु के अभिमान भरे तेवर देख कर एवं बार बार नारियों के अधिकारों का पुरुषों के द्वारा हनन करने ऐसे विचारों का प्रतिवादी आक्षेप सुन सुन कर वह अपनी कोई भी इच्छा या घर हो या बाहर आने जाने पर भोजन पकाने बाजार से खरीददारी करने की स्वाधीनता दे दी फिर उसकी पत्नी भागवत कथा सुनाती की तुम पुरुषों ने पितृ तांत्रिक समाज बनाकर प्राचीन काल से लेकर आज भी नारियों को पराधीनता का जीवन जीने के लिए बाध्य कर पैरों में बेड़ी बांध रखी है जिससे उसकी योग्यता, कार्यकुशलता तथा अस्तित्व को सम्मान नहीं मिला। नारियों को पुरुषों के बराबर का अधिकार नहीं दिया है। जबकि सतवीर यदि उसे समझाने का प्रयास करता है कि तुम्हें इस घर में कोई रोक टोक नहीं न किया जाता है परन्तु चौबीस घंटे तक ननस्टाप बक बक करने वालों को सामने वाले की बात सुनने का अभ्यास हीं कहां होती है। इन्हीं परिस्थितियों के बीच एक पुत्री संतान का भी आगमन हो गया तथा इसके लिए भी सालु को भाई बहनों की ओर से लगता है जैसे वे कहेंगे तेरा पति खर्च चला नहीं सकता है परन्तु बच्चे पैदा किए जा रहा है। शर्म नहीं आती है मंहगाई के बाजार में जनसंख्या बढ़ा रही है। इसका दोषी भी सतवीर को बना दी। अन्ततः सतवीर ने पुरुष-स्त्री सम्पर्क से दूरी बना ली। बुढ़िया को दोनों के बीच इससे खुशी मिली या नहीं यह तो वही जाने पर उसके द्वारा घर में अशांति में कोई कमी नहीं आई। दूसरी किसी कम्पनी में थोड़ा अच्छी सैलरी मिलेगी कोई गारंटी नहीं है सो जो सैलरी में वृद्धि होती है उसी पर खड़ा रहा। शालु भी खर्च में कटौती करने का अभ्यास करने लगी। अब उसका परिवार सास सहित पांच जन का हो चुका था। भविष्य की ओर आस लगाए की शायद आर्थिक स्थिति में परिवर्तन होगी समय के साथ समझौता कर लिया गया। लेकिन नदी किसी नाव को किनारे लगा देती है तो किसी को मझधार में तो किसी को किनारे लाते लाते हुए डूबा कर हीं छोड़ती है। 

लेकिन सतवीर अपने दूसरे पथ पर अग्रसर होता रहा और इसमें वह अपने मन की बातों को शब्दों के माध्यम से लेखनी की धार में तीव्रता प्रदान किया। उसकी कहानियां देशभक्ति, सामाजिक व्यवस्था को परिवर्तन करना, युवा वर्ग को अच्छे मार्ग पर चलने को प्रेरित करने वाली से युक्त रहती। पाठक वर्ग के प्रशंसा कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होती जिससे उसके अशांत मन को शांति मिलती। ढेर सारे साहित्यिक संगोष्ठी में आमंत्रण मिलता उसके विचारों को लोग सुनने को उतावले रहते। अनगिनत सम्मानों से सम्मानित किया गया। परन्तु वह चाहता था कि जब पत्र-पत्रिकाओं में उसकी रचनाएं प्रकाशित होती है तो उसे भी कम से कम पारिश्रमिक तो अवश्य मिलना चाहिए परन्तु इस क्षेत्र में भी फिसड्डी साबित हुआ और उसने पत्र पत्रिकाओ में कहानियां भेजना बंद कर दिया लेकिन लेखन कार्य की रेलवे ट्रेन स्टेशन पर ज्यादा देर तक थमी नहीं। यह कार्य भी सालु को फुटी आंख नहीं सुहाती व जैसे हीं हाथ में पेन लेकर खाता खोला कि सालु घरेलू कार्यों में उसकी सहभागिता का निर्देश देने लगती। इससे भी दोनों पति-पत्नी में तकरार हो जाया करती थी। दफ्तर में साधारणतः लेखन कार्य करने का वातावरण नहीं रहता है, थोड़ा सा चूक हो जाने पर मैनेजर का बुलावा आता और उसके चेहरे पर फाइल फेंक दिया करता हालांकि सतवीर के कार्य एवं उसके मिलनसार व्यवहार से सभी सदैव खुश रहता है एवं बाद में सतवीर को खाली समय में बुलाकर अफसोस प्रकट करता —देखो सतवीर, मैं तुम्हारे प्रतिभा का सम्मान करता हूं लेकिन मुझे एक एक रुपए के लिए सुपीरियर को जबाब देना पड़ता है।

      ठीक है सर, आप चिंता न करें मैं आपको शिकायत का अवसर न दूंगा।

 और फिर सब सामान्य हो जाता अर्थात सतवीरा को जब समय मिलता वह कुछ न कुछ न कुछ लिखा करता भलें हीं पचास शब्द हीं क्यों न लिखा जाए। पहाड़ की ढलान से बहती जल धारा के मार्ग में यदि कोई बाधा आ जाए तब जलधारा या तो अपनी प्रवाह के मार्ग बदल देती है या फिर बीच में आई बाधा को हीं निचली सतह पर धकेल देती है पर धारा प्रवाह जारी रहती है। बच्चे भी बड़े हो चले हैं। शालु एवं बुढ़िया के अशांति के कारण वे भी सतवीर को कभी कभार भला बुरा कहने लगे। बेटा सुखविन्दर अपने सहपाठियों को देख मन हीं मन कल्पना करता काश उसका पिता भी ढेर सारा रुपया कमाता तो उसका भी बर्थ-डे मनाया जाता और दोस्तों को आए दिन पार्टियां दे सकता,अब तक उसकी एक बाइक होती और यारों को लेकर सैर सपाटे पर निकला करता पर उसके लिए संभव नहीं है। देखते ही देखते हाईस्कूल पास कर हायर सेकेंडरी पास करने के पश्चात तरसेम अंकल की सहायता से एक अच्छी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में नौकरी पक्की हो गई तथा अच्छी सैलरी भी पर पिता सतवीर के प्रति उसका मन विक्षुब्ध हीं रहा। कभी भी पिता से सीधे मुंह बात नहीं की। उस समय भी एक रात सतवीर सो रहा था कि अचानक उसे लगता है कि जैसे कोई उसके गालों पर थपकी दे रहा हो। आंख खुल गई पर सामने कोई नहीं,बाजू में हीं सालु का आल इंडिया रेडियो नासिका संगीत की सप्त लहरी छेड़ रही। बड़ा विचित्र सा लगा क्या वह स्वप्न देख रहा था। यदि स्वप्न था तो गालों पर थपकियों की अनुभूति कैसे हुई। कपाल पर पसीने की बूंदें उभर आई। अनगिनत प्रश्न मनोमस्तिष्क में लहरों की भांति किनारे से टकराने लगी। उठकर बाथरूम की ओर गया तथा जैसे हीं शयनकक्ष की ओर जानेवाला था सामने कोई छाया खड़ी मिली। ठिठक कर सतवीर के पैर जैसे जम गया हो,गला सूख गया। चेहरा पहचान नहीं पाया। धूंधला फिर भी सतवीर ने पूछा,

कौन। कौन हो - क्या चाहते हो! निशा के तमस में छिपा हुआ केवल एक ध्वनि सुनाई दी

सतवीरा, मैं तुम्हारा-भूत-वर्तमान-भविष्य हूं तुम्हें जन्म देने वाला भूत, वर्तमान में मैं हीं हूं और सुखविंदर भी मैं हीं हूं।

तुम कहना क्या चाहते हो?

कुछ भी नहीं बस इतना हीं जानों बस वर्तमान में बढ़ते रहो। 

ये क्या अनर्गल बातें कर रहे हो! चुपचाप चले जाओ यहां से अन्यथा मैं तेरा गला दबाकर मार डालूंगा। और सतवीरा उसे पकड़ना चाहा।

सतवीरा यह तुम्हारे लिए संभव नहीं है।

इतना कहकर धुंधली सी छवि हंसते हुए गायब हो गया। सतवीरा शयनकक्ष में आ सोचने लगा कि इन बातों का क्या अर्थ है! पुनः सोने का प्रयास किया पर करवटें बदलते रह गया नींद नहीं आई। हालांकि इनसे कभी घबड़ाया नहीं बल्कि उसका आत्मविश्वास और बढ़ जाता है। क्योंकि अपने जीवन में बाधाओं से हीं लड़ता आ रहा है और अब नई बाधा यदि आती है तो फिर लड़ेगा, हार स्वीकार नहीं करेगा। जीवन में जब से होश संभाला है पहले पिता ने उसकी सुध बुध नहीं ली, मां ने उसे क्या - क्या अपमान एवं ताने तथा अश्लील गालियों की सौगात न दी तत्पश्चात विवाह के पन्द्रह दिन भी बीते उसकी योग्यता पर उंगलियां उठाने लगी और अब सुखविंदर तथा परमिन्दर उनके भविष्य का शत्रु मानते हैं। घर से बाहर मित्रों ने उसका मजाक उड़ाया। तब भी उसके कदमों में शिथिलता नहीं आई। उसकी अन्यान्य गतिविधियां जैसे लिखी कहानियों को प्रकाशकों ने प्रकाशित करना स्वीकार नहीं किया क्योंकि उसे कोई साहित्यिक पुरस्कार नहीं मिली और प्रकाशकों को चाहिए प्रसिद्धि प्राप्त रचनाकार ताकि बाजार में उसी की पुस्तकें बिकती है जिसका नाम व यश हो। लेकिन पत्र पत्रिकाओं के पत्रकारों से एक सुमधुर सम्पर्क अवश्य तैयार हो गया था परिणामस्वरूप विभिन्न साहित्यिक संगोष्ठियों में उपस्थित होने का आमंत्रण मिलता रहा चुंकि एक सुवक्ता का गुण जन्मजात मिला था सो विभिन्न विषयों पर उसके विचारों को सराहा जाता रहा। सारे प्रताड़नाओं को हृदय में हीं दबाये रखा। किसी को भी अनुभव करने का अवसर नहीं दिया उसका अन्तर्मन दुखी है। सिवाय तरसेम, यशवंत एवं केहर थे जिन्होंने सदैव सतवीरा को उत्साहित किया। तरसेम तो एक भाई की भांति हमेशा सहायता किया। परमिन्दर तो सालु की पुत्री से अब सहेली बन चुकी थी और अपने मन की बातों को मां से शेयर कर लिया करती थी एवं सालु भी इस परिवार मे आकर सिर्फ और सिर्फ अवहेलित हीं रही केवल एक नारी बनकर। परमिन्दर की दादी ने उस पर अत्याचार की तथा पास पड़ोस में एक पतिता का तकमा दी और उसके पिता सतवीर ने उसकी खोज खबर हीं नहीं ली। इसलिए वह कभी भी नहीं सोची कि बच्चों के सामने पिता की शिकायत करने से बच्चे पिता को महत्वहीन समझने लगते हैं। परमिन्दर की पढ़ाई लिखाई का दायित्व सुखविंदर ने अपने कंधे पर ले लिया था। अतः बेटे को ज्यादा तवज्जो देती थी। 

बहुत दिनों बाद तीनों मित्र सतवीर, तरसेम व केहर एक साथ किसी मित्र के बेटे के बहुभात में एक साथ समय गुजारने का अवसर मिला। तीनों हीं अपने अपने मन को एक दूसरे के सामने रख हल्का महसूस कर रहे थे। बात हीं बात में सतवीरा को सोशल मीडिया के सम्बन्ध में बताया कि साहित्यिक रचनाओं को प्रकाशित करो ताकि विश्व के हर कोने में हिन्दी एवं बंगला भाषी पाठकों के पास पहुंच जाएगी शायद पाठकों की संख्या यदि अधिक हो गई तो तुम्हारी कमाई भी होगी। यह परामर्श सतवीरा को जंचा और उसने मन-ही-मन निर्णय कर लिया वह भी अपनी रचनाओं को सोशल मीडिया पर भेजेगा। इस तरह से अनगिनत कहानियां सोसल मीडिया के द्वारा पाठकों के पास पहुंचने लगी। वह इस वास्तविकता को समझ चुका था उसके जीवन में अर्थाभाव सदैव रहेगा अतः मजदूरी मिले या ना मिले पर पढ़ने वालों में कोई प्रसंशक-कोई निंदक मिल गया और सभी अपने अपने विचार से रचनाकार को प्रोत्साहित करने लगे। अन्ततः एक प्रकार का आत्मविश्वास का संचार हुआ कि चलो उसके जीवन का एक पक्ष तो योग्यता पर उंगलियां नहीं उठने दिया तथा किसी ने प्रताड़ित नहीं किया है। क्रमशः साहित्यिक संगोष्ठियों, सम्मेलनों में अतिथि के रूप में उपस्थित रहने के निमंत्रणों में वृद्धि होने लगी। और इस शांति की चर्चा घर में कभी नहीं किया। तरसेम और केहर को अपने बाल्यकाल के मित्र को भी प्रायः साहित्यिक कार्यक्रमों में जाने का अवसर मिलता था और आयोजकों एवं श्रोताओं के द्वारा सतवीर को सम्मानित होते देख गर्व की अनुभूति होती। तीनों मित्र जब साप्ताहिक अवसर के दिन घर - परिवार से दूर कभी बाजार, रेलवे प्लेटफॉर्म पर बैठते एक दूसरे की मन बात को खोल कर रख देते तथा खुश होते। तीनों मित्रों में एक विषय कामन थी कि पुरुषों के समूह अपने अपने परिवारों मे नारियों के द्वारा प्रताड़ित होते रहते हैं। क्षणिक बंधु बांधवों से भेंट करने के पश्चात घर लौटने की जल्दी होती क्योंकि जैसे हीं घर पहुंचेंगे और विश्व विख्यात वकीलों के प्रश्नों के उत्तर देने होंगे और ताने तथा परिवार के सदस्यों की शिकायतों का पिटारा खोल दिया जाता जिसे सुनकर भूख भी मर जाती है।

ऐसी परिस्थितियों में सतवीर को सम्मानित होते देख अच्छा लगता है। एक दिन सतवीर ने तरसेम एवं केहर को कलकत्ता के कला मन्दिर में आयोजित एक भव्य समारोह में शामिल होने के लिए आमंत्रण पत्र दिया

देखो मुझे एक विशेष सम्मान देकर अलंकृत करेंगे सो तुम दोनों के सिवा मेरे जीवन में अब कोई नहीं है जो ज्यादा खुश होंगे।

क्यूं ब्रादर तूं एक बार फिर कोई नई भाभी लाएगा! 

तब तो तरसेम भांगड़ा नाचेगा और मैंनू ढोल बजाऊंगा। 

वाह भाई वाह,ओय तेरे क्या कहने!

अब जो भी समझ मित्रा। कोई बहाने मत बनाना। मेरी आंखें तुम दोनों को ढुंढेगी। 

दोनों मित्र सतवीर की पीठ थपथपाई और

सत्तू,जब बार्डर पर खड़ा होकर दुश्मन को मारने को तैयार है ओर हम तेरे अण्डरवियर फ्रेंड भला क्यों पीछे रहेंगे। अब इस उम्र में आ सतगुरु से प्रार्थना करता हूं कम से कम पृथ्वी छोड़ने के पहले एक दूसरे का साथ न छूटे। तीनों मित्र एक दूसरे का हाथ थामे हुए खड़े थे। तीनों के नेत्र सजल हो आए। चुंकि सतवीर की कर्म स्थली कला मन्दिर के निकट था इसलिए आफिस में किसी तरह एडजस्ट कर जल्द हीं बाहर निकल आया और पैदल चलकर हीं कला भवन पहुंच गया। उसका दोनों मित्र पहले से हीं उपस्थित थे। मेन गेट पार कर अन्दर भवन में मंच एक दम सामने की रो में अपना स्थान ग्रहण किया। आयोजक सदस्यों में अधिकतर सतवीर को पहचानते थे अतः सम्मान पूर्वक एक दूसरे का अभिवादन आदान-प्रदान हुआ। वैसे आज विश्व में अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस का पालन किया जा रहा था तथा वक्ता के सूची में सतवीर का नामसूची में लिपिबद्ध था एक एक कर परिचित साहित्यकारों,नये - पुराने सारे साहित्यकार जिनमें अधिकतर नारी साहित्यकारों की संख्या हीं स्थानीय, राज्य स्तरीय और राष्ट्रीय स्तर के भी उपस्थित थे। समारोह का आयोजन रंगारंग सांस्कृतिक अनुष्ठान से हीं प्रारम्भ हुआ जो सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’जी के “सरस्वती वन्दना”नामक काव्य रचना थी। इसके बाद सभी आमंत्रित अतिथियों का स्वागत एवं परिचय करवाया गया। ज्यादातर आमंत्रित अतिथि अनगिनत सम्मानों एवं पुरस्कारों से सम्मानित थे अपवाद मात्र सतवीर। आयोजक संस्था के अध्यक्षीय वक्तव्य के समापन के पश्चात जिन लोगों का नाम घोषित हुआ उसमें सतवीर का नाम सुन तरसेम और केहर का सीना जैसे छप्पन इन्च तक फैल गया हो। इसके बाद हीं घोषित हुआ आज का मुख्य आकर्षण सतवीर को साहित्य में अति विशिष्ट सेवा के लिए साहित्यिक कर्नल पदक देकर राज्य के कला एवं संस्कृति मंत्री के हाथों अलंकृत किया गया। पुरा कला मन्दिर का हाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठी। इन तालियों में एक जोड़ी हथेली भी शामिल था जिसके बारे में सतवीर, तरसेम एवं केहर को भी पता नहीं था क्योंकि वह हथेली सुखविंदर का था। सुखविंदर अपने लंच आवर्स बाहर खड़ा था तभी उसकी दृष्टि तरसेम और केहर पर पड़ी और चौंका राहू-केतु एक साथ तो शनि देव भी होगा। इसलिए दोनों का अनुसरण करते हुए मेन गेट पर पहुंचा तो पता चला कि सतवीर जैसे परिचित साहित्यकार को राज्य सरकार के कला एवं संस्कृति मंत्री अलंकृत करेंगे। तत्पश्चात आमंत्रित अतिथियों ने  एक एक कर अन्तर्राष्ट्रीय नारी दिवस पर बहुमुल्य वक्तव्य रखा साथ हीं साथ सतवीर को बधाई एवं शुभकामनाएं दी। सतवीर ने मानव समाज में नारी शक्ति के महत्व को पुनर्भाषित करते समय आधुनिक भारतीय साहित्य के मीराबाई अर्थात महादेवी वर्मा के ‘आषाढ़ का एक दिन’ की पंक्ति को उद्धृत करते हुए कहा कि आज की नारी को स्वयं सशक्त होकर निश्चित करना होगा कि उसे क्या करना चाहिए। कहीं सशक्तिकरण के चकाचौंध तथा पाश्चात्य संस्कृति एवं साहित्य का नकल करते करते अपने देश के अस्तित्व को हीं न मिटा दे क्योंकि मानवता तभी तक जीवित है जब तक पृथ्वी पर भारतीयता जीवित है। एकमात्र इस विश्व में नारियों को शक्ति स्वरूपा मान कर मात्र भारतवर्ष में हीं पुरुष वर्ग उसकी पूजा आराधना करते हैं। अतः वर्तमान में नारियां केवल पुरुष विरोधी बनकर न रह जाए इसका ख्याल रखना होगा। पुरुषों को अत्याचारी पिशाच के रूप में स्थापित करने की होड़ मची है जबकि देखा जा रहा है पुरुषों को स्त्रियों के हाथों शोषित, पीड़ित चाहे मां हो या पत्नी - पुत्री या सहोदरा हो, भाभियां हीं क्यों न हो। कोई भी अवसर मिलने पर एक कदम भी पिछे नहीं रहती है और हमारा समाज उसे प्यार, स्नेह, मातृत्व आदि के रूप में परिभाषित कर उसे ढंकने का मिथ्या प्रयास कर रहा है। इसलिए आदर्श मानव समाज को स्थापित करने के लिए नारी-पुरुष दोनों को हीं एक दूसरे की भावनाओं को सम्मान देना होगा। जब कार्यक्रम का समापन होता है उपस्थित नारी साहित्यकारों ने सतवीर को धन्यवाद देते हुए कहती हैं कि हमने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया पर आज आपने हमें परिवर्तन का नया मार्ग दिखाया। जब सतवीर घर वापस लौटा तो सुखविंदर अपनी मां सालु को सारी बात बताई। सालु का चेहरा आश्चर्य में डूब गई। उसका साहस नहीं होता है कि सतवीरा से इस विषय पर कुछ पुछेगी। सुखविंदर भोजन करने के पश्चात अपने पिता के पास नौकरी मिलने के बाद प्रथम बार आया और हिचकते हुए पुछा

पापाजी, आज आपने आफिस में छुट्टी ली थी

क्यों तुम लोगों ने ऐसा कभी नहीं पूछा फिर आज ऐसी कौन-सी बात है जो जानना चाहते हो

ओ कुछ नहीं आज मैंने आपको कला मन्दिर जाते हुए देखा था

हां मैं गया था, थोड़ा आलस्य आ गई थी न काम का बोझ भी नहीं था इसीलिए।

सारी पापा यू आर माई ग्रेट पापा। इतना कहकर सुखविंदर अपने पिता के सामने खड़ा नहीं रह पाया और वापस अपने कमरे मे चला गया। तब तक सालु भी पुत्री परमिन्दर को लेकर कमरे में आ गई और सुखविंदर को जाते हुए देखी उसे लगता है कि शायद सुक्खा पिता से कुछ कहने आया होगा और बाप का टेढ़ा उत्तर सुनने को मिला होगा सो अपनी अभ्यासानुसार उसका रीकार्डर चालू।

अरे तुम तुम कब मानुष बनोगे। कभी तो सुक्खा के भावनाओं को समझो। तुमसे कुछ नहीं होगा। सारा जीवन अपनी हीं दुनिया में डूबे रहो। जब तक तेरी मां जीवित थी किसी का भला हो ऐसा हीं सोचती हीं नहीं थी। वहीं तेरे अन्दर सदैव बैठी रहती है और हमारे संसार में डायन बुढ़िया आग लगाती है। परमिन्दर एक बार पिता के चेहरे को देखती है जिसमें केवल विरक्ति हीं छिपा है। वह अपने भैया सूक्खा से सुन कर आई थी कि पिता को बधाई देगी पर वह अवसर आज नहीं मिलेगी और उदास मन लिए वापस चली गई तथा सतवी बहरा बन केवल और केवल सालु के प्रताड़ना भरे शब्दों को सुन रहा था।


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