Mukul Kumar Singh

Others

4.4  

Mukul Kumar Singh

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उपलब्धी

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स्कूल से निकलकर जैसे सौ मिटर की फर्राटा दौड़ तय कर फिनिशिंग प्वाइंट को छूने की जल्दी हो। बैरकपुर कोर्ट के पास अटो स्टैंड पर जाकर खड़ा हुआ और अटो का इन्तजार करने लगा। देखते हीं देखते मानिकचंद्र के पीछे भी पन्द्रह बीस लोगों की कतार लग गई। वैसे भी यहां शायद रात को हीं नीरवता विराजती होगी क्योंकि एक तो अदालत की गहमागहमी, दो-दो उच्च विद्यालय तथा दो-दो प्राथमिक विद्यालय और बैरकपुर थाना के साथ-साथ जेलखाना, सेना छावनी एवं बेस हास्पिटल, बैरकपुर कैन्टनमेन्ट हेल्थ सेंटर के अलावा रिक्शा,अटो,टोटो,बस के स्टैंड होने के कारण यातायात का मुख्य केंद्र बिंदु है। मार्निंग स्कूल की ग्यारह बजे क्लासें खत्म हो जाती और कभी बस,कभी अटो या टोटो पर सवार हो बैरकपुर रेलवे जंक्शन पहुंच जाता था। आज भी वही रूटिन पर थोड़ा सा बदलाव हो चुका है। जैसे हीं स्टेशन पहुंचा, एक अद्भुत नमूना के रूप में बैरकपुर स्टेशन को सुसज्जित देखा। टिकट काउंटर पर लंबी यात्रियों की कतार दिखी,पुरा स्टेशन परिसर नीरवता की चादर ओढ़े हुए लेकिन यात्रियों की भागमभाग में कोई अंतर नहीं है। वास्तविकता का पता लगाने प्लेटफार्म की तरफ रुख किया तो बात समझ में आ गई की नीरवता का कारण क्या है। मोबाइल चेकिंग चल रही थी। स्टेशन परिसर काले कोटधारियों से अटी थी और बिना टिकट यात्रियों को इस अपराध से दूर रखने के लिए उनसे जुर्माना वसूला जा रहा था। यह देख मानिकचंद्र सेन का हृदय एकबारगी तो कांप हीं गया था क्योंकि आज उसके रेलवे मंथली के रेनुवल का डेट था जिसे स्कूल आते समय जल्दी में नहीं कर पाया था। अतः बिना टिकट यात्री के रूप में पकड़े जाने के बजाय अपमान के बजाय टिकट कटाना हीं बेहतर है। सो कतार में खड़ा हो गया। उसके सामने शायद पचास-साठ लोग होंगे। काउंटर के पास ऐसी भीड़ जमी थी मुख्य कतार का पता नहीं चल रहा था उपर से शोरगुल इतनी तीव्र जैसे तेज आंधी आई हो और बचने के लिए बेतहाशा भागे जा रहे हैं। टिकट काउंटर से लोग अलग हो रहें हैं पर कुछ हीं पल बाद वह वापस कांउटर पर आ धमकता है। माजरा यह हुआ कि बड़े नोट का छुट्टा नहीं है, टिकट नहीं मिलेगा। मानिकचंद्र का सर चकरा गया। आखिर अपने सामने और पिछे वाले को बोलकर "दादा मैं छुट्टे की व्यवस्था करके आ रहा हूं"तथा इस दुकान-उस दुकान पर दौड़ा लेकिन प्रयास विफल। मन हीं मन सोचने लगा लगता है आज बिना टिकट यात्रा का अपराध करना हीं बदा है। ठीक उसी समय एक भले मानुष ने कहा "आप सिढ़ी पर बैठे भिखारी के पास जाओ,छुट्टा मिल जाएगा"। मानिकचंद्र हिचकिचाहट के साथ कोई उपाय न देख भिखारी के पास पहुंचा और अपनी बात को कहने से पहले चारों तरफ दृष्टि दौड़ाई। लगा जैसे सारी दुनिया उसे देख रही है कि एक शिक्षित और सज्जन व्यक्ति साधारण भिखारी से सहायता मांगने आया है। खैर भिखारी ने उसे छुट्टे प्रदान किया बदले में दो रुपए अपनी दक्षिणा लिया। जिस समय भिखारी अपनी फटी-फटी गन्दी थैली से छुट्टे निकाल रहा था मानिकचंद्र की आंखें फटी के फटी रह गई क्योंकि वह थैली ढेर सारी नोटों से अटी थी। उसका सर चकरा गया इतना सारा नोट एक भिखारी के पास कैसे आया।

इसके बाद से मानिकचंद्र प्रायः स्कूल से लौटते समय कभी दो-तीन रुपए दे दिया करता था। कभी-कभी तो यदि ट्रेन लेट रहती तो उस भिखारी को चाय-बिस्कूट देता था। मानिकचंद्र उससे ज्यादा बातचीत न करता कारण सोचता पता नहीं लोग क्या कहेंगे। यह नई मित्रता बड़ी अजीब थी। किसी ने भी एक दूसरे की नाम तक जानने का प्रयास नहीं किया परन्तु एक दूसरे की राहें देखते रहते। देखते-देखते बारह पैरवाला राही अपनी पूर्ण परिक्रमा कर चुका था। एक दिन मानिकचंद्र के साथ उसका एक मित्र अभिजीत मुखर्जी भी आया था। अभिजीत स्टेशन से कुछ हीं दूरी पर अपने फ्लैट में रहता था और एक राजनैतिक दल का नेता एवं सुयोग्य वक्ता था सबको समानता का ज्ञान दिया करता था। मानिक को राजनीति से एलर्जी थी लेकिन अविजीत श्रमिक श्रेणी का पक्षधर। फिर भी दोनों में पटती अच्छी थी। स्कूल से छुट्टी के बाद दोनों हीं कभी अटो से तो कभी पैदल स्टेशन तक आते। मानिक स्टेशन परिसर में प्रवेश करता और एवं अविजीत अपने फ्लैट। दोनों के अलग होने के अंतराल में एक कप चाय की सिप तो हो जाता। आज स्कूल में अविजीत पूछा था कि, "मिस्टर मानिकचंद्र तुम्हारी ट्रेन तो ज्यादातर एक नम्बर प्लेटफॉर्म पर घोषित हो कर आती है तब भी तुम सीढ़ी पर क्या करने जाते हो?" उसने इस नए मित्र के बारे में बताया और दोनों मिलने के लिए चले आए।

स्टेशन परिसर एक दम शांत लेकिन स्टेशन का चाल कबूतरों एवं अन्य पक्षियों के चहचहाहट से गुंजायमान था एवं प्लेटफार्म उनके मल से सुन्दर चित्रों का पट बना हुआ था। दोनों सिढ़ियों से चढ़ते हुए जब भिखारी के पास पहुंचे मानिकचंद्र चौंक गया क्योंकि भिखारी और अविजीत एक -दूसरे के परिचित निकले। अरे, शुधांशु! तुमने मेरे इस बंधु को भी पटा लिया। दाद देनी पड़ेगी तुम्हारे दृष्टि को जो सदैव सर्वहारा के दुःख-दर्द समझने वाले को चयनित किया करता है। वह भिखारी भी कम न था तपाक से उलटी वंशी बजा दी - "अविजीत, तुम्हारे मित्र में कंजूसी तो नहीं है। तुम तो केवल भाषण हीं देते रहते हो"। अचानक डाउन ट्रेन की घोषणा हुई और यात्रियों की आंधी ब्रीज पर लेफ्ट-राइट करते हुए फस्ट पोजीशन के लिए उछल-कूद मचाने लगी तथा एक नजर इन तीनों महानुभावों पर दौड़ाकर आगे बढ़ जाते तथा कई प्रकार के टोन काटते दो न.प्लेटफार्म पर धड़ाम।। परन्तु इन तीनों को यात्रियों की छींटाकशी से कोई फर्क नहीं पड़ता है। भिखारी उठ खड़ा हुआ और दोनों को यह कहते हुए कि 'आ रहा हूं' सिढ़ियों से नीचे उतर गया। अभी भी मानिकचंद्र के लिए शुधांशु अर्थात भिखारी कौतूहल का विषय बना हुआ था। उसकी कौतूहल को अविजीत ने भंग किया तथा मुस्कुराते हुए बोला "मानिक यह भीख मांगने वाला भिखारी नहीं बल्कि पेशागत भिखारी है और दैनिक हजार रुपए की आमदनी होती है"। बोलते-बोलते अविजीत अपने स्वभावनुसार सीढ़ियों से नीचे उतरती किसी सुन्दर रमणी को घूरता मानिक को केहुनी से इशारे करता है और प्रतिक्रिया व्यक्त किया-"मानना पड़ेगा उस भाग्यवान को जिसको ऐसी सुन्दर पत्नी"........." अरे बंधुवर अब तो अपनी उम्र का ख्याल करो"। फिर दोनों हंस पड़े।

डाउन ट्रेन चली गई फिर भी कुछ ऐसे यात्री अभी भी सिढ़ियां तोड़ रहे थे जैसे आज भी ट्रेन लेट होगी। इतनी देर में शुधांशु चाय-बिस्कुट लिए आ गया। मानिक और अविजीत को चाय दिया और स्वयं भी लिया। मिट्टी के भांड़ में चाय का सिप लेते-लेते मानिकचंद्र शुधांशु के आंखों को देख रहा था जिसमें कातरता के स्थान पर स्वाभिमान की अग्नि धधकती हुई दिखाई दी जैसे कह रहा हो आप लोग केवल शुटेड-बूटेडधारी हो, केवल अपने लिए सोचते हो कुछ करने की चाहत हीं नहीं है। अप ट्रेन की घोषणा हुई तथा मानिकचंद्र अपने दोनों मित्रों से विदा ले कर सिधा एक न.प्लेटफार्म पर। धीरे धीरे मानिकचंद्र की झिझक समाप्त हो चुकी थी एवं अब शुधांशु से बात करते समय दुनिया की परवाह नहीं करता है। लगातार लम्बे समय से दैनिक यात्री की भूमिका का पालन कर रहा है और फिर भी मानवों के स्वभावों में नित्य नयापन दिखाई देता है परन्तु एक बात मूलरूप से समझ गया कि यह जो होमोसैपिएन्स है न बहुत हीं धूर्त,निष्ठूर, कृत्रिम प्रदर्शन का लोलूप जीव है। केवल बड़ी-बड़ी बातें करता है "जीओ और जीने दो"पर सदैव अपने जीवन की बात हीं सोचता है भले हीं दूसरे को उसके लिए मरना पड़ेगा। हीं दूसरे की हत्या क्यों न हो जाए। 

मौसम परिवर्तन ने अपना नाटक चालू कर दिया था सो मार्निंग स्कूल होने के बावजूद भी टिन शेड के नीचे क्लास लेने में शिक्षकों की हालात पतली हो जाता करती थी तीस पर लोड शेडिंग तापमान की प्रखरता में चार चांद लगा दिया और छात्रों एवं शिक्षकों को तो मजा आ गया। अधिकतर ग्यारहवीं एवं द्वादश के छात्र-छात्रायें गंगा किनारे मोरा जोड़ीदार है झटके से पहुंचा दे मोरी मैया।"चल भाई मानिकचंद्र, आज तो अविजीत है नहीं। सो स्टेशन तक रास्ते को अकेले हीं गले लगाना होगा - मुझको अपने गले लगा ले,ऐ मेरे हमराही। लेकिन आज मेनरोड से नहीं बल्कि सेना छावनी के अन्दर बड़े बड़े पेड़ों की चहारदीवारी से घिरे ठंढी-ठंढी छाया के तले पक्षियों का कलरव सुनते तथा पेड़ों की झूरमुटों से कैमाफ्लेज करने वाली युनिफॉर्म में सैनिकों को देखेगा और उसके साथ हीं मोटरसाइकिल से जाते हुए किसी आकर्षक कैप्टन या मेजर को अहंकार व गर्व से परिपूर्ण चेहरे को देखकर खुश होगा। ग्रीष्म कालीन वातावरण में प्रायः इस प्रकार जाया करता था। सुधांशु भी प्रायः इस रास्ते की सौन्दर्य का गुणगान किया करता था। स्टेशन भी गर्मी के अत्याचार से डर कर सहमा-सहमा था । यात्रियों का रेला को जैसे किसी ने धमकी दे डाली थी यदि बच्चू भीड़ किए ना तो टांगें तोड़ कर रख दूंगा। मानिकचंद्र अपने मित्र सुधांशु के पास जाकर बिल्कुल अनुभवी व्यापारी की भांति पूछा - "क्या बात है, आज बाजार एक दम ठंडा है"। हां इस जून की गर्मी ने शायद ऐसी वालों से व्यापार की शर्तें हस्ताक्षर करवा रहा होगा ताकि देश की अर्थव्यवस्था केवल श्रमिकों से ली गई टैक्स से सुधरने वाली है नहीं हो थोड़ा उनको भी अवसर देने चाहिए नहीं तो आई.टी विभाग वाले का तथा विद्युत विभाग वाले का पेट कैसे भरेगा। दोनों हीं मित्र मुस्कुरा उठे। पक्षियों की किचकिच के अलावा स्टेशन ध्वनि दूषण से आज मुक्त थी उपर से ट्रेन भी लेट है कारण इण्डियन रेलवे सदैव व्यस्त रहती है। इन्क्वायरी केंद्र पर बैठे अन ड्यूटी वाले कहते हैं घोषणा तो सुनते रहिए। अतः दूसरा कोई उपाय न देख मानिकचंद्र कई महिनों से दबाकर रखी इच्छा को सुधांशु के सामने प्रकट कर दिया। इस प्रश्न पर दोनों दिशाएं स्तब्ध हो गई। सुधांशु के क्षत-विक्षत घावों पर शायद किसी ने उंगली रख दिया हो जबकि मानिकचंद्र पश्चाताप कर रहा था कि उसे किसी से भी ऐसे प्रश्न नहीं करना चाहिए था। अंततः सुधांशु के मुखमण्डल पर कठोरता तथा नेत्र ज्योति में इस मानवीय समाज के प्रति घृणा की अग्नि धधकने लगी।एक अभावी परिवार तथा निर्धन मां का बेटा बनकर पैदा हुआ था। कई घरों में परिचारिका का काम करती थी ताकि बेटे को कम से कम ग्रेजुएशन तक पढ़ने का मौका मिल जाए और वह अपने लक्ष्य को प्राप्त भी कर चुकी थी परन्तु अत्यधिक परिश्रम ने उसे रोगिणी बना दिया था। एक रोग के लिए डॉक्टर को दिखाती , जो दवाईयां डाक्टर लिखकर देता सब खरीद पाना संभव नहीं होता था। जैसे हीं दो-तीन दिन दवा खाई थोड़ा आराम मिला,संग हीं संग दूसरा रोग उसे बिछावन पर पटक देता। दवाओं के खर्च तथा मां-बेटे के पेट का खर्च चलाने में काफी तंगी हो रही थी सो डाक्टर के द्वारा एक दम पूर्ण आराम प्रेस्क्राइब करने के बाद भी घर पर आराम नहीं कर सकती थी, क्योंकि इससे उसका काम किसी अन्य परिचारिका को मिल जाएगा तथा उसकी मां को किसी अन्य घर में परिचारिका का काम ढुंढना पड़ेगा। मानवता के ढोंग करने वाले तथा कृत्रिम दया, सहानुभूति दिखाने वाले समाज में जीविका ढुंढना सबसे कठीन कार्य है। ग्रेजुएशन की फाइनल परीक्षा देने से पूर्व हीं रोजगार के लिए एड़ियां रगड़ना शुरू कर दिया था। परन्तु सभी दरवाजे बन्द। एक-एक पोस्ट पर हजारों की संख्या में आवेदक। अतः नौकरी की आस लगाए उम्मीदवारों को कैसे छांटें शायद इस योजना पर परीक्षाएं लिए जाती हैं अर्थात दिखावे की परीक्षा ली जाती हैं। इधर दिन पर दिन मां की तबीयत बिगड़ती जा रही थी। जिन-जिन घरों में परिचारिका का काम करती थी मैं उनके पास गया, सहायता की आस लगाए। उनलोगों ने सौ-सौ की नकदी थमा दी पर मुझे अच्छा नहीं लगा इस लिए मैंने उनसे याचना की मेरे लिए किसी काम की व्यवस्था कर दें ताकि मैं मेहनत कर दो रुपए स्वयं उपार्जन कर मां को डाक्टर से दिखा सकूं। मैं इन परिवारों के बारे में जानता था सभी सरकारी-बेसरकारी नौकरियां या व्यवसाय करते थे। काम का आश्वासन मिला लेकिन "उनका आना"कभी आज में नहीं बदला। धीरे-धीरे फांकें की नौबत आ। भूखा पेट कब तक चल पाता। मैंने लोक-लाज त्याग कर होटलों में काम ढुंढना शुरू किया ताकि भोजन भी मिले और पैसे भी। काम तो मिली पर दो-तीन दिन के लिए और मालिक ने काम पर आने से ना कर दिया क्योंकि मैं ग्रेजुएट हूं कहीं आगे चलकर उन्हें किसी परेशानी में न पड़ना पड़े। मन हीं मन तय किया कि दूर कहीं चला जाऊंगा और किसी को बताऊंगा हीं नहीं मैं पढ़ा-लिखा हूं। लेकिन बिस्तर पर पड़ी मां को कौन देखेगा यह ख्याल आते हीं मेरी आत्मा मुझे धिक्कार उठी। तीन-चार दिन तक भूखे प्यासे अन्तर्द्वंद से लड़ता रहा। मां की हालत इतनी गंभीर हो चुकी थी कि शायद वह कुछ हीं पल की मेहमान है। आखिर मेरा हृदय निष्ठूर हो गया और अगली प्रातः मुंह अंधेरे घर छोड़ने के लिए अपने कदम बाहर निकाला तभी कमरे के अंदर से मां की आवाज आई, "जा रहा है मेरा बच्चा। सदैव खुश रहना"। मां की गर्दन एक तरफ लुढ़क गई। मुझसे रहा नहीं गया तथा रुलाई नदी की धारा को मेरी तरफ तरफ धकेल दिया और दोनों नयनों ने उस प्रवाह में स्वयं को डूबों दिया। मैं रोते-रोते जब थक गया तब तक ग्यारह बज चुके थे। कमरे से बाहर निकल पड़ोसियों को बताया कि मेरी मां मर चुकी है। लोग मृत शरीर को देखने के लिए आए तथा चलते बने पर किसी ने एक शब्द भी खर्च करना उचित न समझा कि कहे - उठो जाओ अंतिम संस्कार की तैयारी करो। मैंने स्वयं हीं उनसे कहा कि क्या कुछ रुपए की मदद करेंगे। पड़ोस वालों ने संग हीं संग दस,बीस पचास मेरे हाथों में थमा दिए और पाड़ा के क्लब के लड़कों ने घर-घर घुमकर कुछ और भी रुपए की व्यवस्था कर दिए। यह देख मेरे हृदय की अग्नि प्रज्वलित हो गई अर्थात मैं भिखारी बन चुका हूं। मां की चिता तो तीन घण्टे में शांत हो गया पर उन आग की लपटों का क्या होगा जो मेरे हृदय में धधक रही थी। इन लपटों की तपिश में तपकर मैं एकदम लज्जा - शर्म को भी घर से बाहर निकाल दिया तथा मां के लिए श्राद्ध कर्म भी नहीं किया जिससे पाड़ा के क्लब के लड़कों ने जो चंदा इकट्ठा किया वह सब मुझे हीं दे दिया था और मैंने लगभग पन्द्रह दिन एक वक्त भोजन किया और काम की तलाश में इधर-उधर घूमते रहा पर कहीं काम नहीं मिला। ऐसे हीं एक दिन एक मित्र के कहने पर ट्यूशन पढ़ाने की बात फाइनल करने गया था लेकिन निराशा हाथ लगी और भटकता हुआ हुआ एक बुढ़े भिखारी से टकरा गया। भिखारी गिर पड़ा, उसकी पोटली,टुटी-फुटी थाली, एक गंदा पानी का बोतल सब कुछ इधर-उधर बिखर गया। मैं भिखारी को उठाया। वह मुझे गालियां देने लगा चुंकि गलती मेरी थी सो गालियां सुनने के बावजूद भी उसके सारे समान इकट्ठे करके उसे वापस लौटा दिया और क्षमा याचना भी की। लोगों की भीड़ भी मुझे हीं कोस रही थी कि आंखों वाला होकर भी अंधा हूं,निष्ठुर हूं, मनुष्य होकर भी एक भिखारी को धक्का मारकर गिरा दिया। उस भीड़-भाड़ में से किसी की आवाज आई चलो इसको भी धक्के देते हैं और उपर से दो-चार.......। मेरी आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा। हे ईश्वर! एक तो पेट में दाना नहीं तीसपर पब्लिक की मार। धन्य है यह मानवता किसी को जीविका दे नहीं सकते पर उसे पीड़ित करने में सुख की प्राप्ति अवश्य करेंगे। मन में तो आया ऐसी मानवता को आग लगा देना चाहिए। खैर आगे लगाने के लिए जीवित रहेंगे तब न। तभी एक उस बुढ़े भिखारी के व्यवहार ने अचम्भित कर दिया। उसने भीड़ से प्रार्थना करते हुए कहा, "नहीं-नहीं उस लड़के को छोड़ दो क्योंकि मेरी भी गलती थी कारण मुझे तो कम से कम ध्यान देना चाहिए था। वो यदि इच्छा से करता तो मेरी गालियां नहीं सुनता और ना मेरे बिखरे समान इकट्ठे करके देता"। इतना सुन भीड़ शांत हो गई और भिखारी ने मेरे एकदम निकट आ फिसफिसाते हूए कहा, "यहां से थोड़ी दूर पर एक चाय की दुकान है,मेरा इन्तजार करो"। उसका इन्तजार करने से ना नहीं कर सका। वह आया। उसे देख दुकानदार ने दो प्लेट में दो-दो करके पराठे और मटर की घुघनी सामने लाकर रख दिया। भूखा-प्यासा तो भटक हीं रहा था सामने खाना देख मेरी भूख अंतड़ियों में ऐंठना प्रारम्भ कर दिया और मैंने सामने वाले को पुछना भी आवश्यक नहीं समझा तथा पराठे पर टूट पड़ा। दोनों पराठों को उदरस्थ करने के पश्चात मैंने देखा वह भिखारी मेरी ओर एकटक देख रहा था। मैं अपने व्यवहार पर लज्जित हुआ। उसने अपनी प्लेट मेरी तरफ खिसका दिया और कहा-"कोई बात नहीं है। इसे भी खा लो मेरी चिंता मत करो क्योंकि मुझे तो और मिला जाएगी। मैं थोड़ा सकपकाया पर उसके स्नेह भरी हाथों की थपकियों ने जैसे मेरा सर्वस्व हर लिया हो। एक आज्ञाकारी शिशु की भांति उसके प्लेट के पराठों को भी पेट के अन्दर धकेल दिया। उसने पूछा - "लगता है बेकारी से परेशान हो पर कोई काम पर नहीं रखते हैं। रखेंगे कैसे! क्या तुम्हारा कोई सुपारिश करने वाला है, कोई हाथ का काम जानते हो, नहीं न। तो सुनो बोझ ढोने काम मिल सकता है जो तुमसे नहीं होगा क्योंकि पढ़े-लिखे लगते हो और जब तक शरीर तुम्हारा मजबूत है तब तक ठीक है परन्तु उसके बाद क्या करोगे"। अवाक होकर सोच रहा था इसे मेरे मन की बात कैसे पता चला। यह सोचना एक तरह से मूर्खता हीं थी कारण जो बेकारी में जी रहा होता है हमारा वर्तमान मानव समाज उसके साथ यही व्यवहार करती है। आखिर मैं क्या करूं मुझे कोई काम पर रखता हीं नहीं। भिखारी बन जाओ, बिना पूंजी के हर महीने अच्छी कमाई होगी। रुपए तो हवा में उड़ रहे हैं बस पकड़ना सिखों। इन्हीं रुपए के पीछे सारी दुनिया भाग रही है। आखिर तुम लोगों से काम मांग रहे हो या नहीं। उसकी प्रश्नवाचक दृष्टि के सामने मेरी बोलती बंद हो गई थी। उस भिखारी ने अपनी पोटली मुझे दे दी और जैसे उसने मुझे पुनः स्मरण कराने की कोशिश की काम मांगना भी तो भिख मांगने के समान है हालांकि भिख तब तक मत मांगना जब तक सारे पथ-घाट बन्द न हो जाए और हां मैं प्राय बैरकपुर स्टेशन पर हीं मिलूंगा। इतना कहकर वह मुझसे बिना कुछ कुछ कहे वापस लौट गया एवं भंवर में फंसा उधेड़बुन में डुबकी लगा रहा था। घर आकर भिखारी की पोटली खोली तो मैं दंग रह गया। पोटली में ढेर सारे रुपए थे। उन रुपयों से सबसे पहले घर को मरम्मत करवाया, तत्पश्चात राशन। जीविका की तलाश में दफ्तरों के आगे सर फूट गया पर कहीं पर सर टकराना थमा नहीं। अंत में काम मिला मजदूर की जिसे मिस्त्री का हेल्पर के अलावा कम्पनी के दफ्तरों के सभी फाई-फरमाईश भी पुरी करनी चाहिए एवं मालिक तथा मैनेजर की गालियां सुनना तो जैसे रूटीन था जबकि मिस्त्री का तो सौत था।वह सदैव मेरा शिकायत करता था। लगभग छः महीने मैं काम किया और एक दिन अभी मैं काम पर पहुंचा हीं था और कपड़े बदल रहा था मैनेजर ने बुलाया और कहा कि अभी काम का दबाव नहीं है सो दो महीने तक कम मजदूर हीं काम करेंगे तब तक के लिए घर बैठे आराम करो। यह रहा तुम्हारा पगार। बैठे रहने से तो चलने वाला है नहीं। इसलिए पुनः जीविका की तलाश करने लगा। इसी क्रम में दाढ़ी-मुंछ बढ़कर मेरे थोबड़े पर एक प्रकार का नकाब पहना दिया। एक दिन उस भिखारी से मिलने पहुंचा उसके बताए हुए स्थान पर लेकिन मुझे पहचान नहीं पाया तब मैंने उसे पोटली की बात बताई वह बहुत खुश हुआ। उसे जब मैंने बताया कि लगभग तीन महीने तक मैंने मजदूर का काम किया और अभी फिर काम ढुंढ रहा हूं। उसने मेरा उत्साह बढ़ाया बढ़ाया - कोई बात नहीं,काम तो तुम्हें मिल हीं जाएगा प्रयास करना मत छोड़ना क्योंकि ईश्वर उसी की मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करता है। वैसे आज तुम्हें एक साइड बिजनेस के बारे में बताउंगा। कुछ देर तक हम दोनों आपस में इधर-उधर की बातें करते रहे और राहगीर उसके बाटी में एक रुपया-दो रुपया डाल कर आगे बढ़ जाता। एक-दो तो ऐसे थे जो शायद मुझे पहचानने की कोशिश करते पर पहचानते तब जब मेरी कोई प्रतिक्रिया होती तभी तो क्योंकि अभाव में दिन-रात काटते-काटते मान-प्रतिष्ठा तथा अपमान,सब बेकार हो चुकी थी।

अचानक वह मुझे बैठे रहने को कह उठ खड़ा हुआ और बाहर निकल गया गया। वो आ गया - अब आ जाएगा आदि सोचते-सोचते देर हो चुकी थी पर भिखारी तो जैसे गदहे के सर से सिंग गायब। वह आया पर सूर्य डूबने - डूबने को था। इसी बीच मैं झपकी भी ले चुका था। भिखारी के चेहरे पर मुस्कान खेल रही थी जबकि मैं अन्दर हीं अन्दर क्रोधित था परन्तु जब उसने अपने बिना बोले जाने वाले रहस्य को उद्घाटित किया तो मेरा क्रोध जल की भांति तरल हो गया क्योंकि मुझे बिना पुंजी के साइड बिजनेस करने की ट्रेनिंग दी। मैं आश्चर्य में डूबा हुआ था एक भिखारी में भी कुछ करने की योग्यता होती है और मैं इसे अदना सा भिखमंगा समझा। वह कह रहा था - "पढ़े-लिखे बाबू इस स्वार्थी मानवों के संसार में मांगने से कुछ नहीं मिलता है और कुछ पाने के लिए आपको भी छल-बल-कल का प्रयोग करना हीं होगा। देखते नहीं हो ईश्वर को वह आपको देगा पर कब पहले आप उसे पूजेंगे तब"। उस भिखारी के तर्क के आगे निरुत्तर हो गया था। मैं जितनी देर तक बैठा था मिले सारे रुपए मेरे हाथ में थमा जाते-जाते कहा - "यह आज का बिजनेस का लाभ है। यदि तुम्हें कोई अच्छी चाकरी - वाकरी मिल गई तो इस बिजनेस को आफ कर देना और सुनो इस निर्दयी संसार ने तुम्हें क्या दिया मत सोचना बल्कि तुम इस संसार के लिए-जीव कल्यान के लिए कुछ करने का लक्ष्य तय कर लो ताकि आने वाले समय में फिर किसी को भिख मांगने की आवश्यकता न पड़े"।

तब से लेकर अब तक न जाने कितने शीत-बसन्त आए और वर्षा चली गई तथा मैं इन्हीं सिढ़ीयों पर बैठ-बैठे सफेद-काले नकाबपोशों को देखा है। पहले आश्चर्यचकित हुआ करता था पर अब निरलस। आज तक मनुष्य के रूप में कोई दिखाई नहीं दिया। लोग कहेंगे कि क्या मैं मनुष्य हूं या नहीं तो इसका आकलन मैं स्वयं तो कर सकता हूं नहीं मानिक बाबु क्योंकि जब किसी की ओर उंगली उठाता हूं तो उठी हुई उंगली वाली हाथ की तीन उंगलियां मेरी ओर उठ जाती है। जानते हो मैं भिख अपना पेट भरने के लिए नहीं ग्रहण करता बल्कि कुछ ऐसी आग की शिखाएं हृदय में प्रज्जवलित हैं जिन्हें नदी की जलधारा से बुझाना चाहता हूं ताकि फिर ऐसी अग्नि में भविष्य में कोई भी न झुलसे। अंतिम वाक्यों को पुरा करते समय शुधांशु का मुखमण्डल पर जैसे भोर का आलोक छटा अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया हो। उसकी सांसों की गति तिव्र हो गई थी आंखों से चिंगारियां निकल रही है। कई पल की निरवता दोनों के बीच विराजमान थी। अंत में इस निरवता के चादर को मानिकचंद्र ने हटाया और शुधांशु की प्रशंसा करते हुए कहा - "बंधुवर मुझे तुम्हारे हृदय की गहराई में डूबने पर जो दिख रहा है उसे एक न एक दिन अवश्य प्राप्त होगा और यह भविष्य की एक उपलब्धि होगी जो शायद जनकल्याण हेतु समर्पित हो जाय"। परन्तु मेरे एक सन्देह का निवारण करोगे! बंधु पुछो तो सही। "एक बात मुझे बताओगे, क्या तुम्हारा परिवार भी है या अकेले हो"? वह मुस्कुराया। उसकी मुस्कराहट में शिशु की भांति सरलता थी और जब उसने अपनी पत्नी एक पुत्र और एक पुत्री की बात कही तो मैं आसमान से जमीन पर ऐसा गिरा की मुझे बीच में लपकने वाला कोई नहीं था। सुधांशु की पत्नी आंगनबाड़ी में कार्यरत तथा पुत्र-पुत्री दोनों ने हीं मेडिकल की पढ़ाई पुरी की एवं अभी अपना छोटा सा क्लिनिक चला रहें हैं। "फिर मेरा एक परामर्श ग्रहण करोगे"। इस बार वह हंसने लगा और अभी मैं अपनी बात पुरा भी नहीं कर पाया था और उसने मुझे जवाब दिया कि वह अब ज्यादा दिन तक भिखारी नहीं रहेगा ऐसी हीं उसके परिवार वालों की इच्छा है। 

वास्तव में उसके बाद से शुधांशु को बैरकपुर स्टेशन की सिढ़ियों पर नहीं पाया। प्रतिदिन अपने स्कूल से वापस लौटने के पश्चात स्टेशन परिसर में मानिकचंद्र और शुधांशु से अब भेंट नहीं होती है। प्रायः अविजीत के साथ शुधांशु के विषय में चर्चा किया करता और दोनों मित्र बड़ी आशा लेकर आते हैं शायद उस भिखारी के वेश में उनके मित्र से भेंट हो जाएगी पर स्वप्न तो स्वप्न हीं होता है जैसे हीं आंख खुली और मनुष्य स्वयं को बिछावन पर लेटा हुआ पाता है। देखते-देखते दिन-सप्ताह-माह अंत होने के बाद वर्ष सिढ़ियां चढ़ रही थी कि अचानक एक दिन अविजीत स्कूल में टिफिन आवर्स में मानिकचंद्र के सामने समाचार पत्र पटकता है तथा कहा - "हम दोनों जिसे केवल भिखारी समझे वह तो छुपा रुस्तम निकला"। मानिक चन्द्र ने जब समाचार पत्र पर दृष्टि दौड़ाई तो देखा कि शुधांशु का परिवार सहित फोटो छपी है तथा शीर्षक में लिखा था भिखारी की दानशीलता,सारा जीवन भर भीख मांग कर बाइस लाख अस्पताल के लिए दान करने वाले शुधांशू ने सबको सुधा रस की व्यवस्था कर दी।


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