Mukul Kumar Singh

Fantasy Others

4  

Mukul Kumar Singh

Fantasy Others

कोस्टल ट्रेक

कोस्टल ट्रेक

51 mins
416


                     

यूं तो पैदल चलने का मजा ही कुछ अलग होता है वह भी ऐसे स्थानों पर जहां ज्यादातर लोगों का आना-जाना कम ही होता है। अब जैसे पहाड़ या पहाड़ी क्षेत्र, समुद्र तट, मरूभूमि। मानव कोलाहल से दूर प्रकृति के पालने में पैदल चलने से हृदय को एक अद्भुत शांति और सुख की प्राप्ति होती है। अपने देश भारत में मन्दिरों एवं तीर्थों की कमी नही है, सब की प्रतिष्ठा के पीछे पौराणिक कथाएं भी कम आकर्षक नही है और प्राय: स्थापना स्थल पहाड़, नदी या सागर का किनारा है अर्थात ईश्वर के सानिध्य में जाने के लिए पहले प्रकृति के उपादानों को साधो तब जाकर के आप शरीर व मन से अभिष्ठ शक्ती के दर्शन करोगे। परन्तु मैं किसी ईश्वर दर्शन की अभिलाषा से कोस्टल ट्रेक पर नही निकला हूं। बस कल्ब के द्वारा आयोजित कोस्टल ट्रेकिंग में हिस्सा लेने वाले सदस्यों में मेरी पुत्री पायेल इसकी संचालिका थी। वैसे मैं भ्रमणविलासी और तत्पश्चात उसे लिपिबद्ध कर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित किया करता था। अतः मुझे मेरे क्लब के सदस्यों ने एक अभिभावक के रूप में शामिल कर लिया। मेरी पत्नी भी क्लब की पदाधिकारी है, इसलिए वह भी इस ट्रेकिंग में शामिल थी। सबसे बड़ी विशेषता यह है कि क्लब का एक सदस्य शिवेंद्र चन्द्र धर मालदा जिले का निवासी था, उसने अनुरोध किया था "सर, आप मुझे केंद्र में रखकर कोई भ्रमण वृतांत लिखते तो मैं उसे सहेज कर रखूंगा और जब-जब उसे पढ़ूंगा आप मुझे याद आएंगे।" अब पुरी कोस्टल ट्रेकिंग मेरे लिए उपयुक्त लगा  ताकि अपने छात्र की इच्छा को पूर्ण करूं। कोस्टल ट्रेकिंग के लिए जो दल बनी थी वह इस प्रकार है:-कमल सरकार (लीडर),पायेल सिंह (डेपुटी लीडर), शिवेंद्र चन्द्र धर (मैनेजर), सुभाष कुमार साव, विवेक चौधरी, राबिन सरकार,तेजु साव, शिप्रा प्रमाणिक, प्रीति वैरागी, शीतल विश्वास, लक्ष्मी वर्मा, आंचल गुप्ता एवं श्रीमती रिना सिंह तथा अन्तिम सदस्य मैं स्वयं था। 

यह ट्रेकिंग एकदम विषम परिस्थितियों में आयोजित किया गया कारण सारा विश्व को-19 पैण्डेमिक के आक्रमण से बेहाल, लोग; लोग से लोक भयभीत हैं, कही वह कोरोना संक्रमित तो नही न है, सरकार ने भी सभी जगह गांव-शहर में लकडाउन की घोषणा कर रखी है। पुलिस की कड़ी दृष्टि चारों ओर हर जगह पर पेट्रोल कर रही थी। दुकानें बंद-बाजार बंद, सैलून तथा जीमखाना, स्कूल-कालेज, आफिस एवं बैंक,लोकल ट्रेन तक बन्द कर दी गई। देश के सारे नागरिक अपने-अपने घरों में दुबके हुए थे। सोसल डिस्टेंस एवं कोरोना से बचने के लिए कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करना अनिवार्य था। इन परिस्थितियों में कब कौन सी बाधा सामने आ खड़ी हो और सबको परेशान होना पड़ेगा। फिर भी यह जो ट्रेकिंग दल है उर्जावान, साहसी रोमांच एवं कुछ नया करने की अदम्य इच्छाशक्ति से सुसज्जित युवाओं का था। बस थोड़ा गड़बड़ मैं और श्रीमती जी ३६ बन अधिक उम्र का इनके अभिभावक के रूप में युक्त कर लिया गया। ट्रेकिंग शुरू होने के पूर्व ही टीम लीडर एवं असिस्टेंट लीडर सभी, सदस्यों के साथ कई बैठकें कर छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रखते हुए ट्रेकिंग शुभारंभ तिथि तय करके हावड़ा से भुवनेश्वर तथा भुवनेश्वर से छतरपुर जिला गंजाम (उड़िसा) की ट्रेन नंबर 02073 आप में चौदह टिकटें बूक कर लिया और ट्रेकिंग रूट कुछ इस प्रकार सजाई गई:- हावड़ा से भुवनेश्वर --- छतर पुर ------ गहिरमाथा मैरिन वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी ----- बटेश्वर ---- आलेश्वर ---- उदयगिरी सी बीच ----- क्रैब आईलैंड ----- राजहंस आईलैंड ----- चिल्का झील का मुहाना ---- बाली हरचण्डी ---- दुधिया नदी मुहाना पार कर पूर्वी तट संलग्न पुरी सीबीच अंतिम पड़ाव। 

ट्रेकिंग शुरू से पहले ही एक झटका लगा क्योंकि दल की डेपुटी लीडर पायेल को अपना नाम वापस कर लेना पड़ा। उसका आफिस में वैज्ञानिकों‌ का सम्मेलन की समय निर्धारित हुई २६ दिसम्बर २०१९ को। इसके बाद कई नाम निकले तथा कुछ नये नाम जुड़ने लगे। बड़ी अजीबोगरीब स्थिति सामने आ खड़ा हुआ। परिणामस्वरूप पायेल ने जो लोग एकदम निश्चित थे कि वे जाएंगे ही उन्हें छोड़ कर बाकी के आठ टिकट रद्द कर दी और हमारी संख्या रह गई मात्र छः जन। परन्तु शिवेंद्र ने अपना प्रयास जारी रखा जिससे  चार नये सदस्यों का नाम सूची बद्ध तथा ट्रेकिंग खर्च शत् प्रतिशत भुगतान भी हो गया। चलो सभी खुश अब तो हम दस की गिनती में आ गए। हमारी टीम की रवानगी में केवल एक सप्ताह रह गए थे कि अंतिम क्षण में पायेल के माध्यम से दो और लड़कियां आ गई। अर्थात कालेज छात्राओं की संख्या छः जो अपने क्लब की सदस्यता ग्रहण नही की थी एवं एक पुराना सदस्य विवेक आ गया, इस प्रकार दल की संख्या अनलकी थर्टीन। और क्या कहूं पढ़-लिख कर भी इंसान लकीर का फकीर ही बना रहता है। इस विषय पर थोड़ा ना-नुकुर की आंधी उठने लगी और इसे रोकने के लिए या तो दल की सदस्य संख्या बारह हो या चौदह हो। खैर समस्या का समाधान शिवेंद्र एवं कमल आपसी आलोचना के माध्यम से किया तथा अंत में मेरी राय भी ली तो मैंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कुसंस्कारों से मुक्त हो कर काम करो क्योंकि मेहनत और लगन के द्वारा भाग्य को भी बदल दिया गया है। उन दोनों का मन एक दम प्रसन्न। जब 'सर' ने कह दिया है तो चिंता क्यों करें। हम अनलकी थर्टीन ही लेकर गंजाम से पुरी की कोस्टल ट्रेकिंग को सफलता देकर रहेंगे एवं जय बाबा जगन्नाथ का उदघोष लगा पुनः ट्रेन में टिकट बुकिंग कराया। इसके बाद शिवेंद्र ने सारे नये सदस्यों ट्रेकिंग जाने की तैयारी पर क्लास लिया तथा आवश्यक निर्देश दिया।

देखते-देखते निश्चित तिथि २४ दिसम्बर २०२० को  "हिमचक्र कोस्टल ट्रेकिंग गंजाम से पुरी - २०२०"का दल हावड़ा जंक्शन पर पहुंच गई। सारे सदस्य प्रसन्नचित दिखाई दे रहे थे और इस प्रसन्नता में चार चांद उस समय आ लगी जब क्लब ट्रेजर नवीन कुमार अग्रवाल ने मुझे मोबाइल पर बताया कि वह क्लब की ओर से शुभकामनाएं तथा ३०००रुपये की स्पोंसरशिप देने आ रहा है। मैंने जब यह सूचना दल नेता तथा प्रबंधक को दिया एवं उनके माध्यम से बाकी सदस्यों को जब यह सूचना मिली तो वे लोग खुशी से झूम उठे। ठीक दस मिनट बाद ही नवीन फूलों का गुलदस्ता तीन हजार की नकद राशि मेरे हाथों में सौंपा कारण इस दल में वरिष्ठ, अनुभवी और इनके रोमांचक खेल का शिक्षक जो मैं ही था। आप लोग क्या सोच रहे हैं मैं डकार गया! नहीं-नही यहां तो मेरा हाजमा ही खराब हो जाएगा। इसीलिए खुद को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए प्रबंधक शिवेंद्र के हाथ में दिया और उसे कहा "लो अब तो तुम्हारी भूख मिटेगी भले ही तुम्हारा पेट खराब हो जाए।" उत्तर में शिवेंद्र मूर्ख का अभिनय करते हुए कहा "मेरे भाईयों और बहनों हमारे सर कितने निष्ठूर हैं। यह तो आप लोग भी जान लो ।" यह सुनकर सभी ठहाका लगा हंसने लगे। इसी बीच नवीन दल नेता कमल सरकार को दल नेतृत्व दायित्व ग्रहण करने की बधाई दी एवं हाथ में पांच सौ रूपए दिए और व्यक्तिगत शुभकामनाएं दी। उसी समय ट्रेन के आगमन २१ नम्बर प्लेटफॉर्म पर सुनने को मिली। नवीन ने "विश यू गूडलक" कहकर हम सबसे विदा लिया तथा हमारी टीम उत्साह से परिपूर्ण धीरे-धीरे २१ नम्बर प्लेटफॉर्म की ओर बढ़ गई। निश्चित समय पर ट्रेन सभी यात्रियों को उनकी स्वास्थ्य एवं सुखी यात्रा की कामना करते हुए अपनी लौह पथ की लम्बाई परिमाप करते मैं चली-वो चली, देखो प्यार की गली गीत गाने लगी। ट्रेन के प्लेटफॉर्म से विदा होने के बाद यात्रियों की बैठने व लागेज व्यवस्था तथा टी टी की औपचारिकता पूरी हुई और मैं बोगी के अन्दर बायीं तरफ की सीट को ग्रहण किया। चुंकि दिसम्बर का अंतिम सप्ताह में शीत ऋतु समाप्ति की घंटी बजा रही थी जिससे सूर्य की गर्मी का अनुभव उसकी आती आलोक रश्मि दे रही थी और  मुझे अच्छा लग रहा था। मैं खिड़की के पास बैठा दौड़ती प्राकृतिक दृश्यों का अवलोकन करने लगा चारों ओर विपरीत दिशा से तीव्र गति से पेड़ों की कतार,धान के हरिणाभ विछावन और खेतों में कार्यरत कृषकों की अर्धनग्न काया जो कादा से सजा हुआ जहां कृत्रिम क्रीम पाउडर सब फेल, कुछेक नारी श्रमिकों को माथा पर दोनों हाथों  के उंगलियों को एक-दूसरे को आपस में फंसा ट्रेन को निहारते देखना, भागती-दौड़ती ट्रेन के किनारे खालों में पानी फल के पौधे हमारा स्वागत कर रही थी एवं उनके बीच नीलोत्पल पुष्प सर हिला-हिला कर कह रहे थे आगे बढ़ते रहो सागर की लहरें आपके लिए पलक-पावड़ें बिछा उसके तट पर हमारा इंतजार कर रही है। अर्थात मेरे मन की आंखों में वह दृश्य चलचित्र की भांति घुमने लगा तथा आनन्द में डूबा गोते लगा रहा था। यह अभिभूत करने वाली प्राकृतिक सौंदर्य का खजाने का शायद ही कभी अंत हो बशर्ते कि प्रकृति से प्रेम करने वाला प्रेमी रहें। कहीं-कही पर पानी फल से भरे खालों में छीप से मछलियां पकड़ने को बगुले की तरह लार टपकाता ग्रामीण तो ढलती दोपहरी को लज्जित कर रहा था। दोपहर का भोजन तो हम सबने हावड़ा जंक्शन के बड़ी घड़ी के नीचे कर ही लिया था। सरपट भागती हुई ट्रेन की गति ने मुझे नींद की आगोश में सुला दिया जबकि दल के युवा सदस्यों का हंसी-मजाक जो हावड़ा जंक्शन के बड़ी घड़ी से आरंभ हुई थी वह पता नही कभी थमा भी होगा या नही कह नही सकता। इनमें शिवेंद्र भी डूब गया था। खासकर फिल्मी गानों की अंताक्षरी ने तो सहयात्रियों को भी मनोरंजन में जोड़ लिया। शाम छः बजे सुभाष एवं शिवेन्द्र ने मुझे जगाया आंखें खोल कर देखा तो एक के हाथ में पानी से भरा बोतल और दूसरे के हाथ में चाय से भरी थर्मस तथा मेरी पत्नी को कहते सुना "उठो भी,जब देखो तब सोते ही रहते हो। बच्चें तुमसे हिमालय के अभियानों और ट्रेकिंग अनुभवों को सुनना चाहते हैं।" वाश-बेसिन पर जाकर पानी के छींटें चेहरे पर दे गरम-गरम चाय की चुस्कियां ली। संध्याकाल की समाप्ति और रात्रि का आगमन हो चुका था। बोगी की खिड़कियां प्रायः सबने बंद कर दिया था क्योंकि बाहर से ठंडी हवा कलेजे पर तीर चला रही थी लेकिन युवाओं के उत्साह में कोई कमी नही थी। मेरी आंखें रह-रहकर बंद खिड़की से बाहर झांकने का प्रयास कर रही थी जहां मात्र रेल ट्रेकों का आपस में टकराने के सिवा कुछ भी नही दिखाई दे रहा था। अंधेरे के चादर में लिपटा पेड़-पौधों की छाया भर दिखी जो एक भयावह दृश्य उत्पन्न करती सी लग रही थी और कान में ट्रेन के चक्कों का पटरियों के साथ घर्षण चूं-उ-चों-चा खट-खट सुनाई दे रही थी। देखते-देखते रात्रि ९.३०बजे भुवनेश्वर के प्लेटफॉर्म पर हमारी लौहवाहिका हम लोगों को शुभरात्रि कह कर स्वयं आगे बढ़ गई जहां एक नई विभिषिका अपनी जीह्वा लपलपा रही थी।

           बिभिषिका की रात

भुवनेश्वर स्टेशन के डरमेटरी रूम की व्यवस्था में कमल एवं शिवेन्द्र निकल गया तथा बाकी सब को लेकर सुभाष एक नम्बर प्लेटफॉर्म पर आया। वहां हमें पता चला कि रात गुजारने की सारी सुविधाएं नदारद है। कोरोना पैण्डेमिक से बचाने हेतु रेलवे प्रशासन कोई भी रिस्क नही लेना चाहती है। अतः एक भी यात्री को स्टेशन परिसर में रेलवे पुलिस रहने नही देगी। सबको बाहर निकाल देंगे। उसी यात्री को स्टेशन परिसर में रहने दिया जाएगा जिनकी ट्रेन आने/जाने में दो घंटे का समय है। रात्री होने के कारण पुरे परिसर में महिला रेलवे पुलिस बल की तैनाती देखने को मिली। कमल और शिवेंद्र वापस आ गए तथा बताया कि डोरमेट्री रूम के दरवाजे पर बड़ा सा ताला लटका हुआ है और एक सूचना "कोविड-19 संक्रमण से यात्रियों को सुरक्षित रखने के लिए डोरमेट्री रूम की परिसेवा बंद है।" कोरोना के नियमों का पालन करने में सहयोग करें। फिर कमल के साथ तीन-चार लड़के बाहर होटल की खोज करने गए। बाकी सभी वेटिंग रूम में रेस्ट करने हेतु आसन ग्रहण किया। पीठ से रूकसैक उतार कर एक बड़ा सा पालिथीन सीट फर्श पर बिछाकर शरीर को बोझ मुक्त किया गया और बाथरूम जाकर फ्रेश हो लिए। सबको वहां बिठा मैं सुभाष के साथ किसी विकल्प की खोज में निकला ताकि यदि स्टेशन से बाहर निकाल दिया गया तो लड़कियों को लेकर सुरक्षित आश्रय की व्यवस्था हो सके। परन्तु निराशा हाथ लगी। एक महिला कांस्टेबल से बातचीत किया और इन लड़कियों के लिए आश्रय सहायता मांगी। पहले तो उसने असमर्थता प्रकट की फिर शायद मेरी परेशानी को देख उसका मन नरम हो गया और बोली - "ठीक है अंकल,आप इन्हें यही गेट से बाहर निकट में बिठा दो। मैं यही रहूंगी और लड़कों को लेकर आप थोड़ी दूर रहेंगे। बड़े साहब के राउंड हो जाने पर चले आना।" मैं आश्वस्त हुआ और वेटिंग रूम में वापसी किया। अब तक कमल भी वापस आ गया तथा उसने बताया जो मैं उसके निराश चेहरे को देखकर समझ गया। शिवेंद्र ने कहा "सर आप चिंता मत करो, देखते-देखते रात के पांच घंटे कट जाएंगे और यहां के रेलवे स्टेशन पर हमारी ट्रेन तीन बजे प्लेटफॉर्म पर आ लगेगी तथा साढ़े तीन बजे ट्रेन में सवार हो दो घंटे आराम से सो लेंगे,सारी थकावट छू-मंतर" कहते-कहते आंख एवं शरीर को एक ऐसे अंदाज में मरोड़ा जिसे देख सभी हंसने लगे। सभी लड़कियां घर से बाहर एक अपरिचित स्थान पर जागकर समय कटाएगी की कल्पना मात्र से रोमांचित थी व आपस में एक-दूसरे को अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान करने लगी। कितना मजा आएगा! जीवन में पहली बार ऐसा एन्जॉय करने को मिलेगा। धीरे-धीरे घड़ी का कांटा आगे बढ़ता जा रहा था। कमल और शिवेंद्र आठ जन को लेकर डिनर के लिए चला गया। इसके बाद हम सबका एक-एक करके आते-जाते डिनर की समाप्ति जहां अंतिम बारी मेरी ही थी। सुभाष मेरे साथ ही था। प्लेटफॉर्म के गेट से बाहर निकलते ही जिस दृश्य को देखा यदि यहां वर्णन न करूं तो मेरे लिए सच्चाई के साथ बेईमानी कहलाएगी। मौसम तो शीतकालीन हैं ही उपर से कोरोना जबरदस्ती लोगों से इश्क करने को बेताब हो और रेलवे एवं स्थानीय प्रशासन की कठोरता आपकी श्वसन क्रिया के उपर आघात कर रही हो तो स्वाभाविक है कि मेरी मुहब्बत जवां रहने के बजाय हमने जफा न सिखी उनको वफ़ा न आई गाते हुए नजर आएंगे। हां तो पुरा परिसर में लोगों के असहाय चेहरे, असहाय आंखें तथा रात की असुरक्षा में कष्टों को बयां करती काया को देखकर लगा यहां जिस फैले सैलाब को देख रहा हूं वह मानव का है या किसी अन्य ग्रह का जीव ! इनके बीच खाकी वर्दी पहने जवानों के रंग जमाता भाव-भंगिमा अद्भुत संकेत प्रकट कर रहा था। केवल अहंकार और मजाक की झलक जो कह रहा था कि शक्ति - धारियों के आगे आप विवश हो अर्थात वे आपकी नही आप उनकी सुनो। इनमें तो पुरुष पुलिस तो विरोध करने पर लाठीचार्ज को उद्धत दिखता है परन्तु महिला पुलिस तो फटाफट बड़ी-बड़ी बूंदें बरसा दे रही है तथा स्वयं एक नारी होकर वहां ठंडी रात एवं कोरोना के दहशत तथा पुरुषों की घुरती नजरों से घबड़ाई महिला यात्री आश्रितों के नितम्बों पर धड़ाधड़ और गर्व का परिचय स्साली,छिनार जैसे शब्दों से दे रही थी। उस समय मुझे लगा कि साहित्य- कारों की कलम क्या इसी को नारी सशक्तिकरण कहना चाहतें हैं। स्टेशन परिसर से बाहर निकल आया तो वैद्युतिन प्रकाश से सजा भुवनेश्वर स्टेशन का भव्य रुप देख अभिभूत हो गया। इतना सुन्दर की यदि शब्दों में सजा दूं तो शायद धनी व्यक्ति की धनहीनता बन जाएगी। सड़कें तो वैद्युतिन प्रकाश में नहाई, पार्किंग की गई गाड़ियों की कतारें,लकडाउन के कारण ज्यादातर दुकानें बंद, दौड़ते-भागते अवारे कुत्तों की जमात जिनके भौंकने की आवाज जैसे कह रही हो जागते रहो कोरोना सुन्दरी आपके इंतजार में पलक-पांवड़े बिछाए बैठी है। अब हम डिनर होटल के निकट मुख्य सड़क पर आ चुके और चौराहे पर जैसे ही सिग्नल हरी हुई की रुकी हुई गाड़ियां हेडलाईट जला रेंगने लगी जो भुवनेश्वर स्टेशन की सुन्दरता में चार चांद लगा दिया और इसका मैंने वी डी ओ रिकार्डिंग मोबाइल के बंदिशाला में बंद कर दिया। डिनर के पश्चात वेटिंग रूम में वापसी हुई और मैं भी औरों की तरह दल के सदस्यों द्वारा बिछाई गई सीट पर बैठ गया। रूम के अंदर नजरें दौड़ाई, अब तक स्टेशन पर बाहर जो दृश्य देखा था उसमें एवं इसमें कोई अन्तर नही दिखा। पर मेरी आंखों से नींद कोसों दूर थी क्योंकि पता नही रेलवे पुलिस कब लाठियां भांजना शुरू कर दें। ग्यारह बज चुके थे कि अचानक वेटिंग रूम में आंधी आ गई। लोग-बाग पोटला-पोटली उठाए भागने लगे। किसी को न कपड़ों की सुध थी और न तन की। खाकीधारी कंधे पर स्टार रात में  चंद्रमा को मलिन करने वाले व्यक्ति के हाथ में माइक तथा कोरोना प्रोटैक्टर मास्क नाक व मुंह को छोड़कर ठोढ़ी पर चस्पा और उसके माइक पर गुंजने लगी "कोविड-19 से सबकी जीवन रक्षा करने के लिए स्टेशन परिसर त्याग करने का अनुरोध किया जा रहा है। आपसी दूरियां बनाएं रखें तथा स्वस्थ रहें। अनुरोध न मानने पर सख्त कानूनी कार्रवाई की जाएगी।" अभी घोषणा समाप्त भी नही हुई थी और कारवाई शुरू ले दनादन- दे देनादन साथ में पुलिसिया संस्कृत भाषा के श्लोक सुनाई पड़ने लगी। कुछ ही पल में प्लेटफॉर्म जनशुन्य केवल इलेक्ट्रिक भेपरों की प्रकाश में टहलते पुलिस के जवान एकदम कलिंग युद्ध के उपरांत विश्व के एकमात्र महान सम्राट अशोक की तरह मार्चिंग करते दिखे। एकदम अकेला और सोच रहा है कि क्या उसने युद्ध जीत लिया। उसके आदेश, अहंकार को स्वीकार करने वाला कोई जीवित ही नही बचा, किस पर शासन करेगा! हमें आश्वासन देने वाली महिला कांस्टेबल कही नज़र नही आई। आखिरकार शिवेंद्र-कमल ने एक खाली स्थान देखकर पालिथीन सीट बिछा सबको बैठने की व्यवस्था की। बैठे-बैठे सभी नींद की आगोश में बस मैं, शिवेंद्र, तथा कमल जाग रहे थे। बैठे-बैठे शरीर में आलस्य और नींद के बोझ से दबी हुई पलकें कहर बरसा रही थी। परिणती मैं फिर परिसर से बाहर निकल आया और टहलने लगा। ठंड एवं पुलिसिया डंडा से मार खाया मानवाकृति देख लगा कि श्मशान घाट पर किसी चिता के जलने का इंतजार कर रहे हैं, जैसे ही शव जला कि लोग राख को नदी में बहाएंगे तथा घर भागो नही तो मरे हुए का भूत दौड़ाना शुरू कर देगा। बाहर नशे में चूर अपराधियों की लोलुपता भरे नयनों से घूर रहें हैं पर खाकी वर्दी वाले कबाब में हड्डी बने हुए थे। मानना ही पड़ेगा कि पुलिस को पता है कि कौन-कौन अपराधी हैं तथा कौन साधू है। देखते-देखते रात ने हमें दो-दो बार बार चाय पिला दिया। घुम फिर कर जब वापस आया तो देखा कि एक नम्बर प्लेटफॉर्म पर कोई ट्रेन खड़ी थी। एक खाकी वर्दी धारी से पुछने पर जाना यह ट्रेन ही हम सबको छतरपुर ले जाएगी। रेलवे की इलेक्ट्रॉनिक्स डिजिटल घड़ी ने हमें अभी भी धैर्य रखने को कहा क्योंकि जब तक रेलवे आथरिटी घोषणा जब तक नही करेगी "यात्रीगण ध्यान दें भुवनेश्वर से छतरपुर जाने वाली ट्रेन प्लेटफार्म पर आपको आमंत्रित कर रही है" तब तक खाकी डंडा मुहब्बत करने के लिए अनारकली के पास जहांगिरों को जाने नही देंगे।

             २५ दिसम्बर यात्रा शुरू

खैर हम सभी ट्रेन के घुप्प अंधेरे से डूबे एक बोगी में जाकर अपना स्थान ग्रहण किया और प्रायः सभी लेट गये पर शिवेंद्र, कमल व मैं जाग रहे थे। ट्रेन प्लेटफार्म को थप्पड़ शायद दो घंटे बाद मारेगी सो जाग रहे लड़कों ने कहा "सर, आप तो रात भर जगे रह गए।"

"हां।" मैंने कहा, कभी-कभी ऐसा होता है।

"तो ठीक है गर्म-गर्म काफी पीजिए।" ‌ शिवेंद्र आग्रह किया एवं अपनी बड़ी-बड़ी आंखें गोल की।

"अच्छा बेटा, मेरी ही बन्दूक और मुझे ही निशाना बनाया। यह सुनकर कमल मुस्काया। कमल बोगी से उतरकर काफी की व्यवस्था करने चला गया। शिवेंद्र ने मुझसे कहा

" आप चिंता मत करो। आप ही तो कहा करते हैं कि यदि मन में निगेटिव विचार उभरने लगे तो संग ही संग ध्यान को दूसरी ओर केन्द्रित कर दो पर धैर्य बनाए रखो" सो मैं आपको चिंतित नही देखना चाहता। कमल तीन काफी की व्यवस्था करके आ गया। पुरी काया भारी,मन भारी।बिती हुई रात का दृश्य पुनः एक बार फिर आंखों में उभरती है तथा अदृश्य भी हो गई। चलो हम तीनों काफी से गले को खुश कर दिया। अचानक ट्रेन में एक हल्की सी कंपनी हुई और भुवनेश्वर स्टेशन ने कहा कि ओ के सर, एक सप्ताह बाद में आप सभी से भेंट होगी। तब तक के लिए हैप्पी विश यू गूडलक। लगभग साढ़े आठ बजे छतरपुर स्टेशन पहुंच गए एवं दो आटो की व्यवस्था की गई जिसमें टीम के लिए राशन खरीदारी की बात कर ली गई क्योंकि इसमें समय लगेगा। कही ऐसा न हो कि आटो वाले बीच रास्ते में ही उतार दे और एक नई विभिषिका सामने दांत चियारने लगे। स्टेशन से गहिरमाथा वाइल्डलाइफ बर्ड सैंक्चुअरी की ओर आटो अग्रसर हो गई। शुरुआती पतली संकरी बाजार के बीच से सड़क पर आटो थी क्रमश: आगे बढ़ते-बढ़ते सड़क चौड़ी हो गई तथा दोनों किनारे साफ-सफाई देख यहां के स्थानीय प्रशासन की प्रशंसा करनी पड़ी। यह क्षेत्र उड़िसा राज्य के गंजाम जिले में है। नाम का पहला अक्षर "गं" अर्थात गंदा एवं दूसरा शब्द "जाम" अर्थात भीड़,समझ ही रहें होंगे। पर जो देखा वह विपरीत मिला। रास्ता साफ-सुथरा और कोलाहलहीन। कहने का मतलब गंजाम जिले की स्वच्छता देख गुणगान तो बनता ही है। आटो चालक भी सहयोगी मनोभावों से संपन्न व्यक्ति था। वह हमें मेनरोड पर ले आया और टीम के लिए किरासन से लेकर राशन खरीदारी हो गई एवं वहां से गहिरमाथा वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी की ओर आटो भागने लगी। बीच रास्ते में ही गंजाम डी एम बंगला मिला जहां से सी बीच तक पहुंचने का मार्ग जाता था जो दांयी तरफ मुड़ेगी। मोड़ पर किसी आवश्यक कार्य से आटो चालक ने आटो को खड़ा कर दिया। अचानक मेरी नजर बायीं तरफ एक सुन्दर पार्क की तरफ पड़ी और मैं अपनी मोबाइल का कैमरा आन किया तथा फटाफट चार-पांच शाट लिए। अब पुनः आटो सी बीच की दिशा में भागने लगी। चुंकि काफी देर हो चुकी थी इसलिए टीम लीडर कमल गहिरमाथा वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी घुमने के योजना को त्याग दिया और सीधे समुद्र तट, यही से हमारी कोस्टल ट्रेकिंग का शुभारंभ होना था। अन्ततः हम सी बीच आ पहुंचे। सभी यंग सदस्यों की उम्र कम थी २० से भी कम थी एवं अनुभवहीन। केवल मैं, क्लब भाइसप्रेसिडेन्ट, शिवेंद्र और सुभाष को छोड़ कर इससे पूर्व किसी ने भी कोस्टल ट्रेकिंग में हिस्सा नही लिया था। फलत: गत रात की बीभिषिका का कोई चिह्न उनके चेहरे पर न थी। समुद्र को देख कर ही आनन्द से शोर सराबोर सेल्फी लेने के सागर में गोते लगाने लगे। समय पौने दस बजने को थी और अब तक हमने ब्रेक फास्ट भी नही लिया था सो इंजन में ईंधन कुछ देना होगा। कमल और शिवेंद्र ब्रेक फास्ट की व्यवस्था में निकल गया। आज शायद बंगाल की खाड़ी कहें या बंगोपसागर हम सबों का एडमिशन टेस्ट लेने का प्रण कर चुका था। कमल और शिवेंद्र दोनों वापस लौट आए पर ब्रेक फास्ट का परिमाण सबके लिए पर्याप्त नही था जो हम चारों सिनियरों को त्याग करना पड़ा। हमारी ट्रेकिंग शुभारंभ बिना किसी ओपनिंग सेरेमनी के ही पूरणबर्धन सी बीच से हो गई,समय दस बज कर २४ मिनट। कम से कम दो घंटे चलने के बाद जहां पहुंचेंगे वह स्थल पोदम्पेटा सी बीच है वही पर लंच की व्यवस्था होगी। हमारे दाहिने ओर नील जलधी की उठती-गिरती तथा आती-जाती लहरों की सप्तलहरी सुनाई दे रही थी। किसी ने ठीक ही कहा है अत्यधिक जोश में लोग होश गंवा बैठते हैं। कुछ ऐसा ही हमारे यंग सदस्यों का हुआ। ये लोग अधिक उत्साह में चलना शुरू कर दिये और मुझसे उनकी दूरियां बढ़ गई पर यह भूल गए कि इंजन को सुचारु ढंग से चलाने के लिए ईंधन की आवश्यकता पड़ती है। मैं सबसे पीछे पड़ गया क्योंकि टीम के लिए राशन जो खरीदी गई, वह बस्ता नुमा थैला मुझे ढोना पड़ गया। मेरे लिए बड़ी पीड़ा दायक रही। एक तो रेतीली समुद्री तट तथा दूसरी तरफ बलुई तट का ढलान बांये से दायें अर्थात जब आप चलेंगे तो आपको अपने शरीर का वजन लगभग एक पैर पर ज्यादा ही रहेगा। इससे जितनी सहजता के साथ समभूमि पर चलते है उतना समुद्र तट पर नही चल पाओगे। पुरा का पुरा बीच सूखे बालू एवं भींगे रेत द्वारा निर्मित है। भींगा तट आपकी चलने की गति को ब्रेक लगा दिया करेगा परन्तु सूखा रेत गति एवं वेग पर अंकुश लगा देगी। चलते समय सर के ऊपर नील गगन में उड़ते सी-ईगल के दल को देखोगे तो कहोगे कि हां हमने भी कुछ देखा है। खैर राशनवाली थैली को इस हाथ-उस हाथ करते हुए मैं आगे बढ़ा जा रहा था। आधा घंटा भी नही हुआ कि करीब तीन-चार सौ मीटर की दूरी पर सभी तक पर बैठे दिखाई दिए। सामने से शिवेंद्र, सुभाष एवं कमल दौड़ते हुए आते दिखे और निकट पहुंच कर मुझसे क्षमा मांगी और कहा-'हमलोगों को ख्याल ही नही रहा कि हमारे साथ राशन का थैला नही है। अतः मैडम को बाकी का ख्याल रखने को कह वापस दौड़ लगाई।

" डोन्ट वरी,आएम द ओल्डेस्ट। सो ईट्स माय ड्यूटी एण्ड आय डन इट ब्वायज। लेट्स कैरी आन"

सुभाष मेरा सैक लिया तथा शिवेन्द्र और कमल राशन का थैला। मुझे थोड़ा आराम मिला। मेरे चलने की गति में बढ़ोतरी तो अवश्य हुई पर उतना नही जितना होना चाहिए। जब मैं दल के बीच पहुंचा तो सबने मुझसे 'सारी सर' कहा। बच्चों के इस व्यवहार ने गत रात की क्रुरता को छू-मंतर कर दिया एवं नव शक्ति से परिपूर्ण हो गया। 

वैसे आज २५ दिसम्बर है। पहाड़-पर्वत, मैदान, समभूमि, जंगल, पार्क, झील, गार्डेन, समुद्र या नदी तट हो सभी स्थानों पर पिकनिक की बहार छायी है। मस्ती के साम्राज्य की प्रतिष्ठा कर डी जे बजाई जा रही है हिंग्लिश गाने तथा लोकगीतों को अश्लील एवं फ़ूहड़ बना पाश्चात्य वाद्ययंत्रों के कानफाड़ू धुन पर बोतलें खाली कर हाथ-पैर और कमर सीने को झटका दे रहे हैं युवाओं (युवक-युवतियों) का दल भारतीय संस्कृति को चिढ़ा रहें हैं। इन्हें ऐसा करते देख भगवान भोलेनाथ शायद तांडव नृत्य को भूल गए हैं तथा हिमालय को छोड़कर पलायन कर चुके हैं। धन्य हैं हमारे देश के युवा वर्ग जिन्हें अपनी संस्कृति का न कोई आकर्षण है और ना ही ज्ञान। ये लोग पाठ्यक्रम में एनभायरमेंट साइंस पढ़कर पर्यावरण संरक्षण का केवल शोर मचाते हैं क्योंकि इन्हें केवल डीग्री मिल जाए जो इनको नौकरी दिलाने में सहायक सिद्ध होगा। आधुनिक भारतीय युवाओं के लिए ऐन्द्रिक सूख की प्राप्ति  ज्यादा महत्वपूर्ण है। ऐसे में हम ट्रेकरों के बारे में कौन सोचता है। हम चल रहें हैं तो चल रहें हैं। धूप की तपीश सर को छूते हुए दाहिने चली गई है पसीने की बूंदें हमारे भाल से चूकर नेत्र के भीतर प्रवेश करने लगी। उन स्वखरित बूंदों को पोंछते बटेश्वर मन्दिर के पास वाली तट पर पहुुंचे। यहां हमारा स्वागत पिकनिक मनाते नशे में चूर लड़के लड़कियों की फटी-फटी आंखों ने किया। शिवेंद्र और कमल ने थोड़ा छायादार स्थान का चुनाव किया और दल की माताजी अर्थात मैडम रीना जी लंच की तैयारी में व्यस्त हो गई। उनको सहयोग देने वाले सदस्यों की संख्या एक-दो जन। समझ ही रहें होंगे शिवेंद्र, सुभाष एवं कमल। बाकी के लड़के-लड़कियां खाना सिखें हैं पर पकाना नहीं। ये सभी भविष्य में पर्वतारोहण करेंगे पर सेल्फ कूकिंग नही करना चाहते हैं तो इनका पर्वताभियान कभी सफल नहीं होगा। अब जो भी हो लंच सम्पन्न होते-होते तीन बजे चुके हैं। खिचड़ी खाकर शरीर में आलस्य ने अपना घर बना लिया। अतः आज की अंतिम मंजिल आलेश्वर सी बीच की ओर रवानगी। ट्रेकिंग पथ के मुख मण्डल पर कोई नयापन नही है केवल बालू और बालू ही दिख रहा था। हां अंतर मिला सुबह सागर की लहरों में भाटा, बालू के कण भिंगकर सख्त एवं चलने में आराम परंतु इस समय ज्वार समुद्र की लहरों ने सुखे बालूकामय ट्रेक पर चलने को बाध्य‍ कर दिया। प्रति आधे घंटे बाद पांच मिनट का विश्राम। सबका प्रयास था जितनी जल्द से जल्द सूर्यास्त से पूर्व आलेश्वर पहुंच जायें। लेकिन समुद्र तट पर लहरों का उठना-गिरना जारी है तथा हमलोग धीरे-धीरे करके बायीं ओर दबते जा रहे हैं। इसके अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है एवं इसी में हम सभी सुरक्षित हैं। मैं सागर के सिने पर क्षितिज का नीलिमा को क्रमशः लोहीत होते रुप का अवलोकन कर रहा था। कितना अद्भुत दृश्य मुझे दिख रहा  था इसका वर्णन वही लोग करेंगे जिनके पास मेरे समान भावना होगी। सबसे आश्चर्यजनक घटना थी सूर्यास्त की लालिमा युक्त गगन में अग्नि पिण्ड सागर के वक्षस्थल में न डूबकर बल्कि समुद्री तट पर पतित हो रहा था वह भी मेरे पीठ पीछे! मेरे लिए अवाक हो जाना ही स्वाभाविक था क्योंकि जब चलना प्रारम्भ किया महाशय भास्कर को बायें से दायें जाते देखा तब तो सूर्यास्त सागर के क्षितिज में होने चाहिए। इस अपरिसीम दृश्य के साथ सभी सदस्यों में सेल्फी लेने की होड़ मची थी। आखिरकार हमारा अंतिम पड़ाव आलेश्वर आ गया। सूर्यास्त हो चुका था एवं शाम साढ़े छः बज चुके थे। बस पीठ से रूकसैक उतारने भर की देर थी। शिवेंद्र,कमल, सुभाष एवं मैडम रिनाजी को छोड़कर बाकी के यंग सदस्यों का अता-पता नही जबकि टैंट पीचिंग ऐसा कार्य अति आवश्यक थी‌। एक पल रुकें शिप्रा नामक एक सदस्य बैठी हुई थी पर शिवेंद्र ने उसे टैंट पीचिंग में हेल्प करने के स्थान पर बैठे रहने के लिए कहा। और जैसे ही टैंट पीचिंग हो गई बाकी सदस्यों का हंसता-खिलखिलाता आगमन हुआ। मैंने उन्हें थोड़ी सी डांट लगाई-"आप लोगों को टैंट पीचिंग नही सिखना है, यह कार्य सबके सहयोग से होना चाहिए था लेकिन आपलोग आहिस्ता से खिसक लिये शर्म आनी चाहिए। मैडम जी को क्या पड़ी थी दोपहर सबके लिए लंच तैयार करने की।" सभी सर झुकाए हुए बोले-"सारी सर"और टैंटों के अन्दर घुस गए। कहावत है न एक ही परिश्रम करता है और बाकी मजे लूटते हैं। जब भी भोजन की व्यवस्था होनी है तो मां ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है यानी कि मैडम जी अपने कार्य में लग चुकी है एवं उनके सहयोगी वही तीन लड़के तथा मेरी डांट खाकर तेजु आ गई। सबसे पहले इवनिंग रीफ्रेशमेंट तैयार हुई। मैंने गर्मागर्म चाय ली एवं टैंट से बाहर निकल आया तो देखा कि चारों ओर अंधेरे का साम्राज्य स्थापित हो चुका है और तट से काफी दूरी पर लहरों की गर्जनों के बीच दीपमालाएं बड़ी सुन्दर दिख रही थी। सारा आकाश रत्नखचित वेश में शायद मुझसे बातें करना चाहती हो। पर यह तो संभव न था फिर भी मेरी भावनाएं व्योम से जा मिली वह एक-दूसरे का कुशल-क्षेम जाना।

            -------- २६ दिसम्बर-------

आज सबने जानबूझकर सोकर उठने में देर कर दिया। मेरे सहित शिवेंद्र,कमल, सुभाष, मैडम जी चाय की चुस्कियां ली तथा बाकी के तैयार एवं ब्रेक फास्ट लेने का इन्तजार करते-करते आठ बज गए। आखिर लड़कियों में से एक प्रिति ने मैडम को रिपोर्ट किया कि प्रायः सबका पेट दर्द है। अतः अभी वे ब्रेकफास्ट नही लेगी। अतः शिवेंद्र और कमल ने मुझसे परामर्श कर साढ़े आठ बजे ट्रेकिंग की शुरुआत किया। चलो एक अच्छी बात यह रही कि टीम के आवश्यक सामग्री को सबके बीच बांट दिया गया। फिर भी राशन की थैली एवं पानी का जाल ढोने से सभी कतरा रहे थे। बस यही लीडर को बलि का बकरा बन जाना पड़ता है। प्रातः काल का समुद्री तट चलने लायक थी क्योंकि अभी सागर में भाटा की लहरें थीं। दूध के फेनिल झाग वाली लहरें किनारे पर सर पटक-पटक कह रही है समय का सदुपयोग करो। अपनी गति में तेजी लाओ। दोपहर के बाद मेरी बारी आएगी और मैं अपने साम्राज्य का विस्तार करूंगी। फिर कोई शिकवा शिकायत न करना। दाहिने सागर की युद्धं देही निनाद तथा बायें बड़े बड़े कछुओं का मृत शरीर यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं जिनसे निकलने वाली दूर्गंध हमारे नथुनों में समा जा रही है और उबकाई आ जाया करती है। गंजाम समुद्री तट कछुओं का प्रजनन क्षेत्र है। काफी दूर दूर से विश्व के विभिन्न हिस्सों से लम्बी दूरी तय करके आते हैं अधिकतरों की घर वापसी नही हो पाती है क्योंकि उनका मृत शरीर का डीकम्पोजिंग यही हो जाती है। लगभग दो घंटे की ट्रेकिंग के पश्चात हमलोग पहुंचे लाइट हाउस तथा ठंडी हो गई उपमा को ब्रेक फास्ट के रूप में ग्रहण करना पड़ा और लड़कियों की आपसी ईर्ष्या व जलन की अग्नि धधकना आरंभ हो गया और रिपोर्ट मैडम जी के पास नमक-मिर्च लगाकर पेश की गई और मुझ तक पहुंच गई। मैं ऐसी घटनाओं को जवानी की जैविक क्रिया मानकर वेपरवाह था इससे मैडमजी मुझ पर कुपित हो ३६ का पहाड़ा पढ़ने लगी और उन्होंने इसे अपना अपमान समझी तथा दल से अलग हो कर सबसे आगे चलने लगी। वैसे भी मैं सबसे पीछे ही चल रहा था ताकि सबको ताड़ा दिया जा सके। वैसे तो ये जो तरुण थे आपस में एक-दूसरे को भैया-बहना कहकर ही सम्बोधित कर रहे थे पर वास्तविकता क्या थी वही लोग जाने और मैं ऐसी बातें सोचकर अशांत होना पसन्द नही करता हूं क्योंकि यह उम्र एवं समानता का विषय है। मुख्य विषय यह थी कि एक म्यान में दो तलवार असंभव है, दूसरी बात यह थी कि दल का एक सदस्य अन्य युवती सदस्य को लोड फेरी करने से बचाना चाहता था। इसी पर बाकी लड़कियां जल-भुन गई थी। सी बीच का बायां किनारा पाम, झाउ तथा काठबादाम, काजू बादाम एवं नागफनि तथा रेंगनी आदि वृक्षों और झाड़ियों से सुसज्जित है। एक और उद्भिज्ज जो अनारस के पौधे के समान दिखता है परन्तु उसे मैं नहीं पहचानता था। सी ईगल पक्षियों का नीले गगन के तले वृत्ताकार पंख फैलाए उड़ने की छवि को मोबाइल कैमरे में कैद करने के लिए दौड़ लगा रहा था परन्तु बार-बार असफलता हाथ लग रही थी। जैसे जैसे हम आगे बढ़ते जा रहे हैं किनारों पर मछली पकड़ने वाली नौकाओं को लगभग दस-दस की संख्या लंगर डाले देखा। आजू-बाजू छप्पर मछलियों का ढेर जिसमें से बड़ी-छोटी को अलग करते हुए नारियों, बच्चियों एवं बालकों को संलग्न देखा। जब हम उनके निकट पहुंचते तो उनकी कौतूहल दृष्टि हमें टकटकी लगाए देख रही थी खासकर हमारे युवा सदस्यों (लड़की)को। हमारे ट्रेकिंग दल के सदस्यगण उन्हें टाफियां बांटते हुए आगे बढ़ रहे थे। उस समय मत्स्य उद्योग के श्रमिकों के चेहरे पर जो मुस्कुराहट देखी सच कहता हूं मुस्कुराहटें अनमोल थी। और अब हम उदयगिरि सी बीच पर थे। यही हमारे लंच की व्यवस्था करनी थी। लंच के बाद पुनः ट्रेकिंग की शुरुआत। गतकाल की तुलना में आज गति में तीव्रता थी और थकावट से बचने के लिए फिल्मी गीतों की अंताक्षरी के बीच हंसी-मजाक भी चल रही थी। परंतु मेरे कदमों में कोई तीव्रता न थी। अपने अंदर प्रकृति को अनुभव कर रहा था जिसमें मूल उपादान सागर की लहरें, मछुआरों का अदम्य इच्छाशक्ति-साहस,बालू के भींग-सूखे कणों से निर्मित तट एवं मरे हुए कछुओं की संख्या सोचने को विवश कर रही थी आखिर इनकी मृत्यु कैसे हुई। यदि ये कछुए दूर-दूर से ब्रीडिंग के लिए आए तो इनकी मृत्यु कैसे हुई। इन्ही प्रश्नों का उत्तर जानने में आज के इंटरनेट लड़के-लड़कियों को ढूंढने में सहायता ली पर किसी ने भी सटीक कुछ नहीं बताया बल्कि अपनी-अपनी डफली और अपनी-अपनी राग अलापा। शाम छः बजे हम बना सी बीच पर पहुंच ही गए तथा रात यही कटेगी। इस दो-दिन में हमलोग औसतन चालिस कि.मी. की दूरी तय चुके हैं। 

 


       २७ दिसम्बर 'हम सब भारतीय हैं':-

-----------------------------------------

आज फिर एक बार हमारी ट्रेकिंग की शुरुआत विलंब से ही हुई। सुबह 9.15 बजे से। आज देखा जा रहा है प्रायः सभी सदस्य एक तरह से अस्वस्थ हैं कारण समुद्र तट पर चलना तथा भोजन एवं नाश्ते का टांग टूट जाना। लंच में भी खिचड़ी तो डिनर में भी खिचड़ी तथा अधिक नमक का व्यवहार हो जाना उपर से निवाले में लगता था जैसे बालू के कण भरे हों और दांतों के बीच पड़ने पर किर-किर करना, शाम को चाय परिमाण में अधिक पी लेना आदि। दवा खा-खाकर ट्रेक तो कर रहें हैं सभी पर वह उत्साह नहीं दिख रहा है जो प्रथम दिन था। उपर से एक लड़की के प्रति ज्यादा ही सदयता ने प्राय: अन्य सभी को खिन्न कर दिया था। उसका रूकसैक तथा पानी का जार कथित भैया के द्वारा ढोना, अन्य लड़कियों को अवहेलित दृष्टि से देखना इत्यादि। यहां तक कि कथित बहन का व्यवहार भी ऐसा था जो बहन कम प्रेमिका ज्यादा लगती थी। खैर मुझे इन बातों में कोई दिलचस्पी नहीं थी और ना ही मैं ऐसा कुछ सोचा। इन्हीं सब खट्टी-मीठी छोटी घटनाओं के साथ-साथ कोस्टल ट्रेक आगे बढ़ती जा रही थी। दोपहर हो चली और हमारी टीम क्रेब आईलैंड बीच पहुंच गई और लंच की व्यवस्था होनी चाहिए। परन्तु पानी का जार खाली। आखिर वहां पन्द्रह से बीस के लगभग मछली पकड़ने वाली नौकाओं ने लंगर डाल रखा था। अतः मत्स्य शिकारियों से पानी के बारे में शिवेन्द्र-कमल ने बातचीत किया तो उनका मुखिया सुरेश नायक नाम का तीस वर्षीय युवक था जो सहयोगभावापन्न निकला, फौरन ही उसने २५लिटर पानी से भरा हुआ जार दे दिया तथा अन्य किसी भी प्रकार की आवश्यकता की पूर्ति हेतु अपनी इच्छा प्रकट की। शिवेंद्र ने उसे मेरे बारे में बताया तो उसने मेरे प्रति श्रद्धा दिखाई। मेरे पास बैठ गया और ढेर सारी जिज्ञासा रखी चुंकि वह उड़िया भाषी था और मैं बंगला भाषी इसलिए थोड़ी सी परेशानी हो रही थी पर उसके दल के एक लड़के ने कहा कि "सर आप हिंदी में बोलो। हम सभी तेलगु भाषी हैं पर हम हिन्दी अच्छी तरह से समझते हैं एवं बोल सकते हैं।" मेरे आश्चर्य का ठिकाना नही रहा क्योंकि मैं तो यही सुनता आ रहा हूं कि अपने दक्षिण भारतीय स्वजन हिंदी से नफरत करते हैं। फिर भी मैंने उनसे कहा कि आपलोग तो हिन्दी को भाषा मानते ही नही हैं। तपाक से उसने जवाब दिया "आप लोग ऐसे पढ़े-लिखे लोग और देश के नेताओं के लिए भाषा है एक ऐसा अस्त्र जो उसको वोट में गद्दी दिलाता है। भले देश की एकता-अखण्डता नष्ट हो जाय। यहां इन सबको टुटी-फुटी हिन्दी आती है। जबकि इनमें से कोई भी पढ़ना-लिखना नहीं जानता है। तभी उनके बीच एक मांझी जो हम उम्र होगा- सर जी जिसको हिन्दी नही आता है वह भारत वासी हो ही नही सकता है। फिर उसने मुझसे पूछा कि "इनके बीच मेरा बेटा या बेटी कौन है। तब मैंने मुस्कुरा कर कहा इन सबको आप देख रहे हो ना, सभी मेरे ही तो बच्चे हैं। अभी मैं अपनी बात पूरी कर भी नहीं पाया था और शिवेंद्र दौड़ कर मेरी श्रीमती ३६ को पकड़ कर ले आया और जोकर की भांति आंखों को बंद कर बड़े प्यार से कहा यह रही हम सबकी माता श्री। इसपर उन मछुआरों के साथ-साथ हमारे टीम में जितने सारे सदस्य थे हा-हा कर हंसने लगे। मछुआरों का मुखिया सुरेश नायक ने बड़ी ही श्रद्धा के साथ श्रीमती जी का चरणस्पर्श किया तथा बोला सर जी अब तक तो हमारे घरों में बच्चे किताबें पढ़ते समय कहते हैं कि हम सभी भारत माता के संतान हैं पर आज साक्षात भारत माता सामने मिल गई। मेरा हृदय गर्व से पुलकित हो गया। इतनी छोटी सी बात अशिक्षित मछुआरे समझते हैं कि भारतवर्ष को हिन्दी के ऐक्य सुत्र में बांध कर अखण्डित रखा जा सकता है परन्तु हमारे देश के राजनीतिक नेतागण क्यों नहीं समझते हैं। जैसे ही मतदान निकट आ गई लगे प्रचार करने लगते हैं हमारे राज्य में हिन्दी को जबरदस्ती थोपी जा रही है जिसे हम कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे। हमारी भाषा हमारी पहचान है। अगले दिन हम लोगों को चिल्का झील का मुहाना पार करना है इसके लिए बोट भाड़े पर कर लेना होगा। सो इस काम में मछुआरों का मुखिया सुरेश नायक ने सहायता का हाथ बढ़ाया और बोट वाले से कमल व शिवेन्द्र ने बात पक्की कर ली। सुरेश नायक ने मुझे भी समुद्र की गतिविधियों के विषय में ढेर जानकारी प्रदान किया। लंच की समाप्ति के पश्चात जब हम रवाना होने को थे मछुआरों ने ने हम लोगों से आग्रह किया कि एक फोटो सबके साथ हो जाना चाहिए। जब मोबाइल में फोटो कैमरा बन्दी हुआ। न जाने क्यों मेरे नेत्र सजल हो गये। बड़ा अद्भुत दृश्य था उस फोटो में सभी भारतीय थे बंगला, उड़िया, तेलगु तो कोई तामिल भाषी! कोई भाषा गत भेद नहीं। जब हम क्रैब आईलैंड से चलना शुरू किए तो एक जोरदार नारा लगा "भारत माता कि जय" शायद इस गुंज को सुनकर सागर का भी हृदय गदगद हो गया होगा। बस चल रहें हैं तो चलते ही जा रहें हैं। सागर के तट से कदम मिलाकर गति में तेजी आ गई। और रह-रहकर मरे हुए कछुओं के बिखंडन होते काया कभी नाक पर रूमाल रखने को बाध्य करती है और कभी इनकी मृत्युपरांत दुर्गती मन में वैराग्य विचारों की लहरों को उंचाई प्रदान करने लगी। प्रकृति के अद्भुत नियम जैविक परिस्थिति नियंत्रण में किसी भी जीव की संख्या बढ़ने भी नही देती है और घटने भी नही देती है। जो भी हो सूर्यास्त हो चुका है और हमारी आज की मंजिल अभी भी कई किलोमीटर दूर है। सामुद्रिक ज्वार धीरे-धीरे हमें सूखे बलूई कणों से भरे तट पर बायीं ओर धकेल रहा था एवं इससे हमारे चलने की गति में अंकुश लगाने का सागर का सुपरिकल्पित योजना कार्य कर रही थी ताकि असफल हो जायें। परन्तु जिस दल में तरुणाई से भरी उर्जा का भण्डार हो भला उसे कौन रोकेगा। आज की लक्ष्य प्राप्ति हो ही गई और राजहंस सी बीच के सी रैकेज कटींग के पास पहुंच गए।

                 28 दिसम्बर

               ----------------

प्रति दिन रात को सोने से पूर्व टीम लीडर सभी सदस्यों को लेकर बैठता था और दिनभर की अच्छाई-बुराई की चर्चा कर अगले दिन की कार्यवाही एवं योजनाओं से सबको अवगत किया करता था परंतु सदस्यों को शायद यह सब बेकार लगता है क्योंकि अगले दिन की ट्रेकिंग समय पर कभी भी रवानगी पर नही शुरू हुई। देर से सोकर उठते और टेंट को समेटते-समेटते आखिर आठ-साढ़े आठ बज जाता। इसके बावजूद भी कोई ब्रेक फास्ट ले चुका होता तो कोई बीना ब्रेकफास्ट के रवाना होता। इन सबके ऊपर लड़कियों का सौतिया डाह तो रहता ही था। अतः आज भी हमलोग राजहंस सी बीच से 8 बजकर 20 मिनट पर ट्रेकिंग की शुरुआत किए। राशन की थैली लेकर चलने से सभी बचना चाहते हैं, यहां तक कि पीने का पानी वाला जार भी कोई लेना पसन्द नही करते हैं जबकि सबको पता है इस समुद्री क्षेत्र में खारे जल का विशाल भण्डार हमारे स्वागत में पलक-पांवड़े बिछाए बैठा है। हमारे हिन्दी साहित्य के रचनाकारों ने लिखा है खजूर  का पेड़ ऊंचा अवश्य है पर पथिकों को छाया प्रदान नही करता है और उस सागर की क्या बड़ाई जहां पथिकों की प्यास नहीं बुझती है। वैसे आज हमें सबसे अधिक दूरी तय करनी है, लगभग 30 किलोमीटर की मंजिल बहुप्रतीक्षित चिल्का झील जिसे पुस्तकों में हमने पढ़ा है पर कभी देखा नहीं है। आज वह सुन्दर है या भयंकर, उसे अपने आंखों से देखने का सौभाग्य प्राप्त होगा। चिल्का को कुछ लोग उपसागर भी कहकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। परन्तु मैं तो किसी की कही बातों को जल्द विश्वास नहीं करता हूं पर निकट जाकर स्पर्श करने की ललक मन में अवश्य पाले हूं। सभी सदस्यों में मैं कमल, सुभाष, तथा रोबिन पारा पारी से राशन व जल का वाहक बन आगे बढ़ रहें हैं। बाकी तो कथित भाई-बहन का प्यार देख सुलग रहे हैं लेकिन अग्नि की शिखा प्रज्वलित नही हो रही है। हां एक बात ध्यान देने योग्य है कि उनके बीच हंसी-मजाक तथा अंताक्षरी अनवरत चल रही है। जितना सारा ईर्ष्या मात्र बोझा ढोने को लेकर ही उभरता है। अब हम उस स्थल पर पहुंचे जहां से हमें बोट के द्वारा चिल्का सी माउथ पार करने होंगे अर्थात पिकनिक स्पॉट सतपदा सी बीच। कुछ देर रेस्ट लेकर टीम लीडर, शिवेंद्र ने मोबाइल पर उस बोटमेन से संपर्क साधा जो हमें चिल्का झील की विशालता से परिचित कराएगा। बोटमेन ने कहा "आ रहा हूं" पर वह आ ही रहा है। घड़ी का कांटा 10.30 पर ठहर गई। आहिस्ता-आहिस्ता भूवन भास्कर हमारे सर पर आसीन होने को है और समय तो हमारे लिए ठहरेगा नहीं। हमलोग दुविधा में तैरने लगे क्या आज हम चिल्का सी माउथ लूनापानी पहुंचेंगे? इसी सोच में हम डूबे थे कि हमारे यंग सदस्यों की हुर्रे का शोर सुनाई दिया। घटना कुछ ऐसी थी कि यंग सदस्य गण सागर की लहरों के साथ मस्ती कर रहे थे और एक बड़ी मछली वजन में प्रायः डेढ़ केजी होगा तट से टकराने वाली लहरों के धक्के खा कर किनारे पर आ लगी। जब तक दूसरी लहर उसे वापस ले जाएगी लड़के-लड़कियों ने मछली को पकड़ लिया तथा आनन्द में मग्न हो गये। चलो भाई निराशा में आनन्द की अनुभूति तो हुई। इसी के साथ-साथ कमल के मोबाइल पर घंटी बजी,जब उसने प्रत्युत्तर दिया तो कहा गया कि बोटमेन समुद्र तट से थोड़ी दूर पर खड़ा है और आप लोग हैं कि आराम से बैठे हो। हमें आश्चर्य हुआ इधर तो कोई बोट नही दिख रहा है फिर बोटमेन कहां मिलेगा। मोबाइल पर बात करते हुए कमल अपनी गर्दन को चारो तरफ घुमाकर देखा। सच में एक व्यक्ति को हम लोगों के ओर तकते पाया। शिवेंद्र दौड़ कर उससे पूछा। अब सबके चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई। बात थी कि इस समय दायीं तरफ सागर तथा बायीं ओर चिल्का झील का साम्राज्य एवं हमारे बीच में संकरा टापु। खैर हम लोगों को बोट तक जाने के लिए दोपहर की तपती ढिले बलुई मैदान पर चलने में थोड़ा कष्ट करना पड़ा। जहां से बोट पर सवार होना था वहां बोट नही थी लेकिन एक स्नैक्स की दुकान अवश्य मिली जिसे देख सब की चक्षुओं को चहवास की इच्छा हिलोरें लेने लगी। इसलिए जब तक बोट आएगी चाय और बिस्कुट का आर्डर दिया गया। सुबह से अबतक जो थकान थी दूर हो गई और नई ताजगी से परिपूर्ण हो बोट पर सवार हो गए। बोट जैसे-जैसे किनारे से दूरियां बढ़ा रही थी वैसे-वैसे हृदय में संतुष्टि एवं वर्षों की स्वप्न पूर्ति होने से नेत्र सजल हो गये। जिधर भी दृष्टि घुम रही है केवल दूर-दूर तक नीली जल राशि ही दिख रहा है और बीच-बीच में असंख्य छोटे-छोटे चारा जहां मानवीय उंचाई के समान लम्बे तृणों का राज्य मंद-मंद पवन के झोंके पर नृत्य कर रहा है। हमारी बोट तो हम लोगों को लेकर पालकी की भांति दुलकियां खिलाती आगे बढ़ रही है। झील इतना स्वच्छ है कि उसका तल देश का बालू एवं तैरने वाली समुद्री मछलियों का झांक दिखाई दे रहा है। बोट इनके झांको के बीच से अपना मार्ग बना आगे बढ़ रहा है। मछलियों में कोई हड़बड़ी या पलायन का कोई प्रयास नही देख रहा हूं। चिल्का का तलदेश एक समान नहीं है, कही गहराई अधिक पर उतना गहरा नहीं कि यदि बोट पलटी खा जाये और सारे यात्री डूब जाए। वैसे चुल्लू भर पानी में डूबने से भी मृत्यु हो जाती है। अर्थात घबड़ा गये तो गये काम से। आपको धैर्य बनाए रखनी होगी। सफलता के लिए धैर्य एवं आत्मविश्वास के साथ-साथ साहस की आवश्यकता होती है। कई बार तो बोट का तल एवं झील का तलहटी आपस में हाथ मिला लिया और बोट फंस गई सवार सभी लोगों की डर के मारे बोलती बंद हो गई। कभी-कभी बोटमेन राह भटक गया कारण था चिल्का सी माउथ किस ओर से जाएगा रूट की पुरी जानकारी नहीं थी। अतः झील में मत्स्य शिकार करने वाले अन्य बोटों के खेवैया से संपर्क करना पड़ा। परिणाम चिल्का सी माउथ को पार करने में डेढ़ घंटे के स्थान पर लगभग तीन घंटे लग गए। अन्ततः सी माउथ पार कर हम किनारे पर उतरे। वहां हमने दो-तीन छोटी-छोटी झुग्गी देखें जो साधारणतया मछुआरों की ही होगी। और तीन-चार बालकों को खेलते हुए देखा जिनकी उम्र दस वर्ष होगी। उन्होंने हमें घेर लिया और लजेंश मांगी। हमारी टीम में प्रिति नामक सदस्या थी, उसके पास कुछ लजेंश थे दे दी। हमने घड़ी में देखा दोपहर के डेढ़ बज रहे हैं तथा लूनापानी यहां से काफी दूर है। क्योंकि बोटमेन उस रुप में एक दम कोरा था जहां उसे किनारे लगानी थी वहां हमें न उतार बल्कि चिल्का के दो सी माउथ थे और हमारा गंतव्य हमसे दूर है जो यहां से लगभग एक घंटा ट्रेकिंग पथ है। टीम लीडर कमल ने हम सबसे राय-मशविरा किया एवं निर्णय लिया कि कुछ खा लिया जाय फिर आगे बढ़ते हैं। मुढ़ी-चानाचूर चबाया गया, पानी पीकर उदराग्नि की ज्वलन शांत हुई। यंग सदस्यों ने थोड़ा वहां के बच्चों के साथ खेल में हिस्सा लिया जैसे झूला झूलना तथा हाई एवं लांग जम्प। जबकि उसी जगह हमारी सैकें जहां रखी हुई थी,तेजु नामक सदस्या खर्राटे भर रही थी। टीम लीडर को उस पर क्रोध आता है पर स्वयं पर नियंत्रण कर लिया। मुझसे केवल इतना ही कहा इनके पास समय का कोई मूल्य नहीं है। मैंने उसे समझाया यही नरम-गरम तुम्हारे अन्दर के नेतृत्व को विकसित करेगा।

कहने का मतलब चिल्का झील के इस छोर पर थोड़ी देर का रिलेक्स और पुनः ट्रेकिंग अपनी ट्रेक पर दौड़ने लगी। अन्तर इतना ही था इस समय सागर को हम दाहिने रख कर ही चल रहे थे, उसका गर्जना सुनाई दे रहा था परन्तु सागर से कितने दूर हैं यह समझ नहीं आ रहा था। हम चिल्का झील के दाहिने तट पर एक दम "U" आकृति लेकर चलते चले जा रहे हैं। चलते-चलते अपराह्न 3.00 बजे रुके। वहां हम लोगों को एक झोपड़ी मिली जिसमें एक मछुआरे का परिवार निवास करता है तथा झोपड़ी के पास ही एक पक्का कुआं था और लंच की व्यवस्था व पीने का पानी मिल गया। एक बंग्ला कहावत है "खेते पेले सुते चाय" अर्थात जहां सभी सुविधाएं उपलब्ध हो तो नाटक की ओर मन भागता है। तीन दिन से खिचड़ी खा-खाकर सबका मन उकता गया था। सो खिचड़ी के स्थान पर भात -  दाल - चोखा - अचार खायेंगे। अब भला देर होगा हीं। लंच की तैयारी में  गाय-भैंस को चरते देखा। झोपड़ी से लगभग पचास मीटर की दूरी पर एक पूजा की बेदी मिली शायद गौशालाओं की देखभाल करने वाले यहां पूजा-पाठ करते होंगे। आश्चर्यजनक जो विषय थी चिल्का झील का जल खारा एवं वही से थोड़ी दूर पर सोडियम क्लोराइड का भण्डार है फिर भी मछुआरे के झोपड़ी के निकट जो कुआं है उसका जल खारा खारा क्यों नहीं। मेरे तार्किक क्षमता कहना चाहता है कि चुंकि कुआं की गहराई तथा बालू के कण खारे जल को रासायनिक विक्रिया के द्वारा खारेपन को समाप्त कर मिठे जल में परिणत कर दी है। यहां लंच समाप्त करते-करते शाम के चार से अधिक हो चुका था और हम लोगों को लूनापानी पहुंचना ही होगा। ट्रेक पर हमारे कदम बढ़ने लगे। वही झील का किनारा से मात्र एक-डेढ़ मीटर हटकर पुरी टीम बढ़ रही है। जैसे जैसे घड़ी की कांटा आगे बढ़ रही थी उसकी तुलना में शाम अति शीघ्र होती जा रही थी यानी अंधेरा घना होने लगा। इस समय मैं सबके पीछे चल रहा था। कमल ने एक अच्छे नेता की भांति निर्देश दे रखा था एक से दूसरे के बीच ज्यादा दूरी ना रखें और झील के जल के स्पर्श में न जाएं। दूर-दूर तक मैं दृष्टिपात किया लेकिन निर्जनता के अलावा मात्र बलुई टापू जहां जलकुंभी जाति के उद्भिज्ज से आवृत्त झाड़ी ही दिखा। दिवाकर का अवसान पता ही नही चला और तमस ने आकाश को काली चादर में ढंक लिया। हम पास-पास चल रहे हैं पर एक दूसरे के चेहरे को स्पष्ट देखने को आंखें फाड़नी पड़ रही है। हमारे कदम कीचड़ में पड़ने पर पता चलता है कि कीचड़ में चले गए। शायद अंधेरिया रात है और ठंड भी बढ़ती जा रही है। इसके पूर्व तो ठंड का अहसास ही नहीं हुआ था पर आज दिसम्बर ने लगता है अपनी शीतकालीन सेना को आक्रमण करने का निर्देश दे दिया है। ठंड के मारे सबने जबड़े भींच लिया जो उनके गपशप से उत्पन्न होने वाली ध्वनि को सुनने से अनुभव हो रहा था। बाध्य होकर अंधेरे से लड़ने हेतु हमारे पास एक आपातकालीन बैटरी पर जलने वाली लैम्प थी उसे आन की गई और सामने वालों को थमाया गया और पीछे वाले प्रायः अपनी-अपनी मोबाइल के टार्च को आन कर रखा। अब कोई मानव यदि हमें दूर से देखेगा तो यही समझेगा कि हम मानव न होकर जुगनुओं के झुण्ड हैं। धीरे-धीरे हम सभी को ऐसे अंधेरे में आनन्द आने लगा तथा स्वयं को रोमांचित अनुभव करने लगे। कितना देर तक चलते रहे कह पाना मुश्किल है। इस समय किसी को थकावट नहीं आई और ना ही कोई पांच मिनट का विश्राम की बात उठाई। और अब हमारी खुशियों का ठिकाना नहीं रहा अचानक दाहिने नभ की विस्तृत तवे में एक दम दूधिया कटोरे ने अपनी मुस्कान बिखेरते हुए हमारा स्वागत किया और चिल्का के जल के पृष्ठतल की जो सुन्दरता देखी वैसी तो हमारी सपनों के स्वर्ग में भी कल्पना नहीं की जा सकती है। मैं आनन्द से भाव विभोर हो उठा। सभी लड़कियां, विवेक, राबिन, शिवेंद्र एवं, सुभाष सेल्फी लेने में व्यस्त थे। हां चलने की गति में तीव्रता आ गई। चांदनी रात के उजाले में तीन-चार मानवीय आकृति हम लोगों से कई गज की फासले पर चलते हुए देखा गया। पहले तो हमें संदेह हुआ इस बियाबान में कौन लोग हैं और क्या कर रहे हैं। जैसे-जैसे उनके निकट हम पहुंचे तो उन्होंने कहा वे लोग मछुआरे हैं और उनका बोट लूनापानी के पास है जो आधे घंटे दूर है। कमल ने मोबाइल में गूगल की सहायता से जी पी एस पर देखा तो उन लोगों ने जो बताया वह एक दम सटीक था। और जैसे ही सबको पता चला कि अब केवल आधे घंटे ही चलने होंगे, कदमों में शिथिलता आ गई और सेल्फी लेने की होड़ खत्म परंतु आधा घंटा पैदल चलना ही होगा और हम लूनापानी पहुंच चुके थे। सागर की ओर से आनेवाली ठंडी-ठंढी हवाओं के स्पर्श ने हम पर अपना प्यार लुटाने लगी और हम उस प्यार से बचने के लिए किसी बड़े पेड़ या ऊंची घनी झाड़ी की ग खोज में वहां से 100-150 मीटर आगे बढ़ कर सुरक्षित स्थान देख टेंट पिचिंग किया। स्टोव जलाई गई तथा सैकों को रखा गया एवं तब तक मैडम को सबने सहयोग किया जिससे उन्होंने गरमागरम चाय प्रस्तुत की, सबको इस समय चाय इतना स्वादिष्ट लगा कि सबने मैडम की प्रशंसा की। आज दोपहर में पकड़ी गई मछली को झील के स्वच्छ जल में धो-धा कर रसोई हेतु परोस दी गई। एक तरफ डिनर की तैयारी चल रही थी और दूसरी ओर सूखे काठ जलाकर कैंप फायर का आयोजन किया गया, क्योंकि आगामी दिवस हम दुधिया नदी के मुहाने पर पहुंच जाएंगे अर्थात हमारे क्लब द्वारा आयोजित कोस्टल ट्रेकिंग का अंतिम छोर पुरी। कैम्प फायर की लपटों ने धीरे-धीरे अपना प्रभाव दिखाना प्रारम्भ किया, शरीर में गर्मी आई और लड़के-लड़कियों ने अंताक्षरी एवं बीच-बीच में डान्स का आनन्द लिया। वास्तव में चांदनी रात, ठंड, सागर की गर्जना, भुनी जा रही मछली की खुशबू आदि सब मिलकर कैम्प फायर को अविस्मरणीय बना देना चाहती। यहां के कैम्प फायर की तुलना अन्य सारे कैम्प फायरों के साथ नहीं की जा सकती है क्योंकि ऐसा वातावरण के उपादानों का मिलन शायद कल्पना के जगत से काफी दूर है। इसलिए सभी यंग सदस्य इसे अपने हृदय में बसा लेना चाहते हों। डिनर तैयार हो चुकी थी। आज सभी रोमांचित थे क्योंकि आज रात के अंधेरे में जो नाइट ट्रेक हुई वह उनके जीवन का एक एडवेंचर्स एचीवमेंट थी। आखिर कैम्प फायर की लपटें शांत हो चुकी थी। पर मुझे नींद नहीं आ रही थी। स्लीपिंग बैग में घुसे करवटें बदल रहे थे और नींद के साम्राज्य में डूब जाना चाहता था परन्तु मेरा सारा प्रयास असफल। शायद प्रकृति मुझे तो एक और  उपलब्धि देने वाली थी। मैं टेंट से बाहर निकल कैम्प फायर वाले स्थान पर आकर बैठ गया। एक मोटा सा काठ अभी भी जल रहा था और उसके चारों तरफ राख का साम्राज्य फैला हुआ था अंदर ही अंदर अग्नि की स्फूलिंग रह-रह कर हवा के झोंके से तीव्र हो जाया करती है। बैठे-बैठे चांदनी रात के सौंदर्य को निर्जन स्तब्धता में उपभोग कर रहा था। हृदय में विभिन्न प्रकार के विचारों की लड़ियां मोतियों की माला की भांति बन रही-बिगड़ रही थी। हमारे टैंटों से नाकों से निकलने वाली खर्राटे मेरी चंद्रा को भंग करने की कोशिश कर रही थी। परन्तु सब बेकार था। अचानक न जाने किस प्राकृतिक प्रेरणा ने मुझे सागर के गर्जना सुनाई देने वाली दिशा में जाने को उकसा रहा था और मैं जैसे किसी आकर्षण में डूबा हुआ सागर और चिल्का झील के मध्यवर्ती समतल बलुई टापू पर आ गया। सच कहता हूं चंद्र की चांदनी अपनी शीतल किरणों से बलुई कणों को रजताभ बना एक अद्वितीय क्षेत्र में परिवर्तित कर दिया था जिसकी मनोहारी रुप ने मुझे बन्दी बनाकर सागर के तट की ओर खींच रहा था। मेरे कदम स्वत: ही बढ़ता जा रहा है। मेरे विवेक ने भी मेरी उपस्थित भावनाओं से अपना नियंत्रण हटा लिया। अब मैंने समुद्र पृष्ठ पर जो अनुपम सुन्दर छटा देखी उसका दृश्यावलोकन शब्दों में करते समय कलम की स्याही को ही सोख लिया यानी उस मनमोहक झांकी केवल और केवल मेरे पास ही रहे कोई दूसरा साझेदारी न करें।

                  29 दिसम्बर

              -------------------

गत रात्रि का आकर्षण अभी भी मेरे अंत: चक्षु से ओझल नही हुआ था। फिर भी मैं अपनी अभ्यासानुसार भोर पांच बजे निद्रा को त्यागकर उगते हुए आदित्य की लेलिहान शिखाओं का दर्शन किया तथा झील में असंख्य बोटों को देखा जो मछलियां पकड़ने में व्यस्त थे। कितना अद्भुत अंतर दिखाई रहा है एक ही झील है और वही एक हिरण्यगर्भाय पर भोर एवं संध्या में रुप अलग-अलग। ठंढी-ठंढी हवायें सिने के आर-पार हो रही है। ऐसी स्थिति में गरमागरम चाय पीने की इच्छा जागी। क्या करूं यह सोचते-सोचते मैं टेंट के अंदर घुस गया तथा सोते शिवेन को जगाया और कहा "उठो, सुबह के छः बज चुके हैं चाय पीने की इच्छा बलवती हो चुकी है। शिवेन  अंगड़ाई लेते हुए उठ बैठा और उसके साथ-साथ कमल और सुभाष भी जाग गए। तभी बाजू के टेंट से श्रीमती जी का कमल को कहते हुए सुना "कमल स्टोव जलाओ, मैं अभी चाय तैयार किए देती हूं ‌मुझे पता है तुम्हारा सर हमेशा की भांति मार्निंग वॉक करने निकले हैं और लौट कर ही चाय पीते हैं। सुभाष झटके के साथ उठा और बगल में रखा स्टोव को जलाया। अब मैंने शिवेन एवं कमल को कहा "आज अपने कोस्टल ट्रेकिंग का अंतिम दिन है और दुधिया नदी का मुहाना पार करना है इसलिए यदि हम मुहाने पर ज्वार आने के पूर्व ही पहुंच जाएं तो ठीक रहेगा" पर कमल ने कहा कि सर शायद संभव नही होगा क्योंकि शितल को उसके आनलाइन एग्जाम के लिए समय तो देना ही होगा।"

फिर भी मैंने समझाया कि सब कुछ करना होगा पर उपलब्धियां प्राप्त करने के प्रयासों में कमी नहीं होनी चाहिए। अंतिम विकल्प तो नाईट स्टे है हीं। 

आखिरकार टेंटों को समेटने, सभी सदस्यों को विगत कैम्प फायर के एंज्वॉयमेंट के जंजीर से चूंकि मुक्ति नहीं मिली थी ट्रेकिंग पर रवानगी करते-करते 8.40 बज गए। दोपहर 12.00 से पूर्व ही बाली हरचण्डी सी शोर पहुंचना ही होगा ऐसा लक्ष्य निर्धारित किया गया पर सदस्यों का आपसी व्यक्तिगत ईर्ष्या व द्वेष अपनी चरम सीमा पर था। उपर से सभी हंसते   खिलखिलाते नजर आ रहे थे। प्रति दिन की भांति आज भी राशन की थैली एवं वाटर जारिकेन से दूर थे। जो भी हो बाली हरचण्डी सी शोर पहुंच तो गए हम लेकिन डेढ़ घंटे लेट और रही-सही कसर ड्रिकिंग वाटर अरेंजमेंट ने पुरा कर दिया। उपर से शितल का आनलाइन एग्जाम भी आरंभ हो गई। अतः अब जल्दबाजी करना बेकार था। कमल ने शाम को आने वाली ज्वार का समय गूगल पर सर्च किया, उसकी परिणति शाम का सामना करने के बाद लिखूंगा। खैर दोपहर का लंच का समापन करते 3.00 बज गए। शितल का एग्जाम अभी भी समाप्त नही हुआ था फिर भी उसने हम लोगों से रवाना होने के लिए आग्रह की और ट्रेकिंग की अंतिम इन्टरवेल की ओर हमें तीन घंटे का समय लेकर चलते रहना है। पर एक विशेष परिवर्तन ने क्रेब आईलैंड के सुरेश नायक की कही बात मुझे स्मरण हो आया-यदि सागर की लहरें दूर से ऊंची होकर तक का स्पर्श करे और उसकी लौटने की गति धीमी हो तो वह ज्वार का संकेत है। अतः हमें बायीं ओर धकेलने लगा। कमल को मैंने बताया कि तुम एकबार फिर गूगल सर्च करो जी पी एस ज्वार के विषय में क्या बता रही है। उसने गूगल सर्च किया तो नेट परिसेवा सही नही मिला जिससे वह सुबह वाली अपडेट दिखाई। मैं सोच में पड़ गया पर त्वरित ही चिंतामुक्त भी क्योंकि नाइट स्टे विकल्प था हीं। हमारी ट्रेकिंग की गति पर अंकुश तो लग ही चुका था। हम अपनी गति को भरपूर बढ़ाने का प्रयास करें परंतु सूखे बालू के चादर पर संभव नही हो पाया। आखिर सूर्यास्त हो चला और धीरे धीरे अंधेरा भी घिरने लगा। घड़ी में देखा तो 5.30 बज चुके हैं अर्थात हम सबको अभी भी तीन किलोमीटर तय करने होंगे। इसका मतलब यह निकला कि 6.30 के पहले हम नही पहुंच पायेंगे। इस भ्रमण वृतांत से बहुत पहले ही लिखा था कि ट्रेकिंग जब समाप्ति पर पहुंचने लगती है और ट्रेकरों में धैर्य खोने की प्रवृत्ति दिखने लगती है। ऐसा ही लक्षण श्रीमती मैडम जी में प्रकट होने लगा। वह धीमी गति के कारण कमल के उपर बरस पड़ी। दूसरी ओर हमारे क्लब के दो सदस्य राना तथा सौमेन ब्रह्मचारी भी कमल को ज्ञान देने लगे कि तुम्हें मैंने तो कहा था "ऐसा करो-वैसा करो। अब भुगतो।" वैसे तो कमल बहुत ही शांत, गंभीर स्वभाव का युवक था पर यदि किसी का कोई भी परामर्श सही स्थान,काल, पात्र तथा परिस्थिति को देख कर मिलती है तभी वह सफल होने में सहायक सिद्ध होता है अन्यथा परामर्श ग्रहण करने वाले को गंतव्य से विचलीत कर देता है। हमलोग जिस समय दुधिया नदी के मुहाने पर पहुंचे काले आकाश में दाहिनी ओर चन्द्रमा एक दम उज्जवल दिख रहा था तथा औंधे कड़ाही में झिलमिलाते मोतियों की लड़ियां बिखरी हुई थी। वहां की सच्चाई ज्वार से दुधिया नदी उफान पर यद्यपि बरसाती नदी होने के कारण कम ही जल से पूर्ण रहती है। शिवेंद्र और कमल ने जहां नदी की चौड़ाई कम थी तथा घुटने तक पानी रहने की संभावना थी जाकर रेकी किया। शिवेंद्र की लम्बाई छः फीट तीन या चार इंच की है। सो वही नदी में उतरा, उसके वक्ष स्थल तक जल स्तर थी। फलस्वरूप कमल के साथ परामर्श कर नाइट स्टे करने का निर्णय लिया जबकि दूसरी ओर श्रीमती मैडम जी सबको चलो-चलो अभी ही नदी क्रास कर उस पार चल चलो। चूंकि जितने भी नये सदस्य कोस्टल ट्रेकिंग में अंश ग्रहण किए थे उनके जीवन का यह पहला ट्रेकिंग था। कोई भी अनुभवी नही है उपर से तीन लड़कियों को तैरना भी नही आता है ऐसे में बैल को सिंग से प्रहार करने के लिए आमंत्रित वाली स्थिति तैयार हो जाएगी। इतना ही नहीं ठंड भी काफी थी और चालिस-पचास फीट की चौड़ाई पार करने में कही किसी को इन्फ्लूएंजा प्यार करने का आमंत्रण न दे-दे। इन सभी विषयों पर बीना सोचे समझे श्रीमती मैडम जी दो-दो बार नदी के कम चौड़ी किनारे तक ले जाने लगी। परन्तु शिवेंद्र,कमल एवं मुझ पर कुपित हो आवेश में अनाप-शनाप उक्तियां कर बैठी क्योंकि उस समय उन्हें लगा कि सारे सदस्य आखिर उनका निर्देश क्यों नही मानेंगे जबकि वो क्लब की बाइस प्रेसिडेंट हैं। अन्ततः टेंट पिचिंग कार्य शुरू। इसी समय शिवेंद्र, कमल और मैं स्वयं मछली पकड़ रहे स्थानीय मछुआरों से बातचीत किया तो पता चला कि ज्वार साढ़े चार बजे से शुरू हो जाती है तथा पौने आठ बजे के लगभग दुधिया का जलस्तर कम होने लगती है उस समय घुटनों तक जलप्रवाह रहता है। भोर बेला भी ज्वार का यही समय है। आपलोग बोट से नदी पार कर सकते हो जो यहां से थोड़ी दूरी पर फेरीघाट स्थित है। वैसे रिस्क उठाने की जरूरत नही है। रात में इसी टापू पर टेंट लगाकर निश्चिंत हो कर खाना-वाना खाओ तथा सो जाओ। भोर बेला बोट से नदी पार कर लेना। नदी के उस पार ही पूरी जगन्नाथ मंदिर है, ठाकुर का दर्शन कर लो पुण्य मिलता है। हम तीनों वापस पिचिंग किए गए टेंटों के निकट आया तो देखा कि दो टेंट पिचिंग हुए हैं बाकी नहीं। श्रीमती मैडम जी को अकेले ही टेंट पिचिंग कर रही थी। सभी सदस्य चुपचाप बैठे थे। मैंने देखा कि श्रीमती मैडम जी छनर-वनर कर रही है तो मैं समझ गया पर कमल को  पता नही था और वह मैडम का सहयोग करने गया तो उस पर ऐसा बम विस्फोट हुआ कि एक टेंट की दो-दो स्टिक टूट गई। मैंने कमल को वापस बुलाया और बैठे हुए यंग सदस्यों को निर्देश दिया कमल और शिवेन्द्र को टेंट पिचिंग करने में सहायता करे और सुभाष एवं तेजु को स्टोव जला चाय तैयार करने को कहा। मैं जिस टेंट में सोनेवाला था उसी के आउटर में स्टोव जलाई गई और चाय प्रस्तुत। सबसे पहले गिलास में भरकर शिवेन्द्र को चाय दी गई ताकि उसके शरीर को गर्मी मिले। आज उसनेे जो साहस और त्याग दिखाया उससे  सारे सदस्यगण उसके ऋणी बन गए। यदि वह सेना में होता तो उसे अवश्य गैलेन्टरी मैडल देकर सम्मानित किया जाता पर यहां मेरे पास उसके लिए आशिर्वाद तथा स्नेह के सिवा कुछ भी नही है देने को। उस टापू से पूरी के होटलों तथा बीच के हैलोजेन लाइटों की चमक प्रमाण दे रही थी कि वहां का रख-रखाव कैसा होगा तथा एक पथिक की मानसिक स्थिति को समझ रहे होंगे नदी के इस किनारे पर खड़ा है जबकि उसकी मंजिल दूसरी किनारे पर बिल्कुल उन दो प्रेमियों की तरह मिलने की तड़प लिए एक -दूसरे का इन्तजार कर रहे हों परन्तु दोनों के बीच दुधिया नदी मजे ले रही है। आज की रात को अलविदा कह स्लीपिंग बैग में घुस गए और न जाने कब नींद ने थपकियां दे-दे कर सुला दी।


                30 दिसम्बर

           ----------------------

रात में ठंडक अधिक थी पर चिंता की बात नहीं है कारण स्लीपिंग बैग हाई अल्टिच्युड वाला था। इसलिए जैसे ही आंख खुली तो देखा कि मेरे टेंट में मुझे छोड़कर बाकी के तीनों में से कोई भी उपस्थित नहीं है। तभी कमल और शिवेन्द्र की वार्तालाप मेरे कानों में आई, शिवेन्द्र कह रहा था - "देखो कमल, नदी में हम दोनों ही उतरे तुम्हारे गर्दन से थोड़ा नीचे पानी। फिर बाकी लोगों के लिए इस कंपा देने वाली घने कुहासे में नदी पार करना संभव होगा क्या? मेरा क्या है मैं ठहरा लम्बू अपने पास जो रोप है न उसका एक प्रांत पकड़ कर उस पार खंभा बन जाऊंगा बाकी की व्यवस्था तुम्हें करनी है" इतना सुनकर मैं स्लीपिंग बैग एवं टेंट से बाहर निकल आया। देखा था दोनों ही भिंगे कांप रहे हैं। उन दोनों ने मुझे बताया कि जब तक कुहासा नहीं कटता है तब तक नदी पार करना उचित नही होगा। मुझे उनकी बातें युक्तिसंगत लगी। कुछ पल सोचने के बाद, मैंने उन्हें परामर्श दिया कि एक काम करो हम लोग नदी का किनारा पकड़ कर पीछे की ओर चलते हैं जहां हमें चौड़ाई कम मिलेगी वही पर नदी को पार करेंगे या किसी से फेरी घाट कहां है पुछकर वहां से पार करते हैं। आखिर हम तो पूरी पहुंच ही गए हैं। यह परामर्श उन दोनों को जांच गई और निर्णय ले लिया। सबको जगा टेंट समेटी गई तथा हमलोग पुनः वापसी दुधिया नदी का किनारा पकड़ कर चलने लगे। औसतन हाफ किलोमीटर चल चुके तब जाकर दुधिया अंग्रेजी वर्णमाला के 'एल' की भांति पूर्व दिशा की ओर मुड़ गई थी। यहां के बलुई टापू की विशालता देख अवाक हो गया कारण गतकाल जब हमलोग दुधिया के मुहाने की ओर अग्रसर थे, यदि हमारे पास पूर्व सूचना होती तो हम लोगों को मुहाने पर नदी पार करने की आवश्यकता ही नहीं थी। अर्थात हाफ किलोमीटर के अन्तर से ही यह टापू क्रमशः बायीं तरफ ऊंची ढलान के रूप में पक्की सड़क की ओर बढ़ गई थी और फेरी घाट भी निकट ही था और हमारी टीम को मुहाने पर नाईट स्टे करने की आवश्यकता न होती। खैर अब पश्चाताप करने से क्या लाभ। रात की घटना की लोमहर्षक अनुभव हमारा अतीत बन चुकी थी। नदी का किनारा पकड़ कर आगे बढ़ रहें हैं पर यहां भी हमारे साहस और धैर्य की परीक्षा होगी। धीरे-धीरे नदी का किनारा 75 डिग्री से 90 डिग्री दिवाल में परिवर्तित होती चली गई। हम एक कदम ऊंचा चढ़ते तो दो कदम नीचे उतर जाना पड़ता। कठोर परिश्रम करना पड़ा, सांसें फूलने लगी, ठंड में भी हम पसीने-पसीने हो चुके थे परन्तु हमने पराजय स्वीकार नहीं किया और अंत में हमलोग पक्की सड़क पर खड़े थे। सबके चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गई औ र"थ्रीचियर्स-फार-हिमचक्र-हिप-हिप-हुर्रे" का जयघोष लगाया गया। इतना दूर पहुंचने में 7.00 बजे से 9.00 बजने का समय लगा। तत्पश्चात आधा घंटे और हम पैदल चले कुहासा भी समाप्त तथा भानु ने अपनी स्वर्णिम प्रकाश पुंज से नहला दिया और हम फेरी घाट पर बोट पर सवार हो चुके तथा नदी पार कर पुरी होटल की ओर अटो पर सवार। पांच दिवसीय ट्रेकिंग अनगिनत मिठा-कड़ुवी यादों के साथ संपूर्ण, जहां 15 22 16 30 15 5=103 किलोमीटर की दूरी अतिक्रमण किया।



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Fantasy