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Dr.manju sharma

Tragedy

4  

Dr.manju sharma

Tragedy

दोष किसका ?

दोष किसका ?

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आज तो रविवार है ...हाथ में चाय का प्याला लिए रश्मि बड़े इत्मीनान से चाय पीने के मूड में थी क्योंकि दफ़्तर पहुँचने की जल्दी तो थी नहीं आज| अन्यथा रोजाना चाय पी थोड़ी जाती है बस गटकी जाती है। बालकनी में हरे-भरे पौधों के बीच चाय पीना बहुत सुख पहुँचाता है उसे। आज भी वह ऐसे ही जौली मूड में थी, उसने अखबार उठाया था कि आँखें दुनियादारी की कारगुजारी को टटोलने लगी।  ‘मोमजामे में लिपटा शिशु’ पढ़ते ही इस तरह उछली मानों बिच्छू ने डंक मारा हो, उसके होठ बुदबुदाए हे भगवान ! फिर वह झल्ला उठी पालना ही नहीं तो आखिर क्यों किसी के अपराधों की सजा नन्हीं जान भुगते।  यदि चूहों या कुत्तों ने उस शिशु को .. बस काँप गई वह , बदन सिहर उठा उफ़! रश्मि घृणा और दर्द से तड़प उठी। दोनों हाथों से सर पकड़ लिया, चाय तो कसैली हो ही चुकी थी, अतीत के पर्दों से कुछ धुंधलायी सी टीस उठी और वक्त की मुट्ठी से यादें रिसने लगीं। 


गंगू ताई एक किशोरी को लेकर रश्मि के घर पहुँची थी, पान से रंगें होठ फैलाए “मेमसाहब यह किरण है ” 

गाऊं से काम करने के वास्ते यहाँ आई है।  काम सोब आता है एकदम झकास काम करेगी, ये मेरी गारंटी है। उसने अपने भारी शरीर को सरकाया और बोली – आठ पढ़ी भी है।चित्रगुप्त की तरह सारा चिट्ठा गंगू ताई का भी जवाब नहीं फ़ुरसत में होती है तो मुहल्ले की रिपोर्ट ऐसे पेश करती है कि टी.आर.पी. बढ़ाने वाले चैनलों को भी मात दे। एक कप चाय उदरस्त करने के बाद उसकी ज़बान धीमी गति के समाचारों में बदल जाती फिर खुद को ढोती हुई ओझल हो गई।  मेहनतनामा करार होने के बाद किरण ने काम शुरू कर दिया, किरण का आना एक सुखद एहसास था क्योंकि वह हर काम बड़े सलीके से तो करती ही थी।  ईमानदार इतनी कि चाहे सोना रखा रहे उसकी बला से, धीरे-धीरे उसने सारे काम सीख लिए।  समय की पाबंद इतनी कि घड़ी की सुई के साथ चले। किरण के कदम यौवन की दहलीज़ पर पड़े ही थे कि उसका रूप निखरने लगा, काले लम्बे केशों में गजरा लगाना उसे बहुत प्रिय था।  फूलवाले की आवाज़ पर उसके कान खड़े हो जाते, उसकी इच्छा देखकर रश्मि ने कई बार उसे गजरा लेकर दिया था।  तब उसके गुलाबी रंग पर हलकी की सी ललाई छा जाती और कृतज्ञता के उसके हाथ जल्दी-जल्दी चलने लगते।  जाते वक्त यही कहती ‘आप बहुत अच्छी हैं’ रश्मि प्रत्युत्तर में मुस्कुरा देती।  रश्मि को तो उसकी आदत सी पड़ गई थी। 


गाँव से आए हुए किरण को दो वर्ष हो गए थे, अब तो वह थोड़ी थोड़ी अंग्रेजी भी जान गई थी। उसकी मेहनत और अच्छे व्यवहार की खुशबू कालोनी में फ़ैल गई।  इस तरह कई घरों में उसे काम मिल गया।  माथे पर बिंदी और उसके नीचे देवी का कुमकुम लगाना वह कभी नहीं भूलती।  वक्त का पंछी उड़ता चला जा रहा था, धीरे-धीरे किरण कमनीय काया पीले भांडे में बदलने लगी।  अब उसका गुनगुनाना मौन हो चला था, उल्लास ने मानो मौन ओढ़ लिया हो, हर जवाब में हूँ हाँ। मुस्कराहट तो कहीं दूर ख़ुशी खोजने चली गई। काम की व्यस्तताओं के कारण उसके परिवर्तित रूप पर संदेह तो हुआ पर ध्यान ही नहीं दिया। वैसे भी शहरों में किसी के पर्सनल जीवन में झाँकने को फूहड़ता का परिचायक माना जाता है आखिर वह नौकरानी ही तो है। 


कई दिनों से किरण आई नहीं, रश्मि को यह अच्छा नहीं लगा। वह सोचने लगी - सारा काम पसरा पड़ा है और कल तो मेहमानों को भी आमंत्रित किया है और कुढ़ने लगी वह। ये लोग होते ही ऐसे हैं ज़रा सा काम ज्यादा क्या मिल गया बस काम चोरी शुरू, हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और ,रश्मि झुंझला उठी। उसका ध्यान फोन पर गया और झट से फ्लेट नंबर २०९ में फोन लगाया।  हैलो आंटी क्या रश्मि आई आपके यहाँ ? जवाब आया नहीं भई मैं भी उस महारानी का ही इंतज़ार कर रही हूँ।  दो महीने का एडवांस भी दे दिया है, जी अच्छा। रश्मि किरण के न आने से दुखी ज़रुर थी पर वह उसकी बुराई नहीं सुन सकती थी, अब उसका माथा ठनका ।आखिर क्या हुआ होगा? उसका सिर झन्ना उठा, टिनटिन की दरवाज़े पर दस्तक। रश्मि लपकी कि किरण ही आई होगी लेकिन पड़ोस से मिसेज वर्मा ने गृहप्रवेश किया, लो आसमान से गिरे खजूर में अटके। अब तो एक दो घंटा चुगली की वेदी पर होम हुआ ही मानिए। 


रश्मि ने ज़बरदस्ती में हाथ जोड़ अभिवादन किया, वे दाँत दिखाते हुए सोफे पर पसर गईं। मैं चाय लाती हूँ आप बैठिए कहकर रश्मि रसोई की तरफ मुड़ी।  चाय का पतीला चढ़ाया, मन रह-रह कर किरण के बारे में सोच रहा था।  मिसेज वर्मा ने चाय का प्याला थामते हुए कहा जानती हैं, मोहल्ले में आपकी किरण का उजास ही उजास है।रश्मि का मुँह खुला रह गया किरण का ? और नहीं तो क्या।  उन्होंने ज़ोर से चाय सुड़की, और धीमे से कहने लगी अरे वह तो पेट से है। रश्मि के पैरों तले की ज़मीन खिसकी। लेकिन ... बस इतना ही कह पाई, सिंदूर से भरी माँग के नीचे अट्ठनी वाली साइज की बिंदी को ठीक करते हुए बोली छोड़ो जी न जाने कितने घरों में ‘काम’ फिर भोंडी सी मुस्कराहट।  रश्मि को किरण के बारे में ऊलजलूल बातें सुनना पसंद नहीं था, रश्मि ने कहा बुरा न मानना पर मुझे बाजार जाना है।  हाँ-हाँ मुझे भी कहाँ फुर्सत है ? राम-राम आजकल की लड़कियाँ..। 


रश्मि ने धड़ाम से किवाड़ लगाया लडकियाँ ही क्यों ? हर अपराध का ठीकरा लड़की के सिर, लड़का क्यों नहीं ? वह आँखें बंद कर सोचने लगी। क्या किरण ने ... नहीं यह नहीं हो सकता। उसे याद आई वो साँझ, जब किरण घबराई सी लिफ्ट के पास टकराई थी, अरे किरण! हांफ क्यों रही हो ? क्या हुआ यह चोट कैसी ?


कुछ नहीं, भर्राई सी आव़ाज.. कुछ नहीं मैडम। बस समय अपनी रफ्तार से चलता रहा। किरण को काली साँझ ने घेर लिया .... पिताजी के इलाज के लिए वह शहर में नौकरी करने आई थी। क्या हम प्रतिष्ठित रईस नामधारी लोग किसी को सहारा दे सकते हैं नहीं किसी को कलंकित करना वो भी बेदाग़ होकर वाह! इज्ज़तदार लोग बस इतना ही कह पाई वह।दूधवाले की आवाज़ से चौंकी! आती हूँ भैया।  मन भीगा सा कह रहा था वो मोमजामे में लिपटा शिशु मज़बूरी तो ... फिर भी जीव क्या करे ? 

उफ़! दोनों ओर अमानवीयता।  बुदबुदाती हुई नहाने चली गई, आँखों का पानी पानी संग मिल गया। छककर रोई वह और कर भी क्या सकती थी ?


 

 

 


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