धर्म और भाषा की दीवारें .....

धर्म और भाषा की दीवारें .....

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जीप जैसे ही गाँव की गली में बढ़ी, धूल ने उड़कर स्वागत किया। पगडंडी के दोनों ओर फोग (राजस्थान में पाया जाने वाला पौधा ) देखकर मन मयूर नाच उठा। कीकर (बबूल), जाटी खेतों में लहलहाती सरसों अंगड़ाई ले रही थी तो गेहूं की बाली पूरे यौवन पर मचल रही थी। थोड़े से आगे निकले कि दो – तीन पनिहारिन मटके पर मटके रखे बतियाती जा रही थी। वो गोटेदार चुन्नी, लंबा घूँघट। मेरे भीतर कुछ बह रहा था.कुछ रम रहा था। मोर, गाय, बकरी, बच्चों का खेलता हुजूम यह सब कितना सहज कितना प्राकृतिक, बस अपना सा। यह सब मेरी बेटी के लिए नया था। वह चहक रही थी। अब मैं चौक में थी। नीम का वह पेड़ चौपाल पर होने वाली ख़ुशी और ग़म की बातों का साक्षी बना खड़ा था। गाड़ी के धर्रार्ट के पीछे बच्चे कोई निकर संभाले, कोई छड़ी लिए तो कोई नाक पोंछते हुए बस भागे जा रहे हैं और मैं अपने घर के सामने। गाड़ी से उतरते ही नज़र पोली (बैठक) पर पड़ी जिसका छप्पर उड़ चुका था।

नहा - धोकर रास्ते की थकान दूर की, कि दादी अपने लरजते हुए शरीर को लाठी के सहारे ढोती हुई आ गई। “धोक दूँ दादी मैंने कहा।” खुस रह बेटी। ‘ओर के हाल है थारो?’ दादी के गुटने ऐसे चरमराए जैसे भीजी लकड़ी। अरे ! बिटिया हाथ सूनों क्यों है? के कहेगी थारी फैशन ? दादी ने मुँह बिचकाया। चूड़ी तो सिंगार है लुगाई का। मैं सकपका गई जल्दी से घड़ी वाले हाथ में कंगन चढ़ाया।

इतने में ही बूढ़ी साइकिल टायरों से बंधी खटखटाती आ रही थी मानो उसने भी अपने मालिक के साथ संघर्ष करने की शपथ खाई हो। किश्तों से सांस लेती आगे बढ़ रही थी एक सच्चे हमदर्द की तरह। और जर्जराती खांसती आव़ाज लाल, हरी, पीली, नीली चूड़ियाँ..... कानों में कुछ यादें ताज़ा कर गई। माँ-माँ गिन्नी बिसायती आया है। माँ ने पल्लू थोड़ा नीचे सरकाया। कहा बैठो जी। देखते – देखते घर के आँगन में दुकान लग गई। बड़ी सी सफ़ेद उजली दाढ़ी, सीधी नाक उसपर धागे से बंधा चश्मा, दुबला – पतला शरीर मानो हवा से बल खा जाएगा। चेहरे पर झुर्रियां इस कदर फैली थी कि कहीं कोई सीमा नहीं, सब समान।

आ जाओ जी नई-नई चूड़ी, कंघी, लाली लाया हूँ। देखते ही देखते लाल, पीली, हरी, कथई रंगों की चूड़ियाँ निकल आई।

गुड़िया पाणी प्यादो (पिलादो) जाड़े की प्यास गले में काँटा चुभावे है। मेरी बेटी ने कहा ये तो मुसलमान है ना ! फिर ये तो अपनी भाषा बोल रहे हैं। हाँ तो !मैंने आश्चर्य से देखा उसे, उसके इस प्रश्न ने झन्ना दिया मुझे। हमारे लिए तो यह बिसायती है। हम तो इन्हें चाचा कहते हैं। कभी यह ख्याल ही नहीं आया कि यह मुसल ....। कभी दो –चार महीने निकल भी जाते तो चिंता सी होने लगती। क्या हुआ होगा ? तबियत भी अच्छी नहीं रहती, अनजान आशंका मन को डराने लगती। होली, दीपावली गिन्नी चाचा को कोई नहीं भूलता बल्कि मिठाइयाँ उनके लिए रख दी जाती।

शाम की गाड़ी से लौटना था, बेटी की वह बात ‘यह तो मुसलमान है फिर भी हमारी तरह बोलते हैं।’ बार – बार झकझोर रहा था। गाँवों में लोग ज्यादा पढ़े - लिखे नहीं हैं। ग्लोबलाइजेशन के बारे में वे नहीं जानते उन्हें देश दुनिया की ख़बरे नहीं पता लेकिन वे सहिष्णु हैं। मिलकर रहते हैं। ना मीडिया है, ना तर्क। क्या शिक्षित होने पर ही धर्म – धर्म का भेद सीखा जाता है, धर्म के नाम पर देश छोड़ने तक की नौबत आती है। अगर ऐसा है तो कितना अच्छे और सच्चे हैं वे गाँव जहाँ धर्म और भाषा की दीवारें नहीं हैं।


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