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Dr.manju sharma

Drama

3  

Dr.manju sharma

Drama

वे मासूम

वे मासूम

3 mins
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दिन अपने गंतव्य की ओर पैर घसीटता हुआ सा मंथर गति से ढल रहा था। साढ़े तीन बजे की उमस और शहरी गर्द के बीच बस अड्डे पर जवान और बूढी भीड़ का ताँता लगा हुआ था। कोई अपने से बड़बड़ाते हुए गुस्सा और खीज निकालता सा बढ़ रहा था तो कोई केवल गर्दन हिलाता हुआ झूमता हुआ जा रहा था। एक बार को लगा कि ये पागल हैं फिर तकनीकी के वरदान का ध्यान आते ही होटों पर एक हल्का सा फैलाव आ गया खैर लोग बस की प्रतीक्षा कर रहे थे। बस आती उसमें चार उतरते तो आठ चढ़ते| मन को तस्सली होती थी कि जब मेट्रो शुरू हो जाएगी तो ट्रैफिक से थोड़ी सी निजात तो मिलेगी ही, पर कहाँ ‘बाबो गयो जाई टीमली रह्या तीन का तीन|’वही ढ़ाकके तीन पात। खाली बस के झूठे इंतजार में मैंने अपना समय ही ख़राब किया। एक खुंदक सी उठ रही थी स्वयं पर। बुद्धि मानों तर्क कर रही हो अक्ल मारी गई कि जनसंख्या की बाढ़ में ऐसा सोच रही हो। मेरी आँखें बस के नंबरों को टटोलने में व्यस्त थीं। 

इतने में एक मासूम खिलखिलाहट उस बोरियत को तोड़टी हुई मेरे उबाऊ मन पर फुहार करती हुई निकली। देखती हूं पाँच-छ: छुटकू इधर उधर दौड़ रहे हैं किसी का का मोजा ढीला पड़ा है तो किसी की निक्कर छूट रही है, पानी की बोतल बस्ते से बाहर निकलने को आतुर। बाल बिखरे हुए,गालों पर पसीने के धोरे जमे हुए थे जिससे कोमल गाल कुछ खुरदुरे से हो आए थे। सुबह लगाए तेल पर अब गर्द ने डेरा जमा लिया था क्योंकि ये आधुनिकता से दूर अब भी मास्टर जी की बात पर कायम रहने वाले थे। हाथों पर स्याही से फूल बने थे तो कुछ नंबर लिखे थे, बिना किसी ताम-झाम के खिलते हुए चेहरे। अपनी मस्ती में मशगूल लुका छुपी खेल रहे थे। अरे-अरे क्या कर रहे हो ?देखो गाड़ी आ रही है किसी अनजान आशंका से मैं मैंने आवाज लगाई तो कुछ ठिठके जरुर हल्की सी अनजान मुस्कराहट के साथ आगे निकल गए। उन्हें किसी की क्या परवाह बस बेवजह हँसना और खुश रहना उनकी प्रवृत्ति जो है। गरीबी को ठेंगा दिखाते बस आगे बढ़ना उन काम है। मैं सोचती रही इनकी सुरक्षा मायने नहीं रखती क्या ? क्या इन्हें सुविधाएँ नहीं चाहिए ? पर बस इस ‘पर’ का जवाब नहीं मिला।

देखते ही देखते उन्होंने हाथ दिखाया “भैया हमें लिफ्ट दे दो ना !” एक तेईस- चौबीस साल के लड़के ने बाइक रोकी उनके बैग सामने रखे और वे तीनों भी गाड़ी पर लद गए जैसे भगवान ने उनकी मुराद पूरी कर दी हो। युवक भी “ला तेरा बस्ता दे दे, तू यहाँ आ जा।” कहता हुआ आत्मीयता से से बस्ते उठा रहा था। देखते- देखते वे सारे उन्मुक्त पंछी की तरह फुर्र हो गए। अब मेरा मन उन दो बच्चों की तरफ था जो रह गए थे। ये कैसे जाएंगे ? सोच ही रही थी कि जैसे ही दूसरी बाइक आई बिजली की सी गति से लपके और दो पीपल के पत्तों से हाथ लहराए, बाइक रुकी दोनों बैठ गए जमकर और चल दिए अपनी मंजिल पर। कुछ ही पलों में मन हल्का हो गया। अभी तक तनाव दिमाग की नसों को जकड़े बैठा था दुमदबाकर भाग गया। उनकी खिलखिलाहट रस घोलती हुई मन की तहें खोलती फटफटिए के साथ उड़ गई। मैं सोचती रही... हालात हर समस्या से जूझना सिखा देते हैं। बड़े तो वजह बेवजह तनाव का लबादा ओढ़े घूमते रहते हैं।आखिर मन ने कहा, क्या निराश हुआ जाए ?



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