दोराहा
दोराहा
गलवान की सीमा पर गोला बारूद कहर बरपा रही थी। इन सबसे परे रतन सिंह स्तब्ध, किंकर्तव्यविमूढ़ था। सुबह पड़ोसी से फोन पर हुई बातचीत के बाद से उसके मन में द्वंद मचा हुआ था आज वह किस को चुने ?
देश का प्रहरी बनकर इस माँ का फर्ज पूरा करें या उस मां का जो दिन-प्रतिदिन मृत्यु को गले लगा रही थी और संभालने वाला कोई नहीं। थोड़ा माहौल शांत होते ही वह वही बंकर में चिट्ठी लिखने लगा
"मेरे अजीज दोस्त, आज मैं नितांत अकेला दोराहे पर खड़ा हूँ। तुम होते तो बता देते मैं क्या करूँ ? एक तरफ दुश्मन के हमले से भारत मां खतरे में है जिसने मुझ में कुछ कर गुजरने की हिम्मत, जोश साहस प्रेरणा दी और दूसरी तरफ खौफनाक बीमारी, वृद्धावस्था के हमले से वो पालनहारी माँ, जिसने मुझे कचरे के डिब्बे से उठाकर, स्वयं रात भर गीली गुदड़ी पर जाग कर ,भूखे रहकर मुझ अनाथ की परवरिश की।
तुम हमेशा पूछते थे मैं फौज में क्यों भर्ती हुआ ? आज बताता हूं मुझे भारत मां से जब कोई लगाव नहीं था, तब जरूरत थी रोटी कपड़ा और एक ठिकाने की। उस वक्त मैं स्वार्थी था सिर्फ अपने बारे में ही सोचा ।
वक्त के साथ&
nbsp;तन मन में देश के लिए प्राण न्योछावर करने की भावना दृढ़ होती गई। पर अब उस मां की लाचारी मजबूरी मुझे फिर से स्वार्थी बनने के लिए मजबूर कर रही है। पता है सारे रिश्तेदार, पड़ोसी मां के लिए सरकारी अस्पताल, सरकारी दफ्तर में गुहार कर कर के थक गए कि फौजी की मां है इलाज करवाया जाए पर किसी ने उनकी एक नहीं सुनी। मेरी भी छुट्टी नामंजूर कर दी गई।
बंदूक तो आग उगल रही है पर मेरे अंदर की घुमड़ती वेदनायें इन हाथों को दुश्मन का निशाना नहीं बना पा रही हैं। मन करता है यह सब छोड़कर भाग जाऊँ। क्या करूँ दोस्त देश -प्रेम की जगह मातृ -ऋण से उऋण होने की भावनाएं मुझे जकड़ रही है। क्या सही क्या गलत कुछ समझ में नहीं आ रहा है।
मेरी सिर्फ इतनी सी इल्तजा है मेरे दोस्त कि एक बार तुम वहाँ जाकर फिर से महकमे में बात करके दे ःःःआगे के शब्दों के लिए उसकी लेखनी रुक गई दुश्मन की गोली ने उस को निशाना बना लिया था।
विचारों से क्षुब्ध सीमा प्रहरी का चेहरा शांत हो चुका था
माँ के सूने आंचल को "परमवीर चक्र" का तमगा तो मिला पर उसकी वृद्धावस्था और जर्जर शरीर के सहारे का क्या ःः?