दलदल
दलदल
यह तो दलदल है। चाह कर भी इससे निकल नहीं पा रहा हूँ । दादाजी ने मेरे पिता जी से बड़े ही स्पष्ट, उग्र और आक्रामक लहजे में कहा था - "देखो तुम्हारा बेटा हमे देख रहा है। तुम जिस प्रकार का व्यवहार मेरे साथ दुहरा रहे हो- वैसा ही तुम्हारे साथ भी होगा।" पता नहीं, यह दादाजी का श्राप मेरे पिता के लिए था या आने वाली संतति के लिए भी। चाहता हूँ, भूल जाऊँ , भाग जाऊँ कहीं भी। लेकिन भाग नहीं पा रहा हूँ। हमारी सोच ऐसी कि जैसे हम दो ध्रुवों पर खड़े हों । हमारी पसंद नापसंद बिलकुल अलग हैं। मैं जो भी सोचता हूँ , वह कर नहीं पा रहा हूँ। हाँ , सबकी उलाहना जरूर सुननी पडती है। सब अपने काम में व्यस्त हैं, किसी को किसी के लिए अवकाश नहीं। मेरी नींद उड़ गयी है। भविष्य की चिंता मुझे सता रही है। सच पूछिये -तो मेरा वर्तमान भी असुरक्षित प्रतीत होता है। अभी कुछ साल और बचे हैं, इसके बाद तो मैं बेकार हो जाऊँगा। देखिये न, सब कब से उनके जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सच बताऊँ तो, पति की मृत्यु के बाद ही शोकाकुल अवस्था में अपनों ने घोषणा कर दी कि अब माता जी नहीं बचेंगी। लेकिन आज दो साल हो गए। न जाने, उनके प्राण किसमे फंसे हैं । ताऊजी को अपने पोते पोतियों ने ठुकरा दिया, लेकिन भतीजों ने उनकी बड़ी सेवा-सुश्रुषा की, मुझे पता नहीं किस लोभ में ! उधर एक की शादी तो मामा ने कर दी, सोचा मुक्ति मिल गयी। अब स्वतंत्र हैं । आगे सब अपना- अपना देखें। दूसरे की शादी में तरुण जी ने खूब खुलकर खर्च किया। खूब वाहवाही लूटी। लेकिन शादी के चौथे दिन ही उन्होने अपनी मंशा स्पष्ट कर दी- जमीन लिख दो मेरे नाम से, या पैसे वापस लौटा दो। विधवा माँ की स्थिति कैसी -मेरे ही जैसी -दलदल वाली। खैर एक से पीछा छूटा तो दूसरे के पीछे लग गयी। पैसे तो पेड़ पर नहीं उगते न। पता नहीं -कब तक और किस-किसके पास जाएगी। कब तक लुटेगी बेचारी। एक नया प्रस्ताव आया है, हर दिन एक नया प्रस्ताव आता ही रहता है, कभी नई नौकरी का, कभी घर बेचने का, कभी कर्ज़ चुकता करने की। सोचता हूँ कि अगर ऐसा कर भी दूँ तो कल से ही अप्रासंगिक हो जाऊँगा, उसी बेचारी अभागन विधवा की तरह। आस पास अपनों की सनक देखकर व्यथित हूँ, कुछ कह नहीं पा रहा हूँ , कुछ बोल नहीं पा रहा हूँ , कुछ समझ में नहीं आ रहा है -इसी लिए तो लिख रहा हूँ।अंदर के इस द्वंद्व को -जो आप सबके विचार-व्यवहार की परिणति है । कुछ लोगों ने वानप्रस्थ की तो कुछ ने संन्यास सुझाया। कुछ ने राम-रहीम तो कुछ अन्य ने राम-पाल का नाम सुझाया-तय नहीं कर पा रहा हूँ। शिव बाबा के पास ही चला चलूँ - फिर से एक बार ब्रह्मचारी बन जाऊँ। आप से यह भी नहीं होगा। आप इसी दलदल को भोगेंगे। शायद युद्ध के बाद दुनिया की स्थिति बदले और मुझे भी शांति का एक मार्ग मिल जाए -जब सब इस भोग-विलास, युद्ध और हिंसा से ऊब जाए और मुझे मेरी बेबसी से मुक्ति मिल जाए।
