डिअर डायरी
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पूरे उत्तर प्रदेश में कोरोना से अब तक 25 लोगों की मौत हो चुकी है। लेकिन इसी दौरान इसी उत्तर प्रदेश में कई सौ मौतें हो चुकी हैं दूसरी बीमारियों से। और सिर्फ डॉक्टरों की लापरवाही से। क्योंकि उन मरीज़ों को अनदेखा कर दिया जाता है और अस्पताल में पहुंचने के बाद भी उन्हें टरकाया जाता है।
जिस समय कोई मरीज सीरियस कंडीशन में होता है, उसके घर वाले ही जानते हैं, कि एक-एक मिनट उनके लिए कितना भारी होता है।और किसी तरीके से जब वो अस्पताल पहुंचते हैं, तो सरकारी डॉक्टर ठीक से उन्हें देखने की बजाय दूसरे बड़े अस्पताल में उन्हें दौड़ा देते हैं। फिर वहां से तीसरे अस्पताल मे..और अन्ततः नतीजा यह होता है कि मरीज को प्राइवेट अस्पताल की शरण लेनी पड़ती है। लेकिन तब तक इतनी देर हो चुकी होती है, कि अधिकतर मरीजों की जान चली जाती है।
शाहाबाद हरदोई की रहने वाली किशोरी के पिता की मौत का कारण भी सरकारी अस्पताल की लापरवाही है। 14 अप्रैल को उसके पिता के पेट मे तेज दर्द होने लगा। जब तबीयत अचानक ज्यादा खराब हो गई ,तब किसी तरह वो अपने पिता को लेकर जिला अस्पताल पहुंची, लेकिन डॉक्टरों ने उसे ठीक तरह से देखने की बजाय उसे लखनऊ रेफर कर दिया।
फिर किसी तरह व्यवस्था कर जब वो पिता को लेकर केजीएमयू लखनऊ पहुंची, तब वहां भी उसे भर्ती नहीं किया गया और अंततः तड़प तड़प कर उस बेटी के सामने उसके बाप की मौत हो गई।
किशोरी का दर्द सिर्फ उसका दर्द नहीं है, बल्कि इस तरह सैकड़ो केसेज़ रोज आते हैं और इमरजेंसी में उनका इलाज नहीं किया जाता। उन्हें देखा भी नहीं जाता।और बेड न होने की बात कहकर उन्हें दूसरे अस्पताल में रेफर कर दिया जाता है। और फिर वहां से भी यही जवाब मिलता है। इस तरह एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल तो भाग भाग कर अन्ततः मजबूर होकर उसे प्राइवेट अस्पताल की शरण लेनी पड़ती है और इस दौरान अक्सर बहुत से मरीजों की मौत भी हो जाती है।
यह सच है कि एक डॉक्टर का काम बहुत कठिन होता है। लेकिन इमरजेंसी में आए किसी भी मरीज को वापस किया जाना उचित नहीं है। बेड न होने पर भी मरीज को देखा जाना चाहिए। और अगर उसकी कंडीशन बहुत ज्यादा खराब हो, तो अतिरिक्त बेड की व्यवस्था की जानी चाहिए या मरीज को देखने के बाद जब उसकी स्थिति कुछ सम्हल जाए तभी उसे किसी अन्य अस्पताल में रेफर किया किया जाना चाहिए और वहां भी भेजने से पहले यह कंफर्म कर लिया जाना चाहिए कि वहाँ पर बेड उपलब्ध है या नहीं।
डॉक्टरों का आज बहुत सम्मान किया जा रहा है, कि वो इस मुश्किल घड़ी में अपने कर्तव्य पथ पर जी जान से जुटे हुए हैं। लें उन्हीं डॉक्टरों का एक दूसरा रूप भी सामने देखने को मिलता है जो गम्भीर मरीज को ठीक से नहीं देखते, क्योंकि उनकी तनखा तो बंधी हुई है, और जो उन्हें मिलनी ही है।
क्या किसी सरकारी अस्पताल के पास इस प्रश्न का उत्तर है कि उनके यहां से गम्भीर मरीजों को क्यों लौटा दिया आता है, जबकि प्राइवेट अस्पताल मैं उन्हें भर्ती कर लिया जाता है, चाहे उनके पास बेड हो या ना हो। क्योंकि उन्हें बैठकर सरकार से तनख्वाह नहीं मिलती, बल्कि उन्हें मरीज को देखने पर ही पैसा मिलता है। अगर सरकारी अस्पतालों में भी मरीज़ों को देखने के आधार पर डॉक्टरों की तनखा को निश्चित कर दिया जाए तो शायद इन सरकारी अस्पतालों से भी फिर कोई मरीज वापस न होगा।!
एक डॉक्टर की नौकरी सिर्फ नौकरी नहीं बल्कि सेवा होती है।
और जिनमें सेवा की भावना न हो, उन्हें डॉक्टरी करने का कोई अधिकार नहीं।