डेढ़ कोस
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भारत की सीमा पर हवलदार रंजन कुमार आतंकियों से लोहा लेते वक़्त वीरगति को प्राप्त हो गए थे। उस दिन पूरा गाँव कालू के घर पर आया था। उनके पार्थिव शरीर को जिस तरह भारतीय सेना सम्मान के साथ उनके गाँव में स्थित उनके खपड़े की छत के घर को लायी थी वो कालू भूल ही नहीं पा रहा था। उसकी बहु जो गर्भवती थी उसका चिंघाड़-चिंघाड़ कर रोना कालू के आँखों के सामने नाच रहा था। शमशान घाट पर जो भारत की थल सेना ने मृत रंजन कुमार को राइफल की सलामी दी थी उस धमाके की गूँज से कालू का ध्यान टूट गया और वह वर्तमान में आ गया।
रात का समय था और रात की अंधियारी में गाँव की बस्ती से डेढ़ कोस दूर एक रौशनी दिख रही थी। बारिश भी अपने चरम पर हो रही थी। कालू बारिश में भीजता हुआ अपने कदम जल्दी-जल्दी चला रहा था। कपड़ों के नाम पर उसने सिर्फ एक लंगोट पहन रखी थी जो पूरी तरह भीग चुकी थी। आसमान में बिजली ज़ोर-ज़ोर से कड़क रही थी और उस अँधेरी काली रात की अंधियारी को रह-रह कर अपनी चमक से भंग कर रही थी।
बारिश की बड़ी-बड़ी बूँदें जमीन पर गिर कर इतना शोर कर रहीं थीं की मनो बारिश की ध्वनि कानों के परदे चीर डाले, ऊपर से तेज़ हवाएं और रह-रह कर बिजली का चमकना जारी था। तेज हवाएं बारिश के पानी को बुरी तरह से झंझोर रही थीं मानो की बारिश और हवा में कोई युद्ध हो रहा हो साथ ही पानी और हवा के मिश्रित थपेड़े कालू की नंगी काली पीठ पर चाबुक माफिक पड़ रहे थे। तेज हवाएं इतने वेग से चल रहीं थीं की कालू एक सीध में ठीक से चल तक नहीं पा रहा था। बारिश की मोटी-मोटी बूँदें कालू के कानों पर पटा..पट.. की आवाज़ के साथ गिर रहीं थीं, और पानी उसके दोनों गाल, ललाट, भौवें, दोनों आँखों और चेहरे से होते हुए उसकी आधी सफ़ेद हो चुकी दाढ़ी से टपक रही थी जिसे वो बार-बार पोछ रहा था। कभी वो अपनी दायीं आँख पोछता तो कभी बायीं आँख। वर्षा की धारा इतनी घनी थी की वो कुछ देख नहीं पा रहा था। अचानक कालू का पैर फिसल गया और वो गिर गया।
उसे दूर जाना था इसलिये वो तुरंत उठ गया। उसे उस चमकती रौशनी के पास किसी भी हाल में पहुँचना ज़रूरी था। कालू अधेड़ उर्म का था और कादो-कीचड़ से सने रास्ते पर दोनों हाथ को दौड़ने की मुद्रा में हिलाता हुआ, कभी फिसलता तो कभी लड़खड़ाता हुआ तेजी से अपने कदम को बढ़ाता चला ही जा रहा था। वह बारिश में बुरी तरह भीग चूका था और थोड़ा थक भी गया था। बारिश में कड़ी शारीरिक परिश्रम के चलते उसके मुँह से हूँ..हूँ..हूँ की आवाज़ रह-रह कर खासी के साथ अनायास निकल रही थी। वह कभी आस्मां को देखता, तो कभी उस रौशनी के उद्भव स्थान को, तो कभी अपने दोनों होंठो को ज़ोर से दबाये हुए ....हुहम्म्... की आवाज करते हुए नीचे की ओर कीचड़ भरे रस्ते को। उसकी इस छटपटाहट भरी बेचैनी अपनी इकलौती बहु "रजनी"के लिए थी जो प्रसव के दौर में थी और 2 महीने पहले दुर्भाग्यवश विधवा हो गयी थी। कुछ देर बाद कालू अपनी मंज़िल तक पहुँच गया जो की गाँव के सरकारी अस्पताल की डॉक्टर साहिबा का आवास स्थान था।
कीचड़ से सने पैर के साथ और पानी में नहाया हुआ कालू कुछ डरा हुआ डॉक्टर साहिबा के घर के दरवाज़े को खटखटाने लगा, और बारिश की तेज़ गूँज के बीच ज़ोर-ज़ोर से डॉक्टर साहिब-डॉक्टर साहिबा चिल्ला रहा था।
घर के बाहर डॉक्टर साहिबा का ड्राइवर जो की चौकीदारी भी करता था गाडी में शीशों को नीचा कर सो रहा था। शोर गुल सुन कर डॉक्टर साहिब का ड्राइवर जाग गया। वह एक लाठी ले कर भागा-भागा आया और कालू को पुछा, "ऐ पागल है का, इस टाइम इतना काहे हल्ला कर रहा है? कालू ध्यान न देते हुए और ज़ोर से दरवाज़े को खटखटाने लगा। ड्राइवर ने कालू को ज़ोर से डांटा और कहा, "सही में पागल लगता है, भागता है कि नहीं यहाँ से, लाठी खा के ही मानेगा का?कालू फिर भी उसे अनसुना कर रहा था, उधर ड्राइवर गुस्से से लाल-पीला हो रहा था, उसने कहा, " रुक अभी समझाते हैं तुमको", उसने लाठी उठाई ही थी की तभी, डॉक्टर साहिबा के पति ने दरवाज़ा खोल दिया और पूछा, " इतना शोर क्यों कर रहा है, वैसे ही इतनी बारिश हो रही है, क्या बात है? ड्राइवर ने कहा" मालिक ई कोई पगला है जो दरवाज पीट रहा था, और मना करने पर भी सुन नहीं रहा था, उसी को भगाने में हल्ला-गुल्ला हो गया, आप जा कर सो जाइये हम इसको देखते हैं, एक लाठी में इसको नानी याद आ जायेगा, जाइये आप आराम कीजिये"।
इतना बोल कर ड्राइवर कालू को खींचता हुआ बहार ले जा रहा था। इतने में डॉक्टर साहिबा भी बहार आ गयीं, उन्हें देख कर कालू अपना हाथ एक झटके के साथ छुड़ा डॉक्टर साहिबा के चरणों में गिर गया, और फूट-फूट कर रोने लगा। डॉक्टर साहिबा ने कहा, " अरे....अरे ये क्या कर रहे हो, उठो-उठो", ड्राइवर ने कालू को उठाया और दो लाठी भी जड़ दी, डॉक्टर साहिबा ने अपने ड्राइवर को डाटा और रुकने के लिए कहा। डॉक्टर साहिबा ने कहा, "क्या बात है, इतनी जबरदस्त बारिश में तुम यहाँ क्या कर रहे हो, वो भी इतनी रात को;कहाँ से आये हो?"कालू बिलखते हुए बोला, "हमरी बहुरिया को बचा लीजिये, ऊ मर जावेगी, उसको बच्चा होने वाला है;घर में ऊ अकेली है, आप ही उसको और उसका होने वाला बच्चा को बचा सकत हैं मालिक, कुछ भी कर के चलिये हमर साथ"। डॉक्टर साहिबा ने कहा, " अरे पहले बोलते न, ये तो बहुत सीरियस मैटर है, कितना दूर है तुम्हारा घर?। कालू ने कहा , "पासे में है दूर नहीं है मालिक, बस डेढ़ कोस है हियाँ से। डॉक्टर साहिबा ने ड्राइवर को तुरंत गाडी निकलने को कहा और अंदर जाकर अपना दावा और इंजेक्शन वाला बैग लेकर आयीं। इतने में कालू भी अपना हाथ पैर बारिश के पानी में धोने लगा, डॉक्टर साहिबा ने कालू को पीछे बैठने को कहा। डॉक्टर साहिब के पति ने, कहा" मैं भी साथ चलता हूँ"। सब कोई गाडी में बैठे और कालू के घर की और निकल पड़े।
बारिश धीमी चुकी थी और रास्ते का हाल बदत्तर हो चूका था। आसमान में बादल अभी भी थे और अपनी उपस्थिति गड़गड़ाहट से बार-बार जता रहे थे। गाडी की हेडलाइट रास्ते पर पड़ रही थी और उसकी जर्जर हालत का पता चल रहा था। बीच-बीच में आसमान में बिजली चमकती रही थी और बादल भी गरज रहे थे। रास्ते पर गाडी बुरी तरह हिल-डुल रही थी, पुरे रास्ते पर पानी भर चूका था, ड्राइवर को गड्ढों का पता नहीं चल रहा था। कालू चुप-चाप बैठा खिड़की से बाहर देख रहा था, सब चुप थे, सिर्फ गाड़ी के इंजिन की आवाज़ सुनाई दे रही थी, बादल गरज रहे थे। तभी एक बिजली चमकी और कालू के सामने दिल्ली का वह दृश्य आ गया जिसमें उसके बेटे को परम वीर चक्र दिया गया था, उस वक़्त कालू ने गांव के मुखिया की सलाह पर सफ़ेद कुर्ता-पैजामा और सिर पर गांधी टोपी पहन रखी थी।
राष्ट्रपति ने उसे परम वीर चक्र दिया और हाथ मिलाया, कालू कुछ समझ नहीं पा रहा था, भृकुटियां मीच कर वो इधर -उधर देख रहा था उसके मुख पर कोई भाव ही नहीं था। उसके साथ एक सैनिक था और वो जो कहता, जिधर जाने को कहता कालू उधर चला जाता। समारोह खत्म हो गया और सब लोग कालू को रेलवे स्टेशन पर विदा करने को आये, जो लोग कालू के गाँव के थे तो वे कालू के साथ हो लिए। सफर में कुछ लोगों ने कालू को सांत्वना देने की कोशिश की और अपनापन भी जताया। कालू को वे लोग अपने लगने लगे थे। ट्रेन खुल गयी और 8 घंटे के सफर बाद कालू अपने गाँव के रेलवे स्टेशन पर उतर गया साथ ही साथ कुछ गाँव वाले जो उसका साथ देने के लिए दिल्ली तक गए थे वो भी उतर गए। अचानक बैण्ड-बाजे की आवाज आने लगी, एक नेताजी ने कालू का तिलक लगा कर स्वागत किया, माला पहनाया और गले लग कर एक फोटो भी खिंचवाया। कालू फिर कुछ समझ नहीं पा रहा था, वो बस भावविहीन मुद्रा में ये सब तमाशा देख रहा था।
फिर तुरंत नेताजी हाथ हिलाते हुए आगे बढ़ गए और बैण्ड वालों के साथ-साथ कालू के अपने भी नेताजी के साथ आगे बढ़ लिए। कालू स्टेशन पर कुर्ता-पैजामा, गांधी टोपी , माथे पर तिलक और गले में माला पहने हुए खड़ा रह गया, कुुुछ देेेर बाद बैंड बाजे का शोर भी जा चुुका था। दो कदम चल वो रुक गया और न जाने जमीन की ओर क्या देखने लगा, उसके सर से बहुत पसीना टपक रहा था। पसीने की बूँदें ललाट पर लगे तिलक से हो कर बह रही थी और तिलक को लगभग मिटा ही चुकीं थी। कालू की आँखें बड़ी-बड़ी हो गईं, वो बहुत गुस्से में था। मुठ्ठीयां भीचे वो वहीँ खड़ा था और लगातार नीचे ही देख रहा था, गलेे से ग़ुस्से के कारण दबी हुई पर दुख और रोष कि मिली- जुलि आवाज़ निकल रही थी।
सिर से पसीने की बूंदे लगातार टपक रहीं थी। रेल की पटरी पर ट्रेन के आने की.आवाज़ आ.रही थी। तभी प्लेटफार्म से हो कर एक ट्रेन हॉर्न बजाते हुए बड़ी तेज़ी से गुज़री। ट्रेन के आने से तेज़ हवा चली और कालू की टोपी उड़ गयी, फिर भी वो उसी जगह पर उसी मुद्रा में खड़ा था, उसकी आँखे फटी हुई, उसकी साँसे तेज़ चल रही थीं, पूरा बदन पसीने से तर-ब-तर, मुठियाँ कसे वो वहाँ चुप-चाप खड़ा था। तभी किसी ने उसे हिलाया, उसके कानों में एक आवाज़ आई, " ऐ, पागल साहब कुछो पूछ रहे हैं तुमसे, कुछो बोलता काहे नहीं है, ऐ....अरे...ऐ पगला... ऐ"। कालू अपने होश में आ गया, वो गाड़ी में था, लेकिन उसकी आँखे फटी हुईं थीं। उसी मुद्रा में उसने ज़ोर से हाँफते हुए डॉक्टर साहिब के पति की तरफ अपना सिर किया। डॉक्टर साहिबा के पति कुछ देर के लिए चौंक गए, उन्होंने कालू के कंधे पर अपना हाथ रखा और पूछा, "क्या हुआ, क्या बात है ?
कालू के घर पे रजनी अकेली थी। वो बहुत पीड़ा में थी, धीरे-धीरे प्रसव पीड़ा बढ़ती जा रही थी। डेढ़ घंटे बीत चुके थे और कालू का कोई अता-पता नहीं था। बेटे की मृत्यु के बाद कालू बहुत खोया-खोया सा रहता था, बेटा खोने पर भी वो रोया नहीं था, बस उसने चुप्पी साध ली थी, और सुबह से शाम ताक घर के बाहर चौपाई पर बैठा रहता था। रजनी को ही अपने ससुर का पूरा ख्याल रखना पड़ता था। अपने पति की पेंशन से किसी तरह उसके घर का गुजारा चल ही जाता था। पहले रजनी भी बहुत फरमाइशें किया करती थी, अपने ससुर से खूब बात-चीत किया करती थी।
घर पे रोज तीनों वक़्त का खाना-पीना कालू की पसंद का तैयार करती थी, क्योकि उसके पति ने कहा था कि बचपन में रंजन कुमार की माँ के गुजरने के बाद कालू ने ही उसको पाल-पोस के बड़ा किया था, इसलिए नौकरी पर जाने से पहले रंजन ने रजनी को अपने पिता के देखभाल का जिम्मा सौंपा था, और रजनी भी खुशी और आदरपूर्वक कालू का देखभाल करती थी। रजनी को कालू को चुप देखकर बहुत दुःख होता था, वो रोज कालू से पूछती , "बाबूजी आज क्या बनावे, का खाइएगा?कालू बोलता , "कुछो नहीं बेटी जो मर्जी बना दे, खा के का करना है, रंजन तो आपन माई पास चल गईबे किया है, अब बस तू है और हम है बिटिया, तोरा के जो पसंद है ओही बनाई ले, हमर जिंदगी में तो कोनो स्वाद नहीं बचा है, जीभ का स्वाद ले के का करना"।
रजनी की प्रसव पीड़ा और भी बढ़ गयी, पर उसे अपनी छोड़ कालु की चिंता सता रही थी, वह बड़ी मुश्किल से बिछौने से उठ कर घर के बाहर गयी और कालु को ढूंढने की कोशिश करने लगी। धीमे बारिश में वो थोड़ी-थोड़ी भीजने लगी, वो बाबूजी-बाबूजी बोलकर ज़ोर से पुकारती पर उसका पुकारना हर बार व्यर्थ ही जाता। थक कर वो घर के अंदर आ गयी और एक बोतल में पानी गर्म कर के उसे पेट पर रख के लेट गयी। बारिश से मौसम ठंडा हो गया था और थोड़ी देर में पानी भी ठंडा हो गया। अब उसे असहनीय पीड़ा हो रही थी। घर पर अकेली होने के चलते उसका मदद करने वाला कोई नहीं था। अचानक से बारिश तेज़ हो गई। पीड़ा के मारे वो ज़ोर से चिल्लाती पर बारिश के शोर से उसके अडोस पड़ोस तक उसकी आवाज़ पहुँच ही नहीं पाती, ऊपर से बादलों का गरजना और बिजली का चमकना, साथ में तेज़ हवाएं भी खूब शोर मचा रही थी। घर पर रजनी बिलकुल बेबस हो कर बस पीड़ा को बर्दाश्त ही कर सकती थी।
उधर कालु गाड़ी में डॉक्टर साहिब के साथ अपने घर से आधे घंटे की दूरी पर था, रात के 3 बज रहे थे। कालु ने जवाब देते हुए कहा, " हमरा नाम कालु है साहब"। इतना सुनते ही डॉक्टर साहिबा ने तुरंत बोला, " कालू!!....परम वीर रंजन कुमार का पिता? कालु ने कहा, " हाँ साहेब, हम रंजन के बाबूजी हैं"। यह सुनते ही गाड़ी में चुप्पी छा गयी और ड्राइवर ने अचानक से गाडी रोक दी। डॉक्टर साहिब के पति ने ड्राइवर की ओर देखा, और ड्राइवर का चेहरा शर्म के मारे सफ़ेद हो गया था, मनो उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा हो। कुछ सेकंड के बाद ड्राइवर ने गियर बदला और गाडी फिर से चल पड़ी। कालु बोला, " रंजन हमरा एक ही बेटा था मालिक, ओकर माई बचपने में मर गयी थी, तब से हम ही पाले थे रंजन को।
जब बच्चा था न हमरा रंजन, साहेब, तो एक दिन लाल चींटी जो होता है न ऊ रंजन को काट लिया था, और उसको बुखार हो गया था, 3 दिन तक बाबु हमरा सोते ही रहा, बस दवाई खाने उठता और उसके साथ थोड़ा कुछ जो होता खा के फिर सुत जाता। वही रंजन के सिरकटा, और बिना हाथ पैर वाला लास ले के आये थे सैनिक लोगन सब। हम खुद देखे थे लास को, लेकिन हम रोये नहीं, हमर बेटवा जब एतना बहादुरी से लड़ाई किये रहा तो हम तो ओकर बाप हैं, हम कइसे रोते, और रोते तो रजनी को के संभालता साहेब"। यह बोलते हुए कालु की वेदना साफ़ तौर पर उसके आवाज़ के माध्यम से बहार आ रही थी, और उसके कंठ से आने वाली ध्वनि का ऊपर-नीचे होना स्पष्ट सूचक था।
वो अपने दुःख को छुपाने की कोशिश कर रहा था पर उसकी आवाज़ से साफ साफ उसका क्रोध और दर्द का आभास हो रहा था। कालु ने बोला, " रंजन का एक दोस्त था साहेब जो उस समय सैनिक चौकी पे उसके साथ तैनात था, ऊ बोला हमको की 40 आतंकवादी भारत के सीमा में घुस रहे थे, हमरा रंजन 7 आतंकवादी को मार गिराया था पर जब रंजन एक और आतंकी के ऊपर झपटा तो पहाड़ी से नीचे गिरते हुए वो सीमा पार चला गया, वहाँ 13 लोग उसको घेर लिया। ऊपर पहाड़ी से उसको बचने के लिए भारत का सैनिक लोग गोली चलाये जिस से 3 आतंकी लोग और मर गया, लेकिन बाकी बचा दस राक्षस सब मिल के हमर बचवा को फाड़ दिया। हम तो बस एही सोचते रहते हैं दिन भर की जिसको बचपन में ऐ गो चिट्टी काटने से 3 दिन बुखार होता था, उसका सरीर से जब हाथ-पैर और गर्दन काट के अलग कर रहा होगा सैतान सब तब उसको कैसा लग रहा होगा"।
सब लोग एकदम चुप थे, बस बादल गरज रहे थे और इंजन की आवाज़ हो रही थी। कालु की आँखों में आंसू तो थे पर बहार नहीं आ रहे थे, तभी कालु ने पूछा जिसका का उत्तर सिर्फ चुप रह कर ही दिया जा सकता था, "डॉक्टर साहब, आप को का लगता है मालिक, उसका पहले गर्दन काटा होगा की हाथ पैर? किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। बारिश फिर से रुक गयी थी और कालु का घर भी आ गया था पर गाडी वहां नहीं जा सकती थी क्योकि बारिश से सड़क पर अत्यधिक कीचड जमा हो चूका था, और कोई गाडी के पहियों को उस वक़्त कीचड में फ़साना नहीं चाहता था, इसलिए कालु ने सभी को ईशारे से अपना घर दिखाया, और सब पगडंडी पकड़ कर कालु के घर की और बढ़ने लगे। वो लोग कालू के घर के इतने पास थे की उन्हें रह-रह कर हवा के झोंको म् इधर-उधर गूंजती और उड़ती हुई रजनी की चीखें सुनाई देने लगी थीं, जिन्हें सुनकर कालु और भी बेचैन हो उठा और कीचड की परवाह किये बिना ही वो दौड़ पड़ा, लेकिन डॉक्टर साहिबा के पति ने उसे पकड़ लिया, और बोले, "अरे तुम घबराओ मत, अब हम सब यहाँ हैं न , कुछ नहीं होगा तुम्हारी बहु को"। कालु ने कहा, "साहब हमको जाने दीजिए , हमसे नहीं रहा जावेगा, हम रजनिया को नहीं खो सकते हैं, चाहे कुछो हो"। इतना बोल कर कालु दौड़ पड़ा, उसे देख बाकी के लोग भी भागे-भागे कालु के पीछे उसके घर को आ गए। रजनी अर्द्धमुर्छित अवस्था में रह-रह कर चिल्ला रही थी और उसकी साँसे तेज चल रही थीं। वहाँ पहुँचते ही डॉक्टर साहिबा ने रजनी की दिल की धड़कन की जांच की और सबको बहार जाने को कहा।
डॉक्टर साहिब ने पानी को फिर से गर्म किया और दरवाज़ा बंद कर दिया। कालू भौंचक्के भाव में आसमान की और देखने लगा। बादल छंट रहे थे और आसमान साफ़ हो रहा था, सूरज भी निकलने ही वाला था। तभी दरवाजा खुला और डॉक्टर साहिबा अपने साडी के पल्लू से अपने चेहरे को पोछते हुए बहार आयी, और हंस कर बोली बच्चा स्वस्थ पैदा हुआ है। कालू दौड़ कर घर के अंदर गया और बच्चे को अपनी गोद में उठाया, उसे उठाते ही उसकी आँखों से आंसू स्वतः ही छलक पड़े। घर की खिड़की से सूर्य की किरणें अंदर आ रहीं थी, और रौशनी से कालु का चेहरा सपष्ट दिख रहा था। कालू बच्चे को गोद में हिलाते हुए बोल रहा था, " साहेब देखो....बाबू हमर...इ.. इ... बाबू हमर....साहेब.., आंसू की बूँदे उसके आँखों से निकल कर गालों से होते हुए टपक रही थीं, और सूरज की रौशनी की चमक से कालू के आँखों का पानी भी चमक रहा था। उसी चमक भरी आँखों से उसने रजनी की ओर देखा और हाथ उठा कर आशीर्वाद दिया। उसके होंठ व्यकुलता के मारे कांप रहे थे और मुह से बस बाबू हमर -बाबू हमर ही निकल रहा था।
बच्चे को गोद में लिए हुए कालू जमीन पर बैठ गया, और नवजात शिशु को खूब प्यार करने लगा। कभी कालू बच्चे के पैर को चूमता तो कभी हाथ को। वो हँसने की कोशिश करता पर रो बैठता। भाव विभोर हो जाने के कारण उसका गला पूरि तरह अवरुद्ध हो गया था। वह बार-बार रजनी को देखता और कुछ बोलने की कोशिश करता पर बोल नहीं पाता। थोड़ी देर बाद बच्चा रोने लगा और डॉक्टर साहिब ने बच्चे को उठा कर रजनी को दूध पिलाने के लिए दे दीया। अचानक कालू ज़ोर-ज़ोर से रंजन का नाम ले कर रोने लगा, दो महीने से वो अपने आंसुओ को रोके बैठा था, पर आज वो खुद को रोक नहीं पाया। कालू डॉक्टर साहिबा को अपनी काँपती हाथेलियों को दिखाते हुए कलप-कलप कर रोने लगा, जैसे की वह अपनी खाली हथेलियों में छुपे हुए अपने दूर्भाग्य को दिखा रहा हो। पूरे वातावरण में कालू की सिसकियाँ गूँज रही थीं। कालू की कांपती हथेलियों को देख ऐसा लग रहा था मानो वो कह रहा हो की उसके हाथ की लकीरों ने उस से भद्दा मज़ाक किया हो और कालू लकीरों से सवाल कर रहा हो। उसे एक बार फिर समझ नहीं आ रहा था कि वो किसके लिए आंसू बहाये, अपने बेटे रंजन के लिए या फिर अभी-अभी जन्मे नवजात शिशु के लिए।